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भागवत का कहा मान लिया तो सत्ता और धार्मिक रोज़गार का क्या होगा?

भागवत का कहा मान लिया तो सत्ता और धार्मिक रोज़गार का क्या होगा?

मोहन भागवत को हाल में क्यों दोहराना पड़ा कि राममंदिर निर्माण के बाद कुछ लोग सोचने लगे हैं कि अगर ऐसे ही विवाद नए स्थानों को लेकर उठाते रहेंगे तो वे हिंदुओं के नेता बन जाएँगे? भागवत की बात मान ली गई तो क्या होगा?

मोहन भागवत जो कह रहे हैं वे अगर उसे हक़ीक़त में बदल कर दिखा दें तो दुनिया का सबसे बड़ा पुरस्कार ‘नोबेल पीस प्राइज’ उन्हें मिल जाएगा और संघ के नेतृत्व में एक अहम मसले पर विश्व में शांति स्थापित हो जाएगी। जो काम महात्मा गांधी अपनी शहादत के बावजूद पूरा नहीं कर सके, बापू के धुर विरोधी संगठन राष्ट्रीय सेवक संघ के शिखर पुरुष अपनी आँखों के सामने होता हुआ देख लेंगे। 

मोदी और भागवत जब कभी कुछ बोलते हैं आत्माएं झकझोर देते हैं। उनके कहे के अनेक भाष्य होने लगते हैं। इसलिए दोनों से ही लोग उनके न चाहते हुए भी डर-डर कर रहते हैं। मोदी के कारण उनके राजनीतिक विरोधी और भागवत के कारण संघ की नज़रों के कथित ‘विधर्मी’। 

राजनीतिक विरोधी मोदी का मुँह इसलिए ताक़ते रहते हैं कि प्रधानमंत्री अंग्रेज़ी भाषा के शब्दों की जादूगरी करके ‘सबका विकास’ का कौन सा नया जुमला जनता को सौंपने वाले हैं और, दूसरी ओर, संघ प्रमुख अल्पसंख्यकों के भारत में भविष्य को लेकर कार्यकर्ताओं को क्या नया मार्गदर्शन देने वाले हैं!

देश की मुस्लिम आबादी फतवों के लिए अब देवबंद की तरफ़ कम और नागपुर की तरफ़ ज़्यादा देखती है। अल्पसंख्यकों को यह भी लगता होगा कि उन्हें लेकर भाजपा और संघ के बीच शायद कोई कंपीटिशन चल रही है। भारत में उनके भविष्य पर दोनों आपस में साथ बैठकर कोई एक स्ट्रेटेजी नहीं तय कर पा रहे हैं। 

महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव संघ के नेतृत्व में ‘कटेंगे तो बँटेंगे’ की थीम पर लड़ा गया था। योगी के नारे के पीछे संघ की सहमति थी। इसी बीच संभल भी हो गया। नागपुर में फडणवीस सरकार के गठन और मुंबई में विभागों के बँटवारे से फ्री होते ही संघ प्रमुख ने एक नया मंत्र हवा में उछाल कर न सिर्फ़ साधु-संत समाज और संघ-भाजपा के कार्यकर्ताओं के लिए संकट उपस्थित कर दिया, मुस्लिम अल्पसंख्यकों को भी नए सिरे से चिंतित कर दिया। 

दो साल पहले उत्पन्न हुए ‘ज्ञानव्यापी’ विवाद के बाद भागवत ने कहा था कि हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों तलाशना चाहिए? राममंदिर का काम पूरा हो गया है। हमें अब कोई आंदोलन नहीं करना चाहिए। क्या भागवत के कहे का कोई असर हुआ? या सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के ज़रिये सत्ता की राजनीति करने वाले महत्वाकांक्षियों ने संघ को ही हाशिये पर डाल दिया?

