मनमोहन के नाम पर लैटरल एंट्री की बदनीयती को ढँक रही मोदी सरकार?

01:40 pm Aug 23, 2024 | पंकज श्रीवास्तव

पसंद के नौकरशाह बनाने की तरक़ीब यानी ‘लैटरल एंट्री’ को लेकर छिड़े हालिया विवाद में राजनीतिक नुक़सान भाँपकर बैकफ़ुट पर गयी मोदी सरकार के मंत्रियों ने अब कांग्रेस को घेरना शुरू कर दिया है। याद दिलाया जा रहा है कि मनमोहन सिंह, सैम पित्रोदा, रघुराज राजन, मोंटेक सिंह अहलूवालिया, नंदन निलेकणी जैसे लोगों को कांग्रेस या यूपीए सरकार ने ऐसे ही सरकार के साथ काम करने का मौक़ा दिया था। ये ‘नेहरू ज़िम्मेदार’ सिंड्रोम से निकला वही तर्क है जिसकी आड़ में ‘पूर्ण बहुमत’ के साथ दो कार्यकाल पूरा कर चुकने के बाद भी मोदी सरकार तमाम नाकामियों की ज़िम्मेदारी लेने से भागती रहती है।

डॉ. मनमोहन सिंह समेत तमाम दूसरे लोगों का नाम इस सिलसिले में उछालना एक हास्यास्पद तर्क है। कांग्रेस के ज़माने में किसी क्षेत्र विशेष में नाम कमा रहीं विभूतियों को सरकार से जोड़ा गया था न कि लोगों से सरकार में संयुक्त सचिव या उप सचिव बनाने के लिए आवेदन माँगा गया था। कांग्रेस के ज़माने में जिन लोगों को जोड़ा गया था उन्होंने देश की तरक़्क़ी में जो योगदान दिया, उसे विरोधी भी सराहेंगे।

ज़रा मनमोहन सिंह के करियर पर नज़र डालें। ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी से डिग्री हासिल करने के बाद डॉ. मनमोहन सिंह संयुक्त राष्ट्र संघ के लिए काम कर रहे थे जब 1969 में तत्कालीन मंत्री ललित नारायण मिश्र ने उन्हें वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के सलाहकार के रूप में सरकार से जोड़ा। बाद में वे रिज़र्व बैंक के गवर्नर और प्लानिंग कमीशन के उपाध्यक्ष बनाये गये। 1991 में जब देश भयानक आर्थिक संकट से गुज़र रहा था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने उन्हें वित्तमंत्री बनाकर आर्थिक सुधारों का एक नया दौर शुरू कराया जो भारत की आर्थिक महाशक्ति बनने की यात्रा की बुनियाद बना। 2004 में जब यूपीए की सरकार बनी तो सोनिया गाँधी ने सबको चौंकाते हुए प्रधानमंत्री पद के लिए मनमोहन सिंह का नाम प्रस्तावित किया और अगले दस साल तक लगातार प्रधानमंत्री रहकर उन्होंने देश के विकास में जो भूमिका अदा की वह अब इतिहास में दर्ज हो चुका है।

ऐसा ही मामला अन्य लोगों के साथ भी है। ओडिशा के एक सामान्य बढ़ई परिवार के सत्यनारायण गंगाराम पित्रोदा कल्याणकारी राज्य की सुलभ शिक्षा व्यवस्था के ज़रिए शिकागो के इलेनॉय युनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी से इलेक्ट्रानिक्स में मास्टर डिग्री लेने के बाद वहीं काम करने लगे थे। वे सैम पित्रोदा कहलाने लगे थे और 1974 में दुनिया की सबसे पहली डिजिटल कंपनियों में से एक विस्कॉॉम स्विचिंग में काम कर रहे थे। उनके अनुभव और भारत में डिजिटल क्रांति के सपने को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पंख दिया और 26 अप्रैल 1984 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सी-डॉट की शुरुआत की मंज़ूरी दी। सैम पित्रोदा को एक रुपये वार्षिक वेतन पर सी-डॉट का प्रमुख बनाया गया। इंदिरा जी इसी साल 31 अक्टूबर को शहीद हो गयीं। देश की बागडोर राजीव गाँधी ने सँभाली और सैम पित्रोदा के साथ मिलकर उन्होंने भारत में काफ़ी दूर लगने वाली दूरसंचार क्रांति को संभव बना दिया। जल्दी ही गली-गली एसटीडी बूथ और पीसीओ नज़र आने लगे। समय पर हुई उस शुरुआत को भारत को कितना लाभ मिला, उसका सिर्फ़ अंदाज़ा लगाया जा सकता है। बीजेपी शायद ही याद करना चाहे कि राजीव गाँधी के ज़माने में जिस तरह टेक्नोलॉजी, ख़ासतौर पर कंप्यूटर पर ज़ोर दिया जा रहा था, उसके विरोध में उसके बड़े-बड़े नेता संसद से लेकर सड़क तक हल्ला मचाते थे।

