कांग्रेसी नेता अधीर रंजन चौधरी का कहना है कि उनके मांगने पर उनको ‘एक देश, एक चुनाव’, संबंधी कमेटी से जुड़े कागजात नहीं दिए गए इसीलिए उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द की अध्यक्षता वाली इस कमेटी का सदस्य बनने से इनकार किया। उनके कहने को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। इससे इस बात का एहसास होता है कि किस गंभीरता से सरकार इस प्रस्ताव को बढ़ा रही है या समय-समय पर बढ़ाती रही है। पर उनके हटाने के फ़ैसले में भी उतना ही झोल है जितना इस प्रस्ताव को बार-बार रखने और खामोश हो जाने में है। जिस अंदाज में एक ट्वीट से इस बात की शुरुआत हुई और एकाध को छोड़कर लगभग सारे न्यूज चैनलों ने ‘समझ’ लिया कि संसद का विशेष सत्र ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ का फ़ैसला करने के लिए बुलाया जा रहा है वह भी कम बड़ा झोल नहीं है।
जब एक पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में भारी भरकम कमेटी बना दी गई हो, आधे राज्यों में भाजपा या एनडीए की सरकारें हों और सरकार द्वारा संसद में अपने मन के प्रस्ताव पास कराने का रिकॉर्ड हो तो क्या संकेत मिलता है? साफ़ है मामला तकनीकी मजबूरी या मज़बूती से ज़्यादा राजनैतिक है।
भाजपा की तैयारी, संसाधन, चुनाव लड़ने का कौशल और सबके ऊपर नरेंद्र मोदी जैसा भारी भरकम चेहरा उसे इस प्रणाली से या इसके एक हिस्से की अभी शुरुआत करा देने से भी लाभ की स्थिति में ला देगी। जिन पाँच राज्यों के चुनाव अगले दो-तीन महीनों में होने हैं या अन्य के चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ या उससे पहले होने हैं उन सबमें भाजपा मजबूत नहीं है और सबमें उसे नरेंद्र मोदी की छवि का ही सहारा दिखता है। राजस्थान में स्थिति अलग है तो वसुंधरा राजे को आगे करना मोदी-शाह की सेहत के लिए अच्छी बात नहीं है। ऐसे में साथ चुनाव कराने या दो हिस्सों में चुनाव कराने का तर्क समझ आता है।
और ऐसा भी नहीं है कि पहले इस तरह के चुनाव नहीं हुए हैं। 1967 तक चार चुनाव तो साथ-साथ हुए हैं। फिर विधानसभाओं को असमय भंग करने और लोकसभा के कार्यकाल से छेड़छाड़ की वजह से हालात यहाँ तक आये। असमय विधान सभाओं को भंग कराके राज्यों में असमय चुनाव कराना हो या लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाना या फिर मध्यावधि चुनाव कराना, सब कानून के दायरे में या कानून बदल कर ही हुए हैं और हर के लिए राजनैतिक तर्क दिया जाता था। पर अनुभव यह भी बताता है कि जब लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव साथ होते थे तब हमारे सांसद बिना कुछ किये धरे विधानसभा उम्मीदवारों के श्रम और पार्टी के नाम पर जीत जाते थे और फिर ऐसे जीते सासंदों के पांच साल दर्शन दुर्लभ हो जाते थे।
अब कोई सांसद ऐसे गायब रहकर नहीं जीत सकता। धनबल और सांसद निधि के खर्च के बावजूद हर चुनाव में आधे लोग जनता के पैमाने पर खरा न होने के चलते हार जाते हैं। इस बार तो लोकसभा विधानसभा के साथ पंचायतों और स्थानीय निकाय चुनाव की भी बात की गई है। इसमें तो और उल्टा लोकतंत्र स्थापित होगा। सारा काम निचले स्तर के लोग करेंगे और मौज मारेंगे ऊपर के लोग।
भारत का चुनाव आयोग दुनिया में सबसे ताक़तवर है। पर यह भी देखने में आया है कि अपराधीकरण, धनबल के इस्तेमाल, जातिवाद और साम्प्रदायिकता को रोकने में चुनाव आयोग नाकाम रहा है।
यह काम जब तक बड़े दलों के नेता नहीं करेंगे चुनाव साफ-सुथरे नहीं हो सकते। क्या सरकार इस बारे में सोचेगी? क्या पैनल इस पर विचार करेगा?
जानकारों का मानाना है कि एक साथ चुनाव क्षेत्रीय और छोटे दलों का सफाया कर देगा। जब लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ होते हैं तो मतदाता एक ही दल को दोनों स्तर पर पसन्द कर सकता है। यह भी देखने में आया है कि लोकसभा चुनाव के तत्काल बाद होने वाले चुनावों में भी राष्ट्रीय दल को काफी लाभ मिलता है। मुंबई स्थित आईडीएफ़सी इंस्टीट्यूट के एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि दिन ब दिन मतदाता का रुझान लोकसभा में वोट देने वाले दल को विधानसभा चुनाव में भी वोट देने के प्रति बढ़ रहा है।
संस्थान ने 1999 से अध्ययन किया है। उनका आकलन है कि दोनों चुनाव एक साथ होने से एक ही दल को पसन्द करने वालों का अनुपात 69 फीसदी से बढ़कर 86 फीसदी तक आ गया है। जिस तरह राष्ट्रपति प्रणाली भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज के उचित प्रतिनिधित्व से मेल नहीं खाती और एक बड़े नेता, दमदार और साधन सम्पन्न चुनाव अभियान चलाने वाले दल को लाभ दे सकती है उसी तरह एक साथ लोकसभा और विधानसभा के चुनाव भी बड़े, ताकतवर और साधन सम्पन्न दल को अतिरिक्त लाभ देंगे और छोटे दलों की परेशानी बढ़ेगी। और नए दलों-नेताओं के लिए तो अवसर समाप्त ही हो जाएंगे। इसलिए मांग चाहे जिस स्तर से उठी हो इसके सारे गुण-दोष देखकर फैसला होना चाहिए।