पिछले एक हफ़्ते से अचानक सरकार संविधान और क़ानून की बात करने लगी है। ख़ास तौर पर सूचना एवं तकनीकी मंत्री रविशंकर प्रसाद अपने ख़ास अंदाज़ में बारंबार कह रहे हैं कि विदेशी सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म को भारतीय संविधान एवं क़ानूनों का पालन करना ही पड़ेगा। यह बात उन्होंने संसद के अंदर और बाहर दोनों जगह कही।
रविशंकर प्रसाद के बयानों में एक ख़ास क़िस्म की बौखलाहट थी और धमकाने की मंशा भी। वह ट्विटर को उसके अधिकार और हदें नहीं बता रहे थे, न ही उनका इरादा भारतीय लोकतंत्र के तकाजे से उसे वाकिफ़ करवाना था। सीधे तौर पर कहा जाए तो वह उसे बता रहे थे कि अगर भारत में क़ारोबार करना है तो सरकार के आदेशों का पालन करना होगा।
इससे किसी को भला क्या असहमति हो सकती है कि भारत में क़ारोबार करने वाली हर देशी-विदेशी कंपनी को यहाँ के संविधान एवं क़ानूनों का सम्मान करना चाहिए, पालन करना चाहिए। भारत एक लोकतांत्रिक एवं संप्रभु देश है और सरकार का अधिकार ही नहीं ज़िम्मेदारी भी है कि वह इनकी पालना के लिए हर संभव उपाय करे।
वैसे भी यह शिकायत बहुत आम है और सही भी है कि विदेशी कंपनियाँ उन देशों में मनमाने तौर-तरीक़ों से काम करती हैं, जहाँ की सरकारें ढीली-ढाली होती हैं या उन्हें इस बात का पता नहीं होता कि उनकी मनमर्ज़ियाँ किस तरह से देश को नुक़सान पहुँचा रही हैं। सोशल मीडिया कंपनियाँ चलाने वाली ये तमाम अमेरिकी कंपनियाँ भी अलग नहीं हैं।
दुनिया भर में इन कंपनियों को लेकर शिकायतें हैं और कई जगह तो सीधे-सीधे जंग की नौबत आ चुकी है। चीन को आप छोड़ दें, क्योंकि वह लोकतांत्रिक देश नहीं है। उसने तो फ़ेसबुक एवं ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर पाबंदी लगा रखी है और गूगल का चीनी संस्करण ही वहाँ चलता है। लेकिन ऑस्ट्रेलिया ने गूगल पर स्थानीय कंपनियों के साथ राजस्व साझा करने की शर्त को लेकर जो मुहिम चला रखी है उसका नतीजा यह होने वाला है कि गूगल वहाँ काम ही न करे।
यूरोप के कई देशों, बल्कि पूरे यूरोपीय संघ ने ही हेट स्पीच को लेकर इन कंपनियों पर दबाव बना रखा है। उन्होंने इनके ख़िलाफ़ राजस्व साझा करने के लिए भी कड़ा रुख़ अख़्तियार कर रखा है। इस लड़ाई की वज़ह से सोशल मीडिया कंपनियों को बदलने के लिए विवश होना पड़ रहा है। लेकिन ये तमाम टकराव राजनीतिक उद्देश्यों के लिए नहीं हो रहे हैं, इनका मक़सद आर्थिक लूट को रोकना है।
भारत में स्थिति दूसरी है। असल में, सरकार का मुख्य उद्देश्य राजनीतिक है। यह तो जगज़ाहिर है कि भारतीय मीडिया उसके नियंत्रण में है और वह पूरी तरह से केंचुआ मीडिया में तब्दील हो चुका है। उससे उसे न कोई डर है, न चिंता।
अब वह सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म को अपने नियंत्रण में लेना चाहती है। फ़ेसबुक से भी उसे कोई डर नहीं है क्योंकि उसके साथ उसकी साठगाँठ पहले से है, लेकिन ट्विटर से उसे परेशानी हो रही है।
