एनसीआरबी के आंकड़े: जेलों में सबसे ज़्यादा क्यों क़ैद हैं आदिवासी, दलित, मुसलमान!

07:26 am Sep 05, 2020 | प्रेम कुमार - सत्य हिन्दी

देश में अनपढ़ होना गुनाह है! आदिवासी और दलित होना भी गुनाह है! मुसलमान भी ऐसे ही गुनहगारों की श्रेणी में आते हैं! नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों से जो आईना बन रहा है, वह यही तसवीर दिखा रहा है। लोग लाचार और बेबस हैं। बगैर सज़ा के जेलों में बंद हैं। अंडरट्रायल हैं। और, जेलें भी क्षमता से अधिक कैदियों को समेट कर अमानवीय स्थिति का अतिरिक्त बोझ ऐसे बेबस लोगों पर डाल रही हैं। महिलाएं भी अबला हैं और बच्चे भी असहाय, लिहाजा अंडरट्रायल माताएं बच्चों समेत जेल की जिन्दगी जीने को विवश हैं।

वंचित तबक़ों के लिए आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी बाबा साहेब आंबेडकर का सिद्धांत रहा है। मगर, वे सत्ता में हिस्सेदारी की बात करते थे। वंचित तबक़ों के लिए आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी बाबा साहेब आंबेडकर का सिद्धांत रहा है। मगर, वे सत्ता में हिस्सेदारी की बात करते थे। विकास के मामले में तो इन तबक़ों को इनका जायज़ हक़ अब तक नहीं मिला, लेकिन एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि जेलों में उनकी हिस्सेदारी उनकी आबादी के अनुपात से कहीं ज़्यादा सुनिश्चित कर दी गयी है।

एनसीआरबी की 2020 की रिपोर्ट कहती है कि देश में 1 लाख 44 हजार 125 सज़ायाफ्ता कैदी हैं जबकि अंडरट्रायल यानी विचाराधीन कैदियों की संख्या 3 लाख 30 हजार 487 है। 2011 की जनगणना के मुताबिक़ देश की आबादी में एससी वर्ग 16.63 फीसदी, एसटी वर्ग 8.6 फीसदी और मुसलमान 14.2 प्रतिशत हैं। जब हम एनसीआरबी की ओर से जारी आंकड़ों में जेल में बंद कैदियों और दलित, आदिवासी व मुसलमानों की हिस्सेदारी पर नज़र डालते हैं तो एक चिंताजनक तसवीर दिखाई पड़ती है। 

सत्ता में नहीं, जेलों में दलित-आदिवासी-मुसलमानों को आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी

पहले अनुसूचित जाति यानी एससी की चर्चा कर लें जिनकी 2011 की जनणना के मुताबिक़ आबादी में हिस्सेदारी 16.63 प्रतिशत है। मगर, जेलों में दोषी करार दिए जाने के बाद सज़ा भुगतने वाले लोगों में उनकी हिस्सेदारी 21.7 फीसदी है। इसी तरह अंडरट्रायल या विचाराधीन कैदियों में उनका हिस्सा 20.9 प्रतिशत है।

आदिवासियों की आबादी 8.6 प्रतिशत है। हालांकि सज़ायाफ्ता कैदियों में उनकी हिस्सेदारी आबादी के हिसाब से थोड़ा कम 6.7 प्रतिशत है जबकि अंडरट्रायल कैदियों में यह उससे कहीं ज्यादा 10.52 प्रतिशत है।

मुसलमानों की आबादी आधिकारिक तौर पर 14.2 फीसदी है। सज़ा भुगत रहे कैदियों में 16.6 फीसदी मुसलमान हैं जबकि बगैर दोष सिद्ध हुए अंडरट्रायल कैदियों में उनकी हिस्सेदारी 18.73 प्रतिशत है।

यह बात सामान्य तौर पर भी चिंताजनक है कि अंडरट्रायल कैदियों की संख्या सज़ा भुगत रहे कैदियों के मुकाबले 2.29 गुणा ज्यादा है। यह संख्या बताती है कि हमारी पुलिस, जांच और अभियोजन से लेकर न्यायपालिका तक की व्यवस्था में बड़ी खामियां हैं।

