‘मस्तानी’ यानी दीपिका पादुकोण वह कौन-सा राज उगल देगी जो नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो यानी एनसीबी को नहीं पता! ममता कुलकर्णी ने 30 साल पहले जो बताया था उससे अलग क्या खुलासा होगा! संजय दत्त ने 1993 में 9 साल तक ड्रग्स में डूबे रहने की जो बात कबूली थी क्या उससे भी बड़ी बात सामने आएगी बीजेपी के कद्दावर नेता रहे प्रमोद महाजन के पुत्र राहुल महाजन 14 साल पहले जो कुछ बता चुके हैं उससे बढ़कर कोई खुलासा होने जा रहा है!
रेव पार्टियों में पकड़े जाते रहे फ़िल्मी कलाकारों से वो कौन सी बात आज तक नारकोटिक्स को पता नहीं चल पायी है जो 25 सितंबर को मस्तानी उसे बताने वाली है! मस्तानी के बाद कतार में और भी फ़िल्मी हीरोइनें हैं जिनसे एनसीबी नशा और नशे के क़ारोबार को लेकर पूछताछ करने वाली है। वह रिया चक्रवर्ती से पहले से ही पूछताछ कर रही है।
वक़्त बदला, साल बदले, चेहरे बदले, हाल बदले। न ड्रग्स का क़ारोबार कम हुआ, न इसकी चपेट में आने वाले युवाओं की तादाद घटी। जो पकड़े जाएँगे, वो गुनहगार। जो बच निकलेंगे वो तीरंदाज़। निगहबानी करने वाले ‘कट’ लेने का दस्तूर जारी रखेंगे और ड्रग पेडलर का धंधा भी एक घटना के बाद दूसरी घटना के बीच बढ़ता रहेगा। क्या यही सच नहीं है ड्रग्स के क़ारोबार का, उसके ख़िलाफ़ अभियानों के दस्तूर का
ड्रग्स के क़ारोबार को क़रीब से देखने वाले दावा करते हैं कि शौक और संगति नशे के क़ारोबार को ज़िन्दा रखती है। मगर, यह दावा भी किसी संगति का अनजाना असर ही होता है। वर्ना देश की हुकूमत चाह ले और वह शौक को बदल न पाए या संगति को कुसंगति में बदलने से रोक न पाए- ऐसा होता नहीं है। हाँ, जब हुकूमतें नशा के क़ारोबार के सामने घुटने टेक देती हैं तो नशा परजीवी लताओं की तरह फैलती चली जाती है और अपने ही आधारों को लीलती चली जाती है।
अफ़ीम की खेती के लिए कभी बदनाम था भारत
चीन की हुकूमत ईस्ट इंडिया कंपनी से हारी थी। हिन्दुस्तान अफ़ीम का खेत बना था और चीन से अफ़ीम युद्ध में जीत के बाद अंग्रेजों का व्यापार घाटा उनके अनुकूल हुआ था। अफ़ीम के उत्पादक भारतीय किसान तो कभी समृद्ध नहीं हो पाए, मगर दुनिया का सबसे बड़ा अफ़ीम उत्पादक देश भारत ज़रूर बन गया। आज़ाद हिन्दुस्तान ने इस बदनामी से देश को मुक्त भी कराया।
यूनाइटेड नेशंस ऑफ़िस ऑन ड्रग्स एंड क्राइम के मुताबिक़ 1953-54 में भारत में 52,930 एकड़ ज़मीन पर अफ़ीम का उत्पादन होता था। आज दसवें हिस्से में ही अफ़ीम की खेती होती है और वह भी नारकोटिक्स डिपार्टमेंट की सख़्त निगरानी में और चिकित्सीय उद्देश्य से।
उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में कुल 1 लाख लोग अफ़ीम की खेती पर निर्भर करते हैं। खेती करने वालों की वास्तविक संख्या 30 से 35 हज़ार है। उत्पादक किसानों को एक किलो अफ़ीम की क़ीमत 1 हज़ार रुपये मिलती है। खुले बाज़ार में 50 हज़ार रुपये प्रति किलो इसकी क़ीमत होती है। अफ़ीम से निकला दुग्ध पदार्थ यानी लैटेक्स सरकार ले लेती है और बीज किसान खुले बाज़ार में बेच देते हैं। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की फैक्ट्रियों में परिष्कृत होकर दवाओं के लिए अलग-अलग नामों से नये-नये उत्पाद बनाए जाते हैं।
दुखद सच्चाई यही है कि सरकारी नियंत्रण के बावजूद भारत लगातार नशे की चपेट में पहुँचता चला गया है। इसकी सबसे बड़ी वजह है अफ़ग़ानिस्तान जहाँ दुनिया का 75 फ़ीसदी अफ़ीम अवैध रूप से पैदा हो रहा है। तालीबान का इस पूरे क़ारोबार पर नियंत्रण है। मध्यपूर्व से लेकर दक्षिण एशिया तक का बाज़ार हो या फिर यूरोप और अमेरिका का बाज़ार, अफ़ग़ानिस्तान से निकला नशा हर जगह मौजूद है। इसी काम में कोलंबिया जैसे देश भी आगे हैं। मगर, भारत एक बड़ा बाज़ार बन चुका है, इसमें संदेह नहीं।
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अफ़ग़ानिस्तान अफ़ीम पर निर्भर!
दुनिया में अफ़ीम का उत्पादन अचानक 2017 में 2016 के मुक़ाबले 65 फ़ीसदी बढ़ गया। उत्पादन 10,500 टन तक जा पहुँचा। अकेले अफ़ग़ानिस्तान में 9000 टन अफ़ीम का उत्पादन हुआ जो पिछले साल की तुलना में 87 फ़ीसदी ज़्यादा था। दुनिया में 2016 के मुक़ाबले 2017 में 4 लाख 20 हज़ार हेक्टेयर अतिरिक्त क्षेत्र में अफ़ीम का उत्पादन हुआ। इनमें 75 फ़ीसदी हिस्सा अफ़ग़ानिस्तान में है। अफ़ग़ानिस्तान में 3 लाख 28 हज़ार हेक्टेयर क्षेत्र में अफ़ीम की खेती हुई। अनुमान है कि 550 से 900 टन एक्सपोर्ट क्वालिटी वाली हेरोइन की पैदावार हुई। 2017 में इसकी क़ीमत 4.1 अरब डॉलर से लेकर 6.6 अरब डॉलर आँकी गयी थी। अफ़ग़ानिस्तान की जीडीपी का यह 20 से 32 प्रतिशत तक हिस्सा है।
भारत तक ड्रग्स पहुँचने का जो सबसे प्रचलित मार्ग रहा था वह है गोल्डन क्रीसेंट रूट। अफ़ग़ानिस्तान-वाया पाकिस्तान और फिर भारत। मगर, अब यह मार्ग बंद हो चुका है। नया रास्ता बना गोल्डन ट्राइएंगल- थाइलैंड, लाओस और म्यांमार के रास्ते भारत। यह मार्ग भी बदला जा चुका है। अब जिस रास्ते ड्रग्स भारत पहुँच रहा है वह है नेपाल-बांग्लादेश-म्यांमार रूट। इसके अलावा भी पानी और हवा का मार्ग बंद नहीं हुआ है।
हवाई अड्डों पर पकड़ी जाती रही हेरोइन, कोकीन की खेप बताती हैं कि ये रूट भी पोरस हैं यानी इन मार्गों में भी ऐसे छेद हैं कि ड्रग्स का क़ारोबार फल-फूल रहा है। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक़ 2015 में 32,559 लोग ड्रग्स के मामलों में गिरफ़्तार हुए थे। 2018 में यह संख्या 47,604 हो गयी।
दुनिया में अफ़ीम से मरते हैं 4.5 लाख लोग, शराब से 30 लाख!