कुछ ऐसी ही भूमिका मोंटेक सिंह अहलूवालिया की भी थी। ऑक्सफोर्ड से पढ़कर वर्ल्ड बैंक के लिए काम करने वाले मोंटेक सिंह अहलूवालिया सलाहकार की भूमिका में सरकार से जुड़े और आगे चलकर योजना आयोग के उपाध्यक्ष बने। वे एक मशहूर अर्थशास्त्री हैं। 2013 में भारतीय रिज़र्व बैंक के 23वें गवर्नर बनाये जाने से पहले रघुराज राजन भी शिकागो युनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में मुख्य अर्थशास्त्री रह चुके थे। इसी तरह जुलाई 2009 में  युनिक आयडेन्टिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया (आधार) का चेयरमैन बनाये जाने से पहले नंदन निलेकणी इंफ़ोसिस जैसी कंपनी के सीईओ बतौर शोहरत हासिल कर चुके थे।

मोदी सरकार द्वारा कांग्रेस या यूपीए दौर में हुई जिन नियुक्तियों का ज़िक्र किया जा रहा है उनकी देश निर्माण में सकारात्मक भूमिका से कोई इंकार नहीं कर सकता। क्या यही बात मोदी सरकार द्वारा की गयी नियुक्तियों के लिए भी कही जा सकती हैं?

मोदी सरकार ने 2019 से 2024 के बीच 63 नियुक्तियाँ कीं। उन्हें ज्वाइंट सिक्रेटरी, डिप्टी सिक्रेटरी और डायरेक्टर स्तर की ज़िम्मेदारी दी गयी। क्या मोदी सरकार एक भी नाम बता सकती है जिसकी तुलना मनमोहन सिंह, सैम पित्रोदा या रघुराज राजन से की जा सके? क्या इन नियुक्तियों के बाद शासन-प्रशासन या नीतियों में आये सकारात्मक परिवर्तन का कोई ऑडिट किया गया है? उल्टा हिंडनबर्ग रिपोर्ट के ज़रिए चर्चा में आयीं माधवी पुरी बुच जैसे नाम हमारे सामने हैं जिन्हें पहले सेबी का सदस्य और फिर चेयरमैन बनाया गया। उन्होंने सेबी प्रमुख के रूप में अडानी ग्रुप की अनियमितताओं की जाँच नहीं की। हिंडनबर्ग का आरोप है कि उनका अडानी ग्रुप से आर्थिक रिश्ता रहा है।

लैटरल एंट्री के विज्ञापन को रद्द करने के लिए मोदी सरकार के कार्मिक मंत्री जीतेंद्र सिंह की ओर से यूपीएससी को लिखे गये पत्र में इस बात पर ख़ास ज़ोर दिया गया है कि मोदी जी आरक्षण को लेकर बेहद संवेदनशील हैं और अब ऐसी नियुक्तियाँ बिना आरक्षण नियमों का पालन किये बिना नहीं होंगी। राहुल गाँधी समेत विपक्ष के कई नेताओं ने लैटरल एंट्री के तहत होने जा रही 45 नौकरशाहों की नियुक्तियों में आरक्षण का पालन न किये जाने को बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना दिया था। एनडीए में शामिल कुछ दलों की ओर से भी यह सवाल उठा था। बैसाखी पर टिकी मोदी सरकार के लिए विज्ञापन वापस लेने के अलावा कोई चारा नहीं था। लेकिन मुद्दा महज़ आरक्षण का नहीं, मोदी सरकार की नीयत का भी है।

लैटरल एंट्री को लेकर सबसे बड़ा आरोप आरएसएस पृष्ठभूमि के लोगों को सरकारी तंत्र का हिस्सा बनाने का है। जिस तरह सरकारी अधिकारियों के आरएसएस के साथ जुड़ने पर लगी पाबंदी हटायी गयी है, उसे देखते हुए यह आरोप काफ़ी दमदार हो गया है। साथ ही कॉरपोरेट के लिए काम कर रहे अधिकारियों को लैटरल एंट्री देकर उन जगहों पर बैठाने की कोशिश का आरोप भी है जहाँ नीतियाँ तय होती हैं। ये नियुक्तियाँ महज़ तीन साल के लिए हैं और इन्हें दो साल के लिए बढ़ाया भी जा सकता है। मोदी सरकार जिस तरह कुछ पूँजीपतियों को फ़ायदा पहुँचाने में जुटी रहती है, उससे किसी को भी शक़ होना स्वाभाविक है कि लैटरल एंट्री के ज़रिए भी इन कंपनियों का हित देख रहे लोगों को सरकार का हिस्सा बनाया जा सकता है। कंपनी के हितों के अनुरूप नीतियाँ बनाकर वे आसानी से वापस कॉरपोरेट जगत में जा सकते हैं। उनकी कोई जवाबदेही नहीं होगी। जबकि संघ लोक सेवा आयोग से चुन कर आया नौकरशाह तमाम तरह की शर्तों और प्रतिज्ञाओं से बँधा रहता है।

यानी असल मसला ‘नीयत’ का है। लैटरल एंट्री के ज़रिए यूपीए मनमोहन सिंह को लायी थी और मोदी सरकार माधवी बुच को। डॉ. आंबेडकर ने सही कहा था कि अच्छे से अच्छा संविधान भी अगर ख़राब लोगों के हाथ पड़ जाये तो ख़राब नतीजे देगा। मोदी सरकार के हाथों लैटरल एंट्री के हथियार का यही अंजाम दिख रहा है।

(डॉ. पंकज श्रीवास्तव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और कांग्रेस से जुड़े हैं।)