सूरजभान कर्दम आगरा के जूता उद्योग से जुड़े हैं। 80 के दशक की शुरुआत में उन्होंने अपने जूते के कारखाने की शुरुआत की थी और उसी दौरान वह दलित नेता कांशीराम की दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस4) के संपर्क में आए। तभी से वह 'मान्यवर' के प्रबल समर्थक हो गए।
बीएसपी के गठन के समय से ही वह स्वयं को इसका ‘आंख बंद भोंपू’ मानते आए हैं लेकिन बीते बुधवार और गुरुवार को लखनऊ में घटे घटनाक्रम (राज्यसभा चुनाव में बीजेपी-बीएसपी की जुगलबंदी) से वह चिंतित और बेचैन हो उठे हैं। उनका मन यह नहीं जांच पा रहा है कि जिस मेहनत, लगन और मूल्यों की मोम से 'मान्यवर' ने दलित चेतना की मशाल जलाई थी, उसका भविष्य कहां जा रहा है। आगरा में सूरजभान जैसों की संख्या कम नहीं है।
युवा उद्यमी कमलदीप आगामी विधान परिषद चुनावों में मायावती के बीजेपी को सपोर्ट करने की घोषणा से आहत हैं। उनका कहना है कि जब तक दलित अपना नया नेतृत्व नहीं ढूंढ लेता, मायावती खुले हाथों से ऐसे तुग़लकी फ़ैसले लेती रहेंगी। “क्या दलित अपने लिए नया नेतृत्व तलाश रहा है” पूछने पर कमलदीप उल्टा पूछते हैं- "वह कब तक हाथ पर हाथ धरे बैठा रहेगा"
बीएसपी-एसपी का चुनावी गठबंधन
पश्चिमी उप्र की दलित राजनीति के प्रमुख केंद्र होने के चलते आगरा मायावती के समर्थकों और उनकी राजनीतिक गतिविधियों का 'एपिसेंटर' रहा है। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले (जब बीएसपी-एसपी का चुनावी गठबंधन हुआ था) माना जा रहा था कि आगरा का बीएसपी समर्थक दलित इसे स्वागत के भाव से नहीं लेगा क्योंकि पिछले 3-4 दशकों में पश्चिमी यूपी में हुए दलित दमन और उत्पीड़न में जिन पिछड़ों की प्रबल भूमिका मानी जाती रही है, उनमें यादवों का स्थान सर्वोपरि रहा है। हालांकि हुआ इसका ठीक उल्टा।
न सिर्फ़ आगरा के दलितों ने इस राजनीतिक फ़ैसले का जम कर स्वागत किया बल्कि निचले दोआब सहित समूचे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इसे हाथों-हाथ लिया गया था।
लोकसभा चुनाव के बाद एक भी एसपी प्रत्याशी ने दलित वोट न मिलने की शिकायत नहीं की थी। इसी तरह किसी बीएसपी प्रत्याशी ने भी एसपी वोटर के प्रति कोई दुर्भावना प्रकट नहीं की थी।
यही वजह है कि चुनाव निपटते ही जब मायावती ने एसपी से अपना 'पिंड' यह कहते हुए छुड़ाया कि एसपी वोटर ने उनके प्रत्याशी को धोखा दिया है तो इससे न सिर्फ़ इनका जीता/हारा प्रत्याशी अचंभित हुआ था बल्कि बीएसपी के दलित वोटर को भी गहरा धक्का लगा था। आगरा में बड़े पैमाने पर मायावती समर्थकों ने 'बहन जी' से अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार करने की अपील की थी।
सदमे में हैं मायावती समर्थक
राज्यसभा चुनाव में हुए इस वाकये के बाद आगरा का यही मायावती समर्थक गहरे सदमे में है। माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में आगरा में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रमुख दलित नेताओं का एक 'समागम' आहूत किया जाएगा जिसमें प्रदेश में बीजेपी शासनकाल के दौरान होने वाली दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर विस्तार से चर्चा होगी।
हाथरस की दलित लड़की के साथ बलात्कार और क्रूर हिंसा की वारदात में हुई उसकी हत्या की बर्बर घटना से पूरा देश वाक़िफ़ है। देश इस बात को भली-भांति जान चुका है कि कैसे हत्या के बाद पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा घरवालों की उपस्थिति के बगैर आधी रात में पेट्रोल और डीज़ल छिड़क कर हड़बड़ी में लड़की के शव का अंतिम संस्कार किया गया।
हाथरस प्रकरण में पुलिस और शासन द्वारा आरोपियों का निरंतर बचाव करने की अनथक कोशिश, मीडिया को भ्रमित करने के प्रयास, ज़िलाधिकारी और पुलिस अधिकारियों द्वारा पीड़ित परिवार को ‘कोई क़ानूनी एक्शन न लेने’ के लिए धमकाने की क्रूर वारदातों से भी लोग अछूते नहीं रहे हैं।