ऐसा नहीं हुआ होता तो भागवत को हाल में दोहराना नहीं पड़ता कि राममंदिर निर्माण के बाद कुछ लोग सोचने लगे हैं कि अगर ऐसे ही विवाद नए स्थानों को लेकर उठाते रहेंगे तो वे हिंदुओं के नेता बन जाएँगे! ‘यह मंज़ूर नहीं’। भागवत का इशारा जिन भी ‘लोगों’ की तरफ़ रहा हो वे विपक्षी दलों के तो हरगिज़ ही नहीं हो सकते। तो फिर कौन हैं? नाम लेकर साफ़-साफ़ बोलने से भागवत क्यों कतरा रहे हैं? दाएँ-बाएँ की राजनीति कब तक करते रहेंगे?

भागवत इस सच्चाई को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होंगे कि सांप्रदायिक वैमनस्य के जिस ‘जिन्न’ को सत्ता-प्राप्ति के हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के प्रति नागपुर का इतने सालों से मौन समर्थन रहा है वह वापस बोतल में वापस जाने को तैयार नहीं है। वह ‘जिन्न’ 2002 के गुजरात दंगों के बाद से मनचाही मुरादें पूरी करता रहा है। हक़ीक़त यह है कि वह ‘जिन्न’ अब अपनी जगह संघ को बोतल में बंद देखना चाहता है।

भागवत के कहे पर साधु-संत समाज की जो प्रतिक्रिया सामने आई है वह उदाहरण है और उसे लेकर संघ प्रमुख को चिंतित होना चाहिए। साधु-संत समाज की प्रतिक्रिया में संघ की भूमिका को लेकर वही कहा गया है जो लोकसभा चुनावों के दौरान जेपी नड्ढा ने कहा था और जिसके बाद संघ-भाजपा के बीच तनाव बढ़ गया था। यानी संघ को लेकर भाजपा और साधु-संतों की धारणा अब एक-सी है।

संतों के संगठन ‘अखिल भारतीय संत समिति’ ने भागवत के हाल के वक्तव्यों की आलोचना करते हुए कहा है कि धार्मिक मामलों में फ़ैसले धर्माचार्य ही लेंगे, संघ नहीं जो कि एक सांस्कृतिक संगठन है। 

समिति के महासचिव स्वामी जितेंद्रानन्द सरस्वती ने कहा है कि धर्माचार्य जो भी तय करेंगे उसे संघ और विश्व हिंदू परिषद स्वीकार करेंगे।

समिति के हवाले से यह भी दावा किया गया है कि भागवत द्वारा अतीत में दिये गए इसी तरह के वक्तव्यों के बाद 56 नए स्थानों पर मंदिरों के अवशेषों की पहचान की गई है। समिति के कहे का सार यही समझा जा सकता है कि भागवत के कहे का कोई असर नहीं पड़ने वाला है और जो चल रहा है वही चलता रहेगा। 

पिछले दो-ढाई दशकों के दौरान विभिन्न राजनीतिक दलों और उनके शीर्ष संगठनों के झंडों तले हज़ारों-लाखों-करोड़ों कार्यकर्ताओं, प्रवचनकारों, साधु-संतों और अखाड़ों के पेड-अनपेड या सेल्फ-हेल्प समूह खड़े हो गए हैं। इन समूहों के लिए मंदिर-निर्माण और मंदिरों के अवशेषों आदि की तलाश करना अपने आपको लाभप्रद तरीक़ों से व्यस्त रखने का बड़ा संसाधन या उद्योग बन गया है।

भागवत का कहा अगर मान लिया गया तो देश में धार्मिक बेरोज़गारी की अराजकता मच जाएगी। कथित विधर्मियों के मर्मस्थलों पर प्रहार करके सत्ता-प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करने वाले सेनानियों का अकाल पड़ जाएगा। हिन्दुत्ववादी सरकारों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाएगा।

भागवत के कहे को अगर प्रधानमंत्री का समर्थन नहीं प्राप्त होता है तो संघ-प्रमुख इतना भर तो कर ही सकते हैं कि वे अपने आप को सत्ता के सुरक्षा कवच से और कार्यकर्ताओं को चुनावी राजनीति से पूरी तरह अलग कर लें! भाजपा को उसके अपने हाल पर छोड़ दें। प्रयोग के लिए दिल्ली और बिहार के चुनाव सामने खड़े हैं। भागवत क्या ऐसा कर पाएँगे?

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