जिंदगी और मौत के बीच बस एक बारीक लकीर होती है, जैसे भरोसे और घात के बीच। यह जो बारीक-सी लकीर है उसमें कई चीजें शामिल होती हैं। समय, साथ, संसाधन और संयोग भी, जिसे आप किस्मत कह सकते हैं।
कोरोना के इस बार के हमले में बचाव का कोई हथियार टिक नहीं रहा। स्वास्थ्य व्यवस्था का खुद ही दम निकल चुका है। जैसे तेज़ तूफान में आदमी दोनों हाथों से आँख-नाक को बचाते हुए सिर दबाए रहता है, कुछ देखने की हिम्मत नहीं जुटा पाता, सरकारों का हाल वैसा ही है।
फिर बचा क्या? साथ और संयोग। संयोग ऐसा बन जाता है कि कोई खेवनहार मिल जाता है और उसी साथ की बदौलत जान बच जाती है।
अस्पतालों में बिस्तर नहीं
आज दोपहर में एक साथी का फ़ोन आया। एक नेशनल चैनल में एंकर हैं। सर, आसिफ़ नाम का एक आदमी है, पॉजिटिव है। उसकी पत्नी उसको लेकर अस्पतालों के चक्कर लगा रही है, लेकिन कहीं कोई बेड खाली नहीं है। उसका ऑक्सीजन लेवल लगातार गिरता जा रहा है।
कुछ हो सकता है? मैंने कहा- तुम एक मैसेज में उस आदमी का नाम, परेशानी, कॉन्टैक्ट पर्सन और मोबाइल नंबर लिखकर भेजो, मैं देखता हूं। काफी देर तक गाजियाबाद के वसुंधरा-वैशाली इलाके में (आसिफ वहीं रहते हैं) फोन घुमाता रहा, लेकिन कामयाबी कहीं नहीं मिली। मैंने अपने जिन लोगों को उस इलाके में लगा रखा था, वे भी कोशिश में थे।
मेरे सहयोगी का फोन फिर आया- सर, कोई बात बनी? उस आदमी के पास समय कम लग रहा है। जल्दी कुछ करना होगा। मैंने कहा- दस मिनट और दो। छानबीन फिर शुरू की। इंडिया न्यूज के रिपोर्टर जतिन भी इसी काम में लगे थे। उनका फोन आया - सर, एक बेड मिल गया है, लेकिन उनकी पत्नी फोन उठा नहीं रही हैं।
मुझे राहत मिली कि चलो बेड मिला । मैंने कहा तुम दो मिनट रुको, मैं अभी बोलता हूं। अपने एंकर साथी को मैंने फोन लगाया- अरे यार, तुम उनकी पत्नी को बोलो फोन उठाएं, बेड मिल गया है। उन्होंने कहा बस एक मिनट, मैं उनको अभी कहता हूं। फोन एक मिनट तो नहीं बल्कि लगभग पांच मिनट बाद आया। सर, वो आदमी गुजर गया। इसीलिए उसकी पत्नी फोन नहीं उठा रही थी। आँख के आगे अंधेरा सा छा गया। इंसान सांस-सांस के लिए तड़पकर जान गँवा दे रहा है।
वेंटीलेटर नहीं
इस घटना के थोड़ी ही देर बाद एक मित्र जो हिंदी की दमदार युवा लेखिका हैं, उनका फोन आया। एलएनजेपी में एक महिला एडमिट हैं, 25 साल की है और चार महीने की गर्भवती हैं। उनका ऑक्सीजन लेवल लगातार गिर रहा है, कॉप्लीकेशन बढ रहा है, वेंटीलेटर