इतना ही नहीं, प्रशासन की रज़ामंदी से बीजेपी के वर्तमान और पूर्व विधायकों द्वारा अपराधियों के पक्ष में राजपूतों की पंचायतें आहूत करके 'व्यापक सवर्ण प्रतिरोध' के रूप में उसे मीडिया में प्रचारित-प्रसारित करना, सामाजिक वातावरण को सवर्ण जातिवादी उन्माद में तब्दील करना और प्रशासन द्वारा इस जातिगत बवाल के विरूद्ध कोई करवाई करने के स्थान पर उल्टा अज्ञात लोगों के विरुद्ध जातिगत उन्माद और राजद्रोह जैसे गंभीर आरोपों में हाथरस सहित 7 ज़िलों के थानों में 19 गंभीर अपराधों की एफआईआर दर्ज़ करने से क्या साबित होता है। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट में बिन बुलाए एफ़िडेविट लेकर पहुंच जाना आदि-आदि कार्रवाइयां दलितों के विरुद्ध यूपी सरकार के अमानवीय, अलोकतांत्रिक और निरंकुश आचरण को दर्शाने के लिये काफी हैं।
दलित विरोधी घटनाएं
हाथरस का दुराचार तो सिर्फ़ बानगी है। इत्तेफ़ाक़ से मीडिया के जरिये वह इतनी रोशनी में आ गया कि उस पर हाई कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया और सरकार की सारी आपराधिक हेकड़ी धरी की धरी रह गई अन्यथा 'प्रदेश' में आये दिन दलित विरोधी कितनी वारदातें होती रहती हैं और वे मीडिया और अदालतों की नोटिस में आ ही नहीं पाती।
बेशक हाथरस की मृत लड़की वाल्मीकि समुदाय की थी जिसे मायावती अपना वोट बैंक नहीं मानतीं लेकिन 2017 में स्थापित बीजेपी के 3 साल के शासनकाल में दलितों के दमन और उत्पीड़न की लगातार होने वाली घटनाओं में पीड़ितों की बड़ी संख्या उन समुदाय के लोगों की है जिन्हें वह 'अपना' समझती हैं। इन सारी घटनाओं से 'प्रदेश' का दलित बुरी तरह आहत है।
यद्यपि देश में दलित उत्पीड़न के मामलों में 2019 में उत्तर प्रदेश 5 वें स्थान पर था लेकिन इन 4 राज्यों में बीते चार वर्षों में होने वाले दमन में वृद्धि दर की दृष्टि से यह सर्वोपरि (47%) था जबकि अन्य- गुजरात 26%, हरियाणा 15%, मप्र 14% और महाराष्ट्र 11% पर थे। (स्रोत : 'राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो)
इन पांचों राज्यों का बीजेपी शासित होना क्या महज़ इत्तेफ़ाक़ है यह सवाल दलित सामाजिक कार्यकर्ता आपस में पूछते हैं। अक्टूबर की शुरुआत में ही अपने ट्विटर हैंडल पर मायावती ने दलितों पर दमन के आरोप में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ‘तत्काल बर्ख़ास्त’ किए जाने की की मांग की थी।
बीजेपी को दलित विरोधी बताने वाली बीएसपी सुप्रीमो 3 हफ़्ते में ही अचानक बीजेपी के प्रति सहृदयी कैसे हो गईं, यह बात न तो उनके नेता और कार्यकर्ता समझ पा रहे हैं और न समर्थक।
यही वजह है कि उनके भीतर गहरा असंतोष जन्म ले रहा है। यह स्थिति बरकार रही तो बीएसपी के लिए आने वाले दिन 'अच्छे दिन' नहीं रहने वाले।
मायावती से नाराज़गी बढ़ेगी!
बीएसपी सुप्रीमो मायावती का अपने सात विधायकों के विरुद्ध एक्शन लेने को अभिशप्त होना यूपी में हुए हालिया घटनाक्रम के जिन दो पहलुओं को पूरी तरह साफ़ करता है इनमें पहला, 'प्रदेश' के पिछड़े, अल्पसंख्यक और दलित विधायकों में बीजेपी शासन के ख़िलाफ़ भरे उस ग़ुस्से को दर्शाता है जो उन्हें पार्टी लाइन की लक्ष्मण रेखा के भीतर रहने से नहीं रोक पा रहा है।
दूसरा, बहन मायावती अब इस एक्शन से अपने उन अल्पसंख्यक 'भाइयों' से तो दूर छिटक ही गई हैं जिन्हें पल्लू में बांधकर वह राजनीति की बिसात पर लंबे समय से अपनी गोटियां फेंक रही थीं। यह उनके लिए गहरी चिंता की बात है। यही नहीं, अपने उस दलित वोट बैंक को भी उन्होंने बिजली का झटका दिया है जो हर विधानसभा चुनाव में उनके मुख्यमंत्री बनने के सपने संजोता आया है। यह भी उनके लिए कम चिंता की बात नहीं।