महात्मा गांधी का देवत्व और आरएसएस की महत्वाकांक्षा 

07:59 am Sep 21, 2020 | रविकान्त - सत्य हिन्दी

भारतीय समाज बहुत धार्मिक और कुछ हद तक अंधविश्वासी रहा है। यही कारण है कि हिन्दू जनमानस मंदिरों और मठों से संचालित और नियंत्रित होता रहा है। इसके स्याह और उजले दोनों पक्ष रहे हैं। आज़ादी के आंदोलन में मोहनदास करमचंद गांधी पर अपढ़ और भोले-भाले भारतीय अगाध विश्वास करते थे। इसका एक कारण यह था कि गांधी के अनुयायियों ने उन्हें अलौकिक और देवदूत के रूप में प्रचारित किया था। गांधी जी को महात्मा और संत जैसी उपाधियाँ दी गयीं। इसका व्यापक प्रभाव भी हुआ।  

इसमें कोई दो राय नहीं है कि गांधी का सादा जीवन निपट साधु और संन्यासी जैसा ही था। गांधीजी ने लोगों के उस विश्वास को बनाए रखा। शायद वह जानते थे कि लोगों को धार्मिक पाठ से ज़्यादा सत्य, अहिंसा और लोकतांत्रिक मूल्यों का पाठ पढ़ाना ज़रूरी है। इसलिए गांधीजी सर्वधर्म समभाव पैदा करके मानवीय मूल्यों को सृजित करना चाहते थे।

साबरमती के संत

हम जानते हैं कि आज़ादी के बाद भी गांधी जी पर ऐसे गीत भी रचे गए, जिनमें उनके देवत्व को रेखांकित किया गया। मसलन, 'दे दी हमें आजादी, बिना खडग बिना ढाल,  साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल'। गांधीजी निश्चित तौर पर असाधारण हैं, लेकिन उनमें देवत्व या अलौकिकता के अंश का दावा कतई नहीं किया जा सकता। यह तार्किक भी नहीं है।

एक बड़ा सवाल यह है कि गांधी पर आरोपित देवत्व या अलौकिकता का उन्होंने कभी खंडन क्यों नहीं किया। इस वजह से गांधी के विरोधी उन्हें ढोंगी तक क़रार देते हैं। विरोधी यह भी कहते हैं कि गांधी में अहमन्यता बहुत थी। वह मसीहा बनना चाहते थे।

देवता की छवि

यह सवाल बहुत ज़रूरी है कि गांधी जी ने सामान्य लोगों के मन में बनी उनकी देवता की छवि के भ्रम को दूर क्यों नहीं किया। निश्चित तौर पर उन्होंने अपने भीतर किसी देवता के अंश का दावा कभी नहीं किया। लेकिन लोगों के मन में उपजे इस भाव को उन्होंने कभी खारिज भी नहीं किया। दरअसल, गांधीजी भारतवासियों के भावना को बखूबी समझते थे।

पहली बात तो यह है कि स्वराज की खातिर लोगों को जोड़ने के लिए यह भाव बहुत कारगर सिद्ध हो सकता था। वे इस बात को समझ रहे थे कि सामान्य जन किसी साधु या आध्यात्मिक व्यक्ति पर अगाध आस्था के कारण जुड़ता ही नहीं बल्कि भरोसा भी करता है। 

राजनीति में धर्म गुरु

दूसरा कारण ज़्यादा महत्वपूर्ण है। स्वाधीनता आंदोलन की राजनीति में धर्म गुरुओं की भूमिका बढ़ रही थी। दरअसल, आज़ादी के आंदोलन के पहले से और बाद में समानांतर नवजागरण और सामाजिक-धार्मिक सुधार के विभिन्न आंदोलन चल रहे थे। धीरे-धीरे ये आंदोलन प्रतिक्रियावादी होते जा रहे थे। इन आंदोलनों ने जन-सामान्य को बहुत प्रभावित किया। इनके साथ जन-सामान्य के जुड़ने का मतलब था, लोगों का धार्मिक रूप से कट्टर होना। हिन्दू और मुसलिम दोनों ही संप्रदायों में इस तरह के आंदोलन चल रहे थे। 

लोगों के सांप्रदायिक होने का ख़तरा था। इसलिए गांधी जी ने एक आध्यात्मिकता को अंगीकार किया। एक ऐसी आध्यात्मिकता जिसके सूत्र हम विवेकानंद के नव वेदान्त में खोज सकते हैं। गांधी जी एक साथ हिन्दू और इसलाम धर्म की आध्यात्मिकता का नेतृत्व करने का प्रयास करते हैं। एक तरफ गांधी जी ख़िलाफ़त आंदोलन का नेतृत्व करते हैं और दूसरी तरफ 1921 में खुद को सनातनी घोषित करते हैं। 

यह ख़तरा बराबर बना हुआ था कि कोई धार्मिक नेता लोगों की आस्थाओं पर काबिज होकर स्वाधीनता आंदोलन को सांप्रदायिक बनाकर आज़ादी के स्वप्न को प्राचीन दकियानूसी खयालों और व्यवस्था की तरफ न धकेल दे।

