जन्म से कश्मीरी पंडित प्रो. निताशा कौल के लिए ये वाक़ई ‘नया और अविश्वनीय’ भारत है। लंदन के ‘वेस्टमिंस्टर विश्वविद्याय में सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेमोक्रेसी’ की प्रमुख प्रो. निताशा कौल 23 फ़रवरी को बेंगलुरु के हवाई अड्डे पर उतरी थीं। उन्हें कर्नाटक सरकार ने ‘भारत में संविधान और एकता’ सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया था। लेकिन ‘दिल्ली के आदेश’ का हवाला देते हुए आव्रजन अधिकारियों ने उन्हें हवाई अड्डे से निकलने नहीं दिया। वे 24 घंटे तक ‘होल्डिंग सेल’ में रखी गयीं जहाँ वे खाना-पानी और कंबल के लिए भी तरस गयीं। आव्रजन अधिकारियों ने उन पर आरएसएस विरोधी होने को लेकर ताने कसे और फिर बिना कारण बताये वापस लंदन भेज दिया गया।
प्रो. कौल पीएम मोदी की कश्मीर नीति की आलोचक रही हैं। खासतौर पर अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाने के लिए मोदी सरकार ने जो कार्यशैली अपनायी, उसके विरोध में उन्होंने कुछ लेख लिखे थे। लेकिन उन्हें लगता था कि भारत और चीन में फ़र्क़ है। भारत का लोकतंत्र आलोचना की इजाज़त देता है। अपनी इस धारणा पर अब वे दोबारा विचार कर रही हैं।
प्रो. कौल शायद भूल गयी थीं कि 2022 के अकादमिक स्वतंत्रता सूचकांक में भारत 179 देशों में सबसे नीचे के तीस फीसदी देशों में शुमार किया गया था। इस कसौटी पर भारत के अंक (0.38) पाकिस्तान (0.43) से भी कम थे। मोदी राज में देश के तमाम बुद्धिजीवी और अकादमीशियन सिर्फ़ इसलिए देशद्रोह की धाराओ में जेल भेजे गये क्योंकि उन्होंने बीजेपी और आरएसएस की वैचारिकी को ख़तरा बताते हुए तमाम सवाल उठाये थे। प्रो. कौल के साथ हुए व्यवहार को लेकर किसी भी वास्तविक लोकतंत्र का मीडिया तूफ़ान ख़ड़ा कर देता, लेकिन भारतीय मीडिया ने लगभग चुप्पी साध ली है। ऐसी ‘सामान्य’ घटनाओं की रिपोर्टिंग करना उसने दस साल पहले छोड़ दिया है।
भारत के मुख्यधारा के मीडिया में भारत के ‘विश्वगुरु’ बन जाने की धूम है। ये उपाधि कहाँ और कैसे मिलती है, इसकी जानकारी कोई नहीं देता। मीडिया को पक्का यक़ीन है कि पीएम मोदी के नेतृत्व में 2024 में एनडीए चार सौ सीटों का आँकड़ा पार करेगा और बीजेपी के अकेले 370 पाने का दावा तो उसके लिए दैवी भविष्यवाणी की तरह है। इस दावे का ढोल बार-बार बजाया जा रहा है बिना यह बताये कि दस साल में पीएम मोदी के नेतृत्व में देश कहाँ से कहाँ पहुँच गया।
ज़रा बीजेपी के मोदी जी के रिपोर्ट कार्ड पर नज़र डालिए। हर मामले में फिसड्डी निकलेंगे। महंगाई बेइंतेहा है। दस साल पहले चार सौ में मिलने वाला गैस सिलेंडर 11 सौ रुपये का है। बेरोज़गारी 45 साल के सर्वोच्च शिखर पर। 42 फीसदी शिक्षित नौजवानों को रोज़गार की कोई उम्मीद नहीं। किसानों की आय दोगुनी करने का नारा जुमला साबित हुआ है। फसलों की एमएसपी को लेकर किसान आंदोलित हैं और उन पर गोली और आँसू गैस के गोले बरस रहे हैं। वंचित वर्गों को बेहतर जीवन देने वाले आरक्षण के सिद्धांत के साथ बार-बार छल किया जा रहा है। सरकारी उपक्रमों को बेचने की गति इस सिद्धांत को बेमानी बना रही है।
