ममता बनर्जी की ताज़ा राजनीतिक तोड़फोड़ ने अचानक से देश भर में उत्सुकता पैदा कर दी है। आरोप यह है कि ऊपरी तौर पर तो ममता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लड़ती हुई नज़र आ रही हैं पर वे विध्वंस कांग्रेस का करने में जुटी हैं जहां से नाराज़ करके ही उन्होंने अपनी नई पार्टी (तृणमूल कांग्रेस) के ज़रिए पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादियों से लड़ाई शुरू की थी। कांग्रेस हाल तक सिर्फ़ बीजेपी से ही डरी-सहमी रहती थी पर अब उसके लिए नया ख़ौफ़ ममता की ओर से भी शुरू हो गया है। उत्तर भारत के लोग नंदीग्राम के बाद ममता का कांग्रेस के ख़िलाफ़ चण्डी पाठ प्रारम्भ करने का सही कारण तलाशना चाह रहे हैं।
क्या ममता बनर्जी की आकांक्षाएँ प्रधानमंत्री के पद पर स्वयं को विराजित देखने की उत्पन्न हो गई हैं? इस विषय पर बहस हाल-फ़िलहाल के लिए टाली जा सकती है कि प्रधानमंत्री पद पर उनकी उम्मीदवारी पश्चिम बंगाल के बाहर शेष देश में उस प्रकार से स्वीकार्य हो सकेगी कि नहीं जैसी कि मोदी की हो गई थी। साथ ही यह भी कि क्या देश ऐसे किसी अहिंदी-भाषी मुख्यमंत्री को स्वीकार कर पाएगा जिसकी लोकतांत्रिक मूल्यों, अभिव्यक्ति की आज़ादी और विपक्ष के अस्तित्व को लेकर छवि मोदी से ज़्यादा भिन्न नहीं है।
जहाँ तक किसी बांग्ला भाषी के प्रधानमंत्री के पद पर क़ाबिज़ हो पाने की सम्भावनाओं का सम्बंध है, अपने समय के लोकप्रिय मुख्यमंत्री ज्योति बसु की महत्वाकांक्षाओं को लेकर भी ऐसी ही चर्चाएँ चल चुकी हैं। तब आरोप लगाए गए थे कि उनकी ही पार्टी के ताक़तवर नेताओं ने उनके इरादों में सेंध लगा दी थी। इंदिरा गांधी के 1984 में निधन के तत्काल बाद इस उच्च पद के लिए प्रणब मुखर्जी की दावेदारी मज़बूत मानी जा रही थी पर बाद में जो कुछ हुआ वह इतिहास और मुखर्जी की किताब में दर्ज है। उसके बाद से प्रणब मुखर्जी और गांधी परिवार के बीच सम्बंध कभी सामान्य नहीं हो पाए। अतः अनुमान ही लगाया जा सकता है कि भविष्य में कभी ममता की ऐसी किसी दावेदारी पर ‘गांधी परिवार’ का रुख़ क्या होगा! ऐसा इसलिए कि गांधी परिवार में ही इस पद को लेकर अब दो सशक्त दावेदारों के चेहरे प्रकाश में हैं।
हाल ही में चार-दिनी यात्रा पर दिल्ली यात्रा पर पहुँची ममता के एजेंडे में कीर्ति आज़ाद को कांग्रेस से तोड़कर तृणमूल में शामिल करने के अलावा सोनिया गांधी से मुलाक़ात करने का कार्यक्रम भी शामिल था पर यह बहु-अपेक्षित भेंट अंततः नहीं हो पाई।
सोनिया गांधी अपनी व्यस्त दिनचर्या में ममता के लिए कोई ख़ाली समय नहीं तलाश कर पाई होंगी। ममता ने बाद में अपनी सफ़ाई में यही कहा कि उन्होंने श्रीमती गाँधी से भेंट के लिए समय माँगा ही नहीं था।
बीजेपी के साथ राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष में उतरने से पहले ममता के लिए यह ज़रूरी हो गया लगता है कि विपक्ष के नेतृत्व के दावेदारों की सूची से राहुल, प्रियंका, केजरीवाल आदि के नामों पर ताले पड़वाए जाएँ।
बिहार के ‘सुशासन बाबू’ नीतीश कुमार किसी समय विपक्ष के नेता के तौर पर प्रकट हुए थे पर बीजेपी के साथ एकाकार करके उन्होंने अपने को दिल्ली से दूर कर लिया है। पवन वर्मा की तृणमूल में भर्ती के बाद तो उनका ममता के साथ कोई संवाद भी सम्भव नहीं।