दुनिया के 27.5 करोड़ लोगों ने 2016 में अफ़ीम का नशा किया था। 2015 में 4.5 लाख लोगों की जान ड्रग्स ने ले ली थी। ड्रग्स के साथ-साथ शराब ने भी दुनिया की नींद उड़ा रखी है। अगर अल्कोहल से मौत के आँकड़ों पर ग़ौर करें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन की ग्लोबल स्टेटस रिपोर्ट ऑन अल्कोहल के मुताबिक़ दुनिया में क़रीब 2 अरब 30 लाख लोग शराबी हैं। 2016 में 30 लाख लोगों की मौत शराब की वजह से हुई थी। भारत के लिए चिंता का विषय यह है कि प्रति व्यक्ति अल्कोहल की ख़पत 2005 में जहाँ 2.4 लीटर थी वहीं 2016 में 5.7 लीटर हो चुकी है।
शराब और ड्रग्स के नशे भले ही अलग-अलग हों लेकिन जब दोनों ही नशे से लोग तबाह हो रहे हैं, मारे जा रहे हैं, अवसाद का शिकार हो रहे हैं, आत्महत्या कर रहे हैं तो एक नशे से राजस्व कमाया जाए और दूसरे नशे को लेकर नैतिकता की सीख दी जाए- यह कैसे हो सकता है!
अफ़ीम क़ारोबारियों का चारागाह क्यों है भारत
चीन की तरह भारत ने कभी कोई अफ़ीम युद्ध नहीं हारा। फिर भी यह अफ़ीम के क़ारोबारियों का चारागाह कैसे बना हुआ है। हमारे जल, थल और वायु मार्ग इतने असुरक्षित कैसे हैं कि हमारी अवाम नशे में डूब रही है और हम ऐसा होते हुए देख रहे हैं। फ़िल्म से लेकर क्रिकेट तक जहाँ सट्टेबाज़ी भी है और नशे का क़ारोबार भी। राजनीति भी इससे अछूती नहीं है। दिवंगत जसवंत सिंह की सियासी पार्टी में अफ़ीम परोसे जाने का मसला उछला तो बहुत था मगर कभी नारकोटिक्स डिपार्टमेंट ने वो मुस्तैदी नहीं दिखलायी जैसी ज़रूरत थी।
फ़िल्म की अभिनेत्रियों को कहाँ पता होता है कि वे देसी शराब की दुकानों में सजी बोतलों पर ब्रांड नेम बनकर नशा बाँट रही होती हैं। धन्नो, मस्तानी, बंटी-बबली, कैटरीना जैसे नामों से देसी शराब बिकती हैं। ड्रग्स के नामों में भी खासियत दिख जाती है जो ‘लायन’, ‘टाइगर’ के रूप में ‘विजेता’ होने का अहसास कराती है। यह शाही अहसास होता है। अमीरी और रईसी का अहसास। ऑर्डर देने वाला रुतबा। बिलायती शराब भी इसी अहसास को ज़िन्दा बनाता है। ज़रा नामों पर ग़ौर कीजिए- ऑफिसर्स च्वाइस, इम्पेरियल ब्लू, रॉयल स्टैग, रॉयल चैलेंज, ओल्ड एडमिरल, ओरिजिनल च्वाइस।
‘जो है नाम वाला वही तो बदनाम है’- यह बात नशे के ब्रांड के साथ क्यों नहीं लागू होती। क्यों नशा स्टेटस सिम्बल बन जाता है और नशेड़ी बदनाम हो जाते हैं। क्या हम मान लें कि ‘नशा शराब में होता तो नाचती बोतल’। मतलब ये कि ड्रग्स के क़ारोबारियों का कोई कसूर ही नहीं। कसूरवार ड्रग्स लेने वाले ही हैं। शिकारी बेकसूर है, शिकार ही का दोष है!