लोकतंत्र सूचकांक में भारत 108वें नंबर पर, मीडिया की स्वतंत्रता के मामले में 161वें नंबर पर, प्रति व्यक्ति आय के मामले में 142वें नंबर पर और भुखमरी के मामले में 111वें नंबर पर है।
असमानता का आलम ये है कि देश के एक फ़ीसदी अमीरों के पास देश की कुल जीडीपी का 40 फ़ीसदी है जबकि 50 फीसदी ग़रीब जीडीपी के तीन फ़ीसदी पर जीवन यापन कर रहे हैं। 80 करोड़ लोग मुफ्त राशन के सहारे हों तो ग़रीबी हटाने की हक़ीक़त समझी जा सकती है।
इन आँकड़ों पर दुनिया भारत को तौल रही है, पर भारतीय मीडिया के लिए इनका कोई अर्थ नहीं। वह बस राजा का बाजा बजाने में जुटा है। तो फिर चार सौ पार कैसे होगा। सिर्फ मीडिया के सहारे? विज्ञापन के सहारे? चारों तरफ़ ढोल बजाकर हक़ीक़त की आवाज़ों को दबाने की साज़िश के सहारे? मोदी जी को महामानव बताने का अभियान उस नगर-सेठ के लड़के की याद दिलाता है जो फेल हो जाने पर पूरे शहर में मिठाई बँटवा देता है। कोई उसका रिज़ल्ट नहीं पूछता।
इसमें शक़ नहीं कि बीजेपी पूरी तरह मोदी के सहारे है और मोदी राममंदिर या फिर संघ के नफ़रती अभियान के सहारे जिसे मीडिया दिन रात हवा देता है। मोदी जी को नया धर्मावतार बताया जा रहा है।
जो लोग मोदी के सामने कौन जैसे सवाल उठा रहे हैं उन्हें राहुल गाँधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा में उमड़ी भीड़ पर नज़र डालनी चाहिए। इसमें नौजवानों की भारी तादाद है जो बताती है कि 2024 का चुनाव ‘मोदी बनाम मुद्दे’ पर होगा। राहुल गाँधी जाति जनगणना, आरक्षण पर लगे पचास फीसदी कैप को हटाने, एमएसपी की कानूनी गारंटी देने के साथ नफ़रत के बाज़ार में मुहब्बत की दुकान खोलने का वादा कर रहे हैं। ये रास्ता वही है जो कभी कबीर, नानक, रैदास, गाँधी और डा. आंबेडकर ने दिखाया था। इन मुद्दों से देश की 90 फ़ीसदी आबादी का वास्ता है। मीडिया इस पर चाहे जितना पर्दा डाल दे, आने वाले दिनों में इसकी गूँज हर तरफ़ होगी। पैसा दबाकर अपनी जाति के वोटों का थोक सौदा करने वाले पिछड़ी और दलित जातियों के नेताओं की धोती उनकी जाति के नौजवान ही खोलेंगे।
बीजेपी दक्षिण भारत से लगभग साफ़ है और कांग्रेस-समाजवादी पार्टी गठबंधन के बाद एनडीए की शक्ति हिंदी पट्टी में आधी हो जाये तो आश्चर्य नहीं। ऐसा सामाजिक न्याय की लड़ाई को नये धरातल पर पहुँचने से होगा जिसके सामने तमाम भावनात्मक मुद्दे स्पष्ट रूप से छल ही नज़र आते हैं। बीजेपी को जिन राज्यें पर भरोसा है, वे झारखंड, बिहार और उत्तर प्रदेश मिलकर मोदी के लिए वाटरलू बन सकते हैं। झारखंड में चंपई सोरेन, बिहार में तेजस्वी यादव और यूपी में अखिलेश यादव का न्याय यात्रा में शामिल होना ‘टर्निंग प्वाइंट’ है।
2024 के चुनाव में किसी भी देशभक्त के लिए चुनना मुश्किल नहीं होगा। कॉरपोरेट का कठपुतली बनाम देश के असल मु्द्दे में चुनने को बचता ही क्या है? संविधान बचाने की इस लड़ाई में हर देशभक्त को अपने हिस्से की समिधा डालनी पड़ेगी, यह बात चुनाव क़रीब आते-आते और साफ़ हो जायेगी। चार सौ पार का नारा चुनावी जुमला ही साबित होगा।