बच्चों के साथ जेलों में बंद हैं महिलाएं

बहुत महत्वपूर्ण सवाल है कि मां के साथ बच्चों को जेलों में बंद क्यों रखा जाए इस सवाल का उत्तर ढूंढने से बचते हुए हमने एक और परिस्थिति अपने लिए निर्मित कर ली है। जो माताएं अंडरट्रायल हैं उन्हें बच्चों समेत जेल में रखा जा रहा है! यह तो खुलेआम अन्याय है! देश में 1543 महिला कैदी ऐसी हैं जो अपने 1779 बच्चों के साथ जेल में बंद हैं। इनमें से 1212 तो विचाराधीन हैं और उनके साथ 1409 बच्चे हैं। जबकि, 325 सजायाफ्ता हैं और उनके साथ 363 बच्चे हैं।

यूपी में सबसे ज्यादा ऐसे मामले हैं। यहां 430 महिलाएं हैं जिनके साथ 490 बच्चे जेलों का जीवन जीने को मजबूर हैं। दूसरे नंबर पर पश्चिम बंगाल है जहां 147 महिलाएं अपने 192 बच्चों के साथ जेल में हैं। और, फिर मध्य प्रदेश का नंबर आता है, जहां 138 महिलाएं अपने 177 बच्चों के साथ जेल में बंद हैं।

20 फीसदी बढ़े अंडरट्रायल कैदी

मोदी राज के बीते पांच साल के आंकड़े देखें तो पता चलता है कि 2014 से 2019 के बीच अंडरट्रायल कैदियों की संख्या में 20 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है। वहीं, सज़ायाफ्ता कैदियों में करीब 9.5 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। जबकि, कुल कैदियों की तादाद में 14.35 प्रतिशत का इजाफा बीते पांच साल के दौरान हुआ है।

2014-19 : 20.36% की दर से बढ़े अंडर ट्रायल कैदी

विचाराधीन कैदियों का बढ़ना और सज़ायाफ्ता कैदियों से इसका दो गुणे से ज्यादा होना यह बताता है कि अदालतों में अभियुक्त को दोषी सिद्ध करने का काम सुस्त है।

देश में जितने कैदी दोषी साबित होने के बाद सज़ा भुगत रहे हैं उसके 2.29 गुणा कैदी अंडरट्रायल हैं यानी विचाराधीन हैं। मतलब ये कि उन पर दोष सिद्ध नहीं हुआ है। 2014 में 67.6 फीसदी सज़ायाफ्ता कैदियों के मुकाबले 2019 में यह आंकड़ा बढ़कर 69.05 फीसदी हो चुका है।

जेलों में क्षमता से दो गुणा ज्यादा कैदी

जेलों में क्षमता से अधिक कैदी होना भी गुनाह है लेकिन यह गुनाह खुले तौर पर किया जा रहा है। देश की 1350 जेलों में 4 लाख 3 हजार 739 कैदियों की क्षमता है। मगर, कैदी हैं 4 लाख 78 हजार 600। यानी क्षमता से 118.5 फीसदी ज्यादा कैदी जेलों में बंद हैं।

9 राज्यों में तो हालत ये हैं कि वहां क्षमता से सवा गुणा से लेकर पौने दो गुणा अधिक कैदी रखे जा रहे हैं। इनमें दिल्ली में क्षमता से 174.9% ज्यादा कैदी हैं। दूसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश में 174.9% ज्यादा और फिर उत्तराखण्ड (159%), मेघालय (157.4%), मध्य प्रदेश (155.3%), सिक्किम (153.8%), महाराष्ट्र (152.7%), छत्तीसगढ़ (150.1%) और जम्मू-कश्मीर में (126.8%) ज्यादा कैदी हैं।

अनपढ़ सड़ रहे हैं जेलों में

गौर करने वाली बात यह भी है कि जो अनपढ़ हैं, निरक्षर हैं उनकी संख्या कैदियों में ज्यादा है। 27 प्रतिशत कैदी निरक्षर हैं। कुल 4 लाख 79 हजार 600 कैदियों में 1 लाख 32 हजार 729 निरक्षर हैं। कक्षा 10 से नीचे पढ़ाई करने वाले कैदी 21.5 प्रतिशत हैं। इनकी संख्या 1 लाख 3 हजार 36 है।

एनसीआरबी के आंकड़ों में जो सच्चाई दिख रही है वह अशिक्षित, ग़रीब और वंचित तबक़ों के लिए चिंताजनक है। उन्हें न्याय नहीं मिल रहा है और जोर-जुल्म का शिकार भी वही सबसे ज्यादा हैं। ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे को ये आंकड़े मुंह चिढ़ाते दिख रहे हैं।