एक साल पहले जब कोरोना की वैश्विक महामारी ने भारत को अपनी चपेट में लेना शुरू किया था तब पूरे देश में नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के ख़िलाफ़ आंदोलन चल रहा था। केंद्र और बीजेपी शासित राज्यों की सरकारों ने कोरोना महामारी की आड़ में उस आंदोलन को दबा दिया था। देश में इस समय एक बार फिर कॉरपोरेट नियंत्रित और पोषित मीडिया के ज़रिए कोरोना संक्रमण के बढ़ने का माहौल बनाया जा रहा है।
चूँकि केंद्र सरकार चौतरफ़ा चुनौतियों से घिरी हुई है। देश की अर्थव्यवस्था की हालत चिंताजनक बनी हुई है। महंगाई और बेरोज़गारी की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है। जन-प्रतिरोध के स्वर अब तेज़ होने लगे हैं। तीन महीने से जारी किसान आंदोलन लगातार व्यापक होता जा रहा है। सरकार की ओर से आंदोलन को कमज़ोर करने और दबाने के तमाम प्रयास नाकाम हो चुके हैं। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि सरकार कोरोना की इस 'नई लहर’ का इस्तेमाल किसान आंदोलन और प्रतिरोध की अन्य आवाज़ों को दबाने के लिए करे।
दरअसल, कोरोना की जिस वैश्विक महामारी को भारत सरकार ने शुरुआती दौर में जरा भी गंभीरता से नहीं लिया था और जिसे नज़रअंदाज़ कर वह नमस्ते ट्रंप जैसे खर्चीली तमाशेबाज़ी और विपक्षी राज्य सरकारों को गिराने के अपने मनपंसद खेल में जुटी हुई थी, वह महामारी बाद में उसके लिए विन-विन गेम बन गया। उसके दोनों हाथों में लड्डू हैं। अगर संक्रमण के मामलों में कमी आने लगे तो अपनी पीठ ठोंको कि सरकार बहुत मुस्तैद होकर काम कर रही है। कॉरपोरेट मीडिया भी झूमते सरकार की प्रशस्ति में कीर्तन करने लगता है- 'प्रधानमंत्री मोदी ने देश को बचा लिया’, 'मोदी की दूरदर्शिता का लोहा दुनिया ने भी माना’... आदि आदि।
इसके विपरीत अगर संक्रमण जरा सा भी तेज़ी से बढ़ता दिखे तो उसका सारा दोष मीडिया के माध्यम से जनता के मत्थे मढ़ दो कि लोग मास्क नहीं पहन रहे, सैनिटाइजर का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं, शारीरिक दूरी का पालन नहीं कर रहे हैं, पारिवारिक और सामाजिक आयोजनों में भी कोविड प्रोटोकॉल का पालन नहीं हो रहा है।
यही नहीं, संक्रमण के मामलों में बढ़ोतरी की प्रायोजित ख़बरों के साथ ही फिर से लॉकडाउन और कर्फ्यू का भय फैलाया जाने लगता है। अख़बारों और टीवी चैनलों पर हेडलाइन बनने लगती है- 'कोरोना से निबटने के लिए गृह मंत्री अमित शाह ने कमान संभाली।’ स्वास्थ्य मंत्री और अफ़सरों के साथ उनकी बैठकों की तसवीरें दिखाई जाने लगती हैं। फिर कुछ ही दिनों बाद प्रायोजित ख़बरें आने लगती हैं कि शाह के कमान संभालने से स्थिति नियंत्रण में है।
देश में इस समय कोरोना ने फिर से मीडिया की सुर्खियाँ बटोरनी शुरू कर दी है। अख़बारों के पहले पन्नों पर हेडलाइन बन रही है। ख़बरों के नाम पर सरकारी प्रोपेगेंडा फैलाने वाले टेलीविजन चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज़ दिखाई जा रही है।
बताया जा रहा है कि भारत में कोरोना वायरस का संक्रमण एक बार फिर तेज़ी से बढ़ने लगा है। कोई इसे कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर बता रहा है तो कोई तीसरी लहर। पहली लहर कब ख़त्म हुई, यह शायद किसी को नहीं मालूम।