जिन्ना-सावरकर

हालांकि यह काम बाद में आधुनिक व्यवस्था में पले-बढ़े मुहम्मद अली जिन्ना और सावरकर-हेडगेवार ने कर दिया। लेकिन साधुओं और बाबाओं  की राजनीतिक आकांक्षा को संत स्वभाव वाले गांधी ने सफल नहीं होने दिया। तब ये साधु हिन्दू महासभा के बैनर पर राजनीति करने की जुगत में लगे हुए थे।

इसकी तरफ इशारा करते हुए आज़ादी के दूसरे महानायक सुभाष चंद्र बोस ने 12 मई 1940 को बंगाल के झाड़ग्राम में एक भाषण दिया जो 14 मई को आनंद बाजार पत्रिका में छपा। उन्होंने कहा कि 'हिन्दू महासभा ने त्रिशूलधारी संन्यासी और संन्यासिनों को वोट माँगने के लिए जुटा दिया है। त्रिशूल और भगवा लबादा देखते ही हिन्दू सम्मान से सिर झुका देते हैं। धर्म का फ़ायदा उठाकर इसे अपवित्र करते हुए हिन्दू महासभा ने राजनीति में प्रवेश किया है। सभी हिन्दुओं का कर्तव्य है कि इसकी निंदा करें। ऐसे गद्दारों को राष्ट्रीय जीवन से निकाल फेंकें। उनकी बातों पर कान न दें।'

मठाधीशों की महत्वाकांक्षा

आज़ादी के आंदोलन में हिन्दू मुसलिम विभाजन की राजनीति में तमाम मठाधीश भी सक्रिय थे। गांधीजी और कांग्रेस के बरक्स इन मठाधीशों की महत्वाकांक्षाओं को भुनाकर हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अपने तईं इनका इस्तेमाल किया। मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, बी. एस. मुंजे और वी. डी. सावरकर के साथ-साथ जगतगुरू शंकराचार्य भारती तीर्थपुरी, स्वामी श्रद्धानंद और जगतगुरू शंकराचार्य कुर्तकोटी आदि पीठाधीश और धर्माचार्य हिन्दू महासभा के अध्यक्ष रहे। 

गोरखनाथ पीठ के महन्त दिग्विजयनाथ भी हिन्दू महासभा से ही जुड़े थे। गांधीजी की हत्या के आरोप में दिग्विजयनाथ नौ महीने जेल में रहे। दरअसल, गांधी जी की हत्या में कथित तौर पर दिग्विजयनाथ की पिस्तौल का इस्तेमाल हुआ था।

गांधीजी की हत्या सिर्फ एक राजनेता और राष्ट्रपिता की ही हत्या नहीं थी, एक ऐसे सन्यासी और संत की भी हत्या थी, जिसके व्यक्तित्व से बड़े-बड़े शंकराचार्य भय खाते थे।

हिन्दुत्व की राजनीति खारिज

जिस साल गांधीजी हत्या हुई, उसी वर्ष 1948 में एक अन्य हिन्दूवादी राजनीतिक दल  रामराज्य परिषद का गठन काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत स्वामी करपात्री ने किया। करपात्री ने खुले तौर पर संविधान निर्माण का विरोध किया और मनुस्मृति को लागू करने की माँग की थी। रामराज्य परिषद, हिन्दू महासभा और जनसंघ सहित तीनों हिन्दूवादी दलों को पहले लोकसभा चुनाव (1952) में कुल मिलाकर केवल दस सीटें मिलीं। 

हिन्दुत्व की राजनीति और महंतों की महत्वाकाक्षांओं को भारतीय जनमानस ने नकार दिया और सच्चे संत गांधी के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस में अपना भरोसा जताया।

सांप्रदायिक ताक़तें मुख्यधारा से दूर

इसीलिए समाजशास्त्री आशीष नंदी गांधीजी की हत्या को 'इच्छामृत्यु' कहते हैं। देश के विभाजन से उपजी नफ़रत के विष को गांधीजी पी गए। यही कारण है कि लंबे समय तक हिन्दुत्ववादी सांप्रदायिक शक्तियाँ मुख्यधारा की राजनीति से बेदखल रहीं। गांधीजी जैसे संन्यासी के व्यक्तित्व के आवरण में तमाम मठाधीशों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं फलीभूत नहीं हो सकीं।

लेकिन गुजरते समय के साथ स्वाधीनता आंदोलन के मूल्य विस्मृत होते गए। आध्यात्मिकता की जगह धर्म की जड़ता और कट्टरता मजबूत होती गई। कथित संन्यासी अपने मठों से निकलकर संसद और विधानसभाओं की चकाचौंध भरी राजनीतिक सत्ता में दाखिल होने के लिए मचल उठे। 

आरएसएस और विश्व हिन्दू परिषद ने इन साधु-संतों की महत्वाकांक्षाओं को हिन्दुत्व के लिए इस्तेमाल किया। 1980 में जनसंघ के स्थान पर अस्तित्व में आई भारतीय जनता पार्टी ने हिन्दुत्व का रथ भगवा चोले वाले साधु संतों से सुसज्जित किया। बीजेपी और साधु-संत दोनों को इसका फ़ायदा हुआ लेकिन आध्यात्मिकता, संत स्वभाव और सन्यास के मायने धुँधले हो गए जिसे गांधीजी ने राजनीति जैसे सार्वजनिक जीवन में रहते हुए उज्ज्वल और पवित्र बनाया था।