ख़ास तौर पर किसान आंदोलन के अंतरराष्ट्रीयकरण से वह बुरी तरह घबरा गई। उसने सोचा था कि भारतीय मीडिया तो उसकी जेब में है और वह आसानी से इस आंदोलन से जुड़ी ख़बरों को दबा देगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। सोशल मीडिया के ज़रिए ख़बरें दुनिया भर में फैल गईं और अंतरराष्ट्रीय हस्तियाँ उन पर प्रतिक्रिया करने लगीं। ख़ास तौर पर ट्विटर ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इसीलिए सरकार पिछले एक महीने से लगातार उस पर दबाव बनाने की कोशिश कर रही है कि वह उसके इशारों को समझे और चले। क़रीब एक हफ़्ते पहले उसने इस दिशा में क़दम बढ़ाते हुए ट्विटर अकाउंट्स की एक सूची भेजी। आदेश था कि इन्हें बंद कर दिया जाए। ट्विटर ने सरकार के कहने पर कई अकाउंट्स को ब्लॉक तो कर दिया था, मगर चार घंटे में उन्हें अनब्लॉक भी कर दिया था। इससे सरकार तिलमिला गई थी।
वीडियो में देखिए, ट्विटर का जवाब कू से?
इसके बाद उसने ट्विटर पर दबाव बढ़ाने के लिए 1178 अकाउंट्स को बंद करने के आदेश दे दिए। इस बार ट्विटर ने क़रीब 500 अकाउंट्स को बंद कर दिया, मगर बाक़ी को बंद करने से मना कर दिया। इनमें से बहुत सारे को उसने इस तरह से बंद किया कि वे भारत में तो नहीं दिखेंगे, मगर दुनिया के दूसरे हिस्सों में देखे जा सकते हैं। उसने पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और नेताओं के अकाउंट्स भी ये कहते हुए बंद करने से इंकार कर दिया कि फ़्रीडम ऑफ़ स्पीच के साथ समझौता नहीं कर सकता। सरकार के लिए यह बड़ा झटका था। उसने क़ानून और संविधान का राग अलापना शुरू कर दिया।
ट्विटर का कहना है कि वह तो पहले से ही भारतीय संविधान और क़ानूनों के दायरे में काम कर रहा है। भारतीय संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है और वह भी यही कोशिश कर रहा है कि उसके प्लेटफ़ॉर्म पर इसमें किसी तरह की रुकावट न डाली जाए।
उसके मुताबिक़ यूजर्स को स्वतंत्रतापूर्वक सुरक्षित ढंग से अपने विचारों को व्यक्त करने की आज़ादी देना उसकी घोषित नीति है।
ज़ाहिर है कि सरकार को इससे न सहमत होना था और न हुई। उसका मक़सद तो अपने राजनीतिक एजेंडे के हिसाब से ट्विटर को चलने के लिए बाध्य करना था। इसमें किसी को कोई शक़ शुबहा नहीं होना चाहिए कि वह क़ानून-संविधान की आड़ लेकर करना क्या चाहती है। उसका इरादा सरकार के विरोध को दबाना है, क्योंकि अभी तक उसने जितने भी आदेश दिए हैं वे विरोधियों से संबंधित हैं।
अगर उसे क़ानून एवं संविधान की इतनी चिंता होती तो वह बीजेपी नेताओं और संघ परिवार के सदस्यों द्वारा किए जाने वाले भड़काऊ ट्वीट करने वाले अकाउंट बंद करने के लिए कहती। वह बीजेपी के आईटी सेल और बीजेपी के समर्थकों द्वारा फर्ज़ी सूचनाओं को रोकने के लिए कहती। उनके ख़िलाफ़ आपत्तियाँ भी उठती रहती हैं और साइबर क़ानून की कसौटी पर देखा जाए तो ये सरासर उल्लंघन है मगर इसे सरकार नज़रंदाज़ कर देती है, कोई कार्रवाई करती ही नहीं है। न ही उसने आज तक किसी देशी-विदेशी मीडिया संस्थान से कहा है कि वे हेट स्पीच को रोकने के लिए कड़ी कार्रवाई करें। उसे पता है कि हेट स्पीच करने वाले ज़्यादातर उसके अपने ही लोग हैं।