इस बात को मानने के पर्याप्त कारण गिनाए जा सकते हैं कि प्रधानमंत्री के निशाने पर इस समय कांग्रेस का ‘परिवारवाद’ अवश्य है लेकिन आगे चलकर तृणमूल कांग्रेस ही आने वाली है। पश्चिम बंगाल की भाजपा और वहाँ के राज्यपाल के लिए थोड़े आश्चर्य की ख़बर रही होगी कि ममता से मुलाक़ात के दौरान मोदी ने अगले साल अप्रैल में कोलकाता में होने वाली ‘बिस्व बांग्ला ग्लोबल बिज़नेस समिट’ का उद्घाटन करने का आमंत्रण स्वीकार कर लिया। उल्लेखनीय यह है कि इस समिट के होने तक उत्तर प्रदेश सहित पाँचों राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम प्राप्त हो जाएँगे। प्रधानमंत्री अगर उत्तर प्रदेश के पचहत्तर ज़िलों में पचास रैलियाँ करने वाले हैं तो इस बात के महत्व को समझा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल के चुनावों और फिर वहाँ के उप-चुनावों में भी करारी हार के बाद पहली बार कोलकाता की यात्रा पर जाने वाले मोदी ने ममता के आमंत्रण को क्या कुछ सोचकर स्वीकार किया होगा!
पहले स्वयं अपनी ओर से, फिर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के माध्यम से गांधी परिवार के साथ बातचीत के बाद ममता शायद इस निष्कर्ष पर पहुँच चुकी हैं कि साल 2024 में भाजपा के स्थान पर सत्ता प्राप्ति के लिए कांग्रेस विपक्षी एकता की धुरी नहीं बन सकती। दूसरे यह कि हिंदी-भाषी क्षेत्रों में तृणमूल की ज़मीन तैयार करने के लिए दूसरे दलों की ज़मीन पर ही दलबदल का हल जोतना पड़ेगा। इस सिलसिले में ममता को ज़्यादा सम्भावनाएँ कांग्रेस के असंतुष्टों में ही नज़र आती हैं।
भाजपा द्वारा सफलतापूर्वक सेंध लगा लिए जाने के बाद अब ममता को भी लगता है कि तृणमूल के लिए भी नई भर्ती कांग्रेस से ही की जा सकती है।
ममता यह सावधानी अवश्य रख रही हैं कि जिन राज्यों में कांग्रेस सत्ता में है या आने की प्रबल सम्भावनाएँ हैं वहाँ वे फ़िलहाल तोड़फोड़ नहीं कर रही हैं। ममता बहुत ही नियोजित तरीक़े से उत्तर-पूर्व के राज्यों में भाजपा (और कांग्रेस को भी) चुनौती दे रही हैं। त्रिपुरा के बाद मेघालय का राजनीति घटनाक्रम इसका उदाहरण है।
ममता शायद अंतिम रूप से उम्मीदें छोड़ चुकी हैं कि गांधी परिवार हक़ीक़त में भी भाजपा से सीधी टक्कर लेने की इच्छा-शक्ति रखता है। तृणमूल ने संसद में कांग्रेस के साथ किसी भी तरह का समन्वय करने से भी इनकार कर दिया है। पर बड़ा सवाल यह है कि जब ममता के ही रणनीतिकार प्रशांत किशोर का ऐसा मानना है कि देश भर में दो सौ से ज़्यादा लोकसभा सीटें कांग्रेस के प्रभाव क्षेत्र की हैं तो ऐसी स्थिति में वे एक बड़े राष्ट्रीय दल को अलग रखकर तृणमूल को विपक्षी एकता की धुरी बनाने में कैसे कामयाब हो पाएँगी? दूसरे यह कि ममता जो कुछ कर रही हैं उससे अगर गांधी परिवार नाराज़ होता है और परिणामस्वरूप कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के बीच एकता में दरार पड़ती है तो भाजपा के लिए खुश होने के पर्याप्त कारण बनते हैं।
तो क्या ममता कांग्रेस को तोड़ने में मोदी की मदद कर रही हैं?
जिस अखिल भारतीयता को प्राप्त करने में कांग्रेस को 136 साल लग गए उसे कमजोर करके कुछ ही सालों में तृणमूल को राष्ट्रीय सहमति बनाने की कोशिशों में ममता शायद मोदी को ही और मज़बूती प्रदान करने का जुआ खेल रही हैं।