इसी कोरोना महामारी के शुरुआती दौर में सरकार और सत्तारुढ़ पार्टी ने कॉरपोरेट मीडिया और सोशल मीडिया के ज़रिए सांप्रदायिक नफ़रत फैलाने का अपना एजेंडा भी ख़ूब चलाया। तब्लीग़ी जमात के बहाने एक पूरे मुसलिम समुदाय को कोरोना फैलाने का ज़िम्मेदार ठहराया। सरकारी और ग़ैर-सरकारी स्तर पर सुनियोजित तरीक़े से चलाए गए इस नफ़रत अभियान की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तीखी आलोचना भी हुई। बाद में विभिन्न अदालतों ने कोरोना फैलाने के आरोप में गिरफ्तार किए गए तब्लीग़ी जमात के तमाम लोगों को बरी करते हुए सरकार और मीडिया की भूमिका की कड़ी आलोचना भी की, लेकिन सरकार और मीडिया की सेहत पर कोई असर नहीं हुआ।
कोरोना से बचाव के लिए बगैर किसी तैयारी के ही देशव्यापी लॉकडाउन लागू किया गया और उस लॉकडाउन के दौरान समूचा देश पुलिस स्टेट में तब्दील कर दिया गया। उसी दौरान देश की स्वास्थ्य सेवाओं की बीमार हक़ीक़त भी पूरी तरह उजागर हुई। निजी अस्पतालों को लूट की खुली छूट दे दी गई। कोरोना संक्रमण के चलते देश के औद्योगिक शहरों से प्रति पलायन करते लाखों प्रवासी मज़दूरों के साथ सरकार ने बेहद निर्मम व्यवहार किया। इन सब बातों से लोगों का ध्यान हटाने के लिए प्रधानमंत्री के आह्वान पर हुए ताली-थाली बजाने, दीया-मोमबत्ती जलाने, अस्पतालों पर फूल बरसाने और सेना से बैंड बजवाने जैसे उत्सवी आयोजनों को भी कोरोना नियंत्रण का श्रेय दिया गया।
कोरोना की आड़ लेकर ही सरकार संसद से भी मुँह चुराती रही और कोरोना के शोर में उसने कई जन-विरोधी अध्यादेश जारी किए, जिन्हें बाद में खानापूर्ति के लिए आयोजित संसद के संक्षिप्त सत्रों में क़ानून के तौर पर पारित कराया।
उन्हें पारित कराने में भी मान्य संसदीय प्रक्रिया और स्थापित परंपराओं को नज़रअंदाज़ किया गया। कोरोना के नाम पर ही पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस और अन्य आवश्यक वस्तुओं के दामों में अनाप-शनाप बढ़ोतरी की गई और अभी भी की जा रही है। लॉकडाउन के दौरान बंद की गई रेल सेवाएँ एक साल बाद भी पूरी तरह शुरू नहीं की जा रही है। कुछेक ट्रेनें चलाई भी गई हैं तो उनके यात्री किराए में 30 से 40 फ़ीसदी की बढ़ोतरी कर दी गई है।
बहरहाल, एक बार फिर कोरोना को लेकर माहौल बनाया जा रहा है। यह स्थिति तब है, जब देश में कोरोना के टीकाकरण की प्रक्रिया शुरू हुए डेढ़ महीने से ज़्यादा का समय हो चुका है। टीकाकरण का अभियान भी सरकार अपनी पीठ थपथपाते हुए बड़ी धूमधाम से किया था। रोजाना दस लाख लोगों को टीका लगाने का लक्ष्य घोषित करते हुए कहा गया था कि यह दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान है और इस मामले में भी भारत पूरी दुनिया का नेतृत्व कर रहा है।
लेकिन हक़ीक़त यह है कि भारत में पिछले डेढ़ महीने से रोजाना औसतन महज तीन लाख लोगों को टीका लगाया जा रहा है। जबकि भारत में न तो टीके की कोई कमी है और न ही आपूर्ति शृंखला में कोई बाधा है। भारत की दोनों निजी कंपनियों में टीके के आठ करोड़ डोज हर महीने बनाने की क्षमता है।