दरअसल, सरकार तो अपने विरोधियों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीनना चाहती है, उन्हें हर उस प्लेटफ़ॉर्म से बाहर कर देना चाहती है, जहाँ वे सरकार की आलोचना कर सकें, उसकी नीतियों और नेतृत्व पर सवाल उठा सकें। वह ये काम दो आधारों पर करना चाहती है। एक तो राष्ट्रवाद का भ्रम खड़ा करके जिसमें तमाम ‘आंदोलनजीवी’ देश विरोधी और खालिस्तानी वगैरह हैं। दूसरे, वह क़ानून और संविधान की आड़ ले रही है।
लेकिन ट्विटर एक ग्लोबल प्लेटफ़ॉर्म है। वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सहिष्णुता, अहिंसा, तथ्यों-कथ्यों की सत्यता आदि सार्वभौमिक मूल्यों के आधार पर ही क़ारोबार कर सकती है। वह किसी शासक दल के एजेंडे को ध्यान में रखकर नीतियाँ बदलने लगी तो हर देश के शासक दल उससे यही माँग करेंगे। ऐसा करना उसके लिए क़तई संभव नहीं होगा, क्योंकि इससे उसकी विश्वसनीयता ख़त्म हो जाएगी और यूज़र उससे जुड़ने में कतराएंगे।
ट्विटर ने अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करके फ़ेसबुक के मुक़ाबले ज़्यादा विश्वसनीयता कमाई है। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म समझौता नहीं करते, सौदेबाज़ियाँ नहीं करते। वे करते हैं, जैसे कि फ़ेसबुक ने मोदी सरकार के साथ पिछले कई वर्षों से किया हुआ है। इसीलिए सरकार को उससे कोई शिकायत नहीं हो रही है।
ऐसा लगता है कि ट्विटर ने भी समझौते की दिशा में क़दम बढ़ा दिया है। शुरू में लग रहा था कि वह सरकार के दबाव में नहीं आएगा।
उसने सरकार के कई निर्देशों को मानने से इंकार भी कर दिया था। लेकिन ट्विटर ने अब सरकार से तालमेल रखने के लिए सीनियर अफ़सरों की नियुक्ति की घोषणा कर दी है, जो उसके नरम पड़ने का संकेत है।
अभी यह कहना मुश्किल है कि ट्विटर के ये अफ़सर सरकार के सामने कितना झुकेंगे, लेकिन यह स्पष्ट दिख रहा है कि पहले जैसी स्वतंत्रता यूजर्स को नहीं मिलेगी। यह कहना भी जल्दबाज़ी होगी कि वह भी केंचुआ मीडिया की जमात में शामिल हो गया है, मगर यह तय है कि आने वाले समय में वह पहले जैसा खुला मंच नहीं रह जाएगा।
फिर ट्विटर के ख़िलाफ़ सरकार के अभियान को अलग-थलग करके नहीं देखा जाना चाहिए। इसे उसकी मीडिया नीति के तौर पर देखा जाना चाहिए। अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए वह मीडिया का चरित्र ही बदलने में लगी हुई है। वह उसके खुलेपन और स्वतंत्रता को ख़त्म करने की मुहिम पर है और ऐसा आतंकित कर देने वाला माहौल रच रही है जिसमें पत्रकार कुछ बोलने-लिखने-दिखाने से ही घबराएँ। उनके दिमाग़ में यह भय भरा जा रहा है जिसमें उन्हें हर समय ये एहसास हो कि बिग बॉस उन्हें देख रहा है।