यह दिलचस्प है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत से मिलकर आने वाले पाँच चर्चित मुसलमान लोग खुद से सफाई दे रहे हैं कि संघ प्रमुख से मिलने का समय उन्होंने लिया था। भागवत अपने कई प्रमुख सहयोगियों के साथ मिले थे और ऐसी मुलाकात एक महत्वपूर्ण घटना है। इसमें किसी किस्म के अपराधबोध के आने का मतलब उसके महत्व को कम करना ही है। और जो बातें जामिया के कुलपति और आईएएस रहे नजीब जंग और पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी साहब के हवाले से आ रही हैं वे और भी हल्की हैं। सिर्फ गाय की कुर्बानी और जेहादी या काफिर न कहे जाने वाले दिखावटी मुद्दों पर सहमति का कोई मतलब नहीं है और ना इतनी ही बात करने की जरूरत थी।
कुरैशी का इंडियन एक्सप्रेस में लिखा लेख भी यही सब कहता है। जैसा उन्होंने लिखा है कि उन लोगों को अपने इस कदम के लिए काफी मुसलमानों और कुछ हिंदुओं से वाहवाही मिल रही है तो काफी मुसलमानों से गालियां। वे यह भी सवाल उठा रहे हैं कि आपको मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने के लिए किसने चुना।
उन लोगों की तुलना में संघ और मोहन भागवत की तरफ से आए संकेत बहुत पॉजिटिव हैं। संघ प्रमुख न सिर्फ इन लोगों से मिलने अपनी पूरी टोली के साथ आए, जिसमें मुसलमानों के बीच काम करने वाले संघ के एक पदाधिकारी इंद्रेश कुमार भी शामिल थे। इस मुलाक़ात के बाद भागवत ने मस्जिद में इमाम से लंबी बात की और मदरसा भी गए। यह कोई सीक्रेट मिशन नहीं था, जैसी ध्वनि कुरैशी जैसों की सफाई से आती है। यह संघ प्रमुख की सक्रियता और उनके मन में चलने वाले कार्यक्रम की दमदार अभिव्यक्ति है। इससे पहले मोहन भागवत ने काशी के ज्ञानवापी मस्जिद में शिवलिंग होने के विवाद के समय भी एक साहसी बयान दिया था कि ‘हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों ढूँढना’।
संघ की तरफ़ से एक वरिष्ठ स्वयंसेवक को मुसलमानों से संवाद के लिए तैनात किया गया है और उनके काम की तारीफ भी करनी होगी कि उन्होंने लगभग सभी मुसलमान जमातों से अच्छा-बुरा, लेकिन संवाद जरूर किया है। मुसलमानों के बाद संघ प्रमुख मेघालय के एक ईसाई मिशन स्कूल गए, एक कबीलाई लोक पर्व में हिस्सा लिया। और इन सभी अवसरों पर उनका जो भाषण सार्वजनिक हुआ वह संघ की पुरानी राय से और स्थापित मान्यताओं से अलग जान पड़ती है।
और जो रोना कुरैशी कर रहे हैं, उससे कई गुना ज़्यादा गालियाँ संघ प्रमुख को हिंदुत्ववादी ब्रिगेड की तरफ़ से आ रही हैं। सोशल मीडिया इसकी एक झलक देता है। और अपने स्वभाव के अनुकूल संघ प्रमुख ने न तो इस पर प्रतिक्रिया दी है और न गालियों का सार्वजनिक जिक्र करके कोई सहानुभूति पाने की कोशश की है।
भागवत तो अब हिंदुस्तान में रहने वाले सारे लोग हिन्दू वाले पुराने बयान से भी आगे जाकर किसी तरह का धर्मांतरण न हो जैसा बयान दे रहे हैं। मदरसे ख़त्म करने की जगह उनकी पाठ्य सामग्री में बदलाव और उसके ज्यादा हिन्दुस्तानी होने की, हिन्दी पढ़ाने की वकालत कर रहे हैं।