दरअसल भारत में टीकाकरण अभियान की गति धीमी होने की सबसे बड़ी वजह यह है कि सरकार ख़ुद श्रेय लेने के चक्कर में पूरे टीकाकरण अभियान को डेढ़ महीने तक अपने नियंत्रण में रखे रही। बाद में निजी अस्पतालों को टीकाकरण की अनुमति दी भी गई तो इसलिए कि सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया ने सरकार से मंजूरी मिलने के पहले ही जो 20 करोड़ टीके बना लिए थे, उनमें से 25 फ़ीसदी यानी 5 करोड़ टीकों की एक्सपायरी डेट अप्रैल महीने में ख़त्म होने वाली है।
सीरम इंस्टीट्यूट 2 करोड़ टीकों (कोविशील्ड) की आपूर्ति पहले ही सरकार को कर चुकी है, जिन्हें एक्सपायरी डेट से पहले ही इस्तेमाल करना ज़रूरी है, जबकि अभी तक डेढ़ महीने में महज 1.35 करोड़ टीके ही उपयोग में आ पाए हैं।
सरकार और बीजेपी की ओर से टीकाकरण जैसे गंभीर अभियान का बिना किसी संकोच के चुनावी राजनीति में भी इस्तेमाल किया गया और अभी भी किया जा रहा है। जब कोरोना का टीका अपने परीक्षण के दौर में ही था, तब जिन-जिन राज्यों में चुनाव हुए हैं वहाँ बाकायदा एलान किया गया कि बीजेपी अगर सत्ता में आई तो लोगों को मुफ्त में कोरोना का टीका लगाया जाएगा। अभी जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, वहाँ भी लोगों से ऐसा ही कहा जा रहा है।
दरअसल, कोरोना की संक्रामकता के बड़े-बड़े दावों की पोल पिछले एक साल के दौरान एक बार नहीं, कई बार खुल चुकी है। पिछले कुछ महीनों के दौरान बिहार सहित कई राज्यों में चुनाव और उपचुनाव हुए हैं। इन चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह आदि कई नेताओं ने बड़ी रैलियाँ और रोड शो किए हैं, जिनमें लाखों लोग शामिल हुए हैं। लोगों ने लंबी-लंबी कतारों में लग कर मतदान किया है। हाल ही में पंजाब और गुजरात में नगरीय निकायों के चुनाव हुए हैं, जिनमें बड़ी संख्या में लोगों ने मतदान किया है। यही नहीं, पिछले तीन महीने से दिल्ली की सीमाओं पर लाखों किसान धरने पर बैठे हैं लेकिन कहीं से भी कोरोना संक्रमण फैलने या किसी के कोरोना से मरने की ख़बर नहीं आई है।
वीडियो में देखिए, किसानों की महापंचायतें
इस समय पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में किसानों की महापंचायतों का आयोजन हो रहा है। पश्चिम बंगाल और असम में बड़ी-बड़ी चुनावी रैलियाँ हो रही हो रही हैं। हाल ही में ख़त्म हुए माघ महीने में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद, अयोध्या, बनारस, मथुरा आदि शहरों में माघ मेले सम्पन्न हुए हैं, जिनमें लाखों श्रद्धालुओं ने स्नान और कल्पवास किया है, लेकिन कहीं से भी कोरोना संक्रमण फैलने की ख़बरें नहीं आई हैं।
हरिद्वार में आगामी अप्रैल महीने में कुंभ मेला आयोजित होना है, जिसमें शामिल होने के लिए उत्तराखंड सरकार द्वारा विज्ञापनों के ज़रिए लोगों को निमंत्रण दिया जा रहा है और उस एक महीने के मेले में लाखों लोग जुटेंगे भी। यानी आम लोग भी यह जान चुके हैं कि कोरोना बीमारी तो है, उससे भी कहीं ज़्यादा यह राजनीतिक महामारी है। बीमारी से तो कुछ सावधानियाँ बरत कर बचा जा सकता है, लेकिन राजनीतिक महामारी का मुक़ाबला तो व्यापक जन आंदोलन के ज़रिए ही किया जा सकता है, जैसे कि इस समय देश के किसान कर रहे हैं।