यह संघ की बुनियादी मान्यताओं से अलग है और गुरु गोलवलकर की किताबों ‘ए बन्च ऑफ़ थॉट’ तथा ‘वी, आवर नेशनहुड डिफ़ाइंड’ की काफी सारी बातों से उलट है।
हिन्दुत्व और हिंदुस्तान की अब की व्याख्या से संघ की पुरानी विचारधारा का कोई मेल नहीं है। ऐसे में संघ की आलोचना संघ समर्थित लोग भी कर रहे हैं और वो भी जो संघ के कट्टर आलोचक हैं। ये लोग भागवत के बयान और उठाये कदमों से हैरान हैं, परेशान हैं और इसमें षडयन्त्र देखने की कोशिश कर रहे हैं।
संघ की स्थापना राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयता, मातृभूमि-पितृभूमि की बिलकुल अलग परिभाषा से हुई है। ये परिभाषा राष्ट्रीय आंदोलन और गांधी की राय से बिलकुल अलग थी। आज अगर संघ के दूसरे प्रमुख गुरु गोलवलकर और सावरकर की राय से भागवत की राय को मिलाकर देखा जाये तो कई लोगों को भागवत का बयान हैरान करने वाला लगेगा। और अगर उनके बयान को आज के हिंदुत्ववादियों के बयान से जोड़ कर देखा जाये तो अजीब विरोधाभास दिखेगा।
संघ का इतिहास बहुत ज्यादा बदलाव और पुरानी मान्यताओं को छोड़ने का भी रहा है। इस मामले में मोहन भागवत से भी आगे कुप्पा सी. सुदर्शन थे। और जिस संघ प्रमुख बाला साहब देवरस के कार्यकाल में संघ ने सबसे ज्यादा प्रगति की उनका कहना था कि बाकी सब बातें बदल सकती हैं लेकिन हिंदुस्तान हिन्दू राष्ट्र है, इसमें बदलाव नहीं हो सकता। संघ ने गांधी का विरोध छोड़कर उनको प्रात:स्मरणीय बना लिया था। आजादी के बावन साल बाद संघ मुख्यालय पर राष्ट्र ध्वज फहराया गया, आरक्षण का विरोध छोड़कर उसका समर्थन हुआ, चितपावन ब्राह्मण की जगह दूसरी बिरादरी को संघ प्रमुख बनाने का अवसर मिला।
अब यह ‘न्यूजब्रेक’ करने में कोई हर्ज नहीं है कि संघ इस बार अपने विजयादशमी के कार्यक्रम में, जिस दिन 1925 में उसकी स्थापना हुई थी, पहली बार एक महिला को न्यौता दे रहा है। इन 97 सालों में संघ के कार्यक्रमों से महिलाओं को दूर रखा जाता था। सो दलित, आदिवासी, पिछड़ा, नस्ल सुधार, मुसलमान, ईसाई, तिरंगा और गांधी के बारे में ही संघ ने अपनी राय नहीं बदली है (अभी तक कम्युनिष्टों को इस तरह का ‘सुख’ नहीं मिला है और अब वही एकमात्र दुश्मन बचे लगते हैं), वह महिला और अनेक दूसरों मामलों में भी बदला है। इस सरकार ने समलैंगिता से जुड़े कानून बदले तो संघ की तरफ़ से कोई विरोध न होना भी बदलाव ही था।
ऐसे में ये आवश्यक है कि लोग इस बदलाव की वजह समझने का प्रयास करे रहे हैं। कोई इसे मोदी के चुनाव अभियान में पसमांदा मुसलमानों का समर्थन जुटाने का अभियान मान रहा है तो कोई हिन्दुत्व के नाम पर जुटी लुमपेन फौज से होने वाली तकलीफ को कम करने की कोशिश। अपने चुनाव में हिंदुत्ववादी वोटर के नाराज़ होने का ख़तरा मोदी नहीं उठा सकते। सो संघ परिवार की तरफ़ से यह जहर भागवत पी रहे हैं क्योंकि उनको किसी से वोट मांगने और अपनी सत्ता बचाने के लिए वोट पर निर्भर रहने की ज़रूरत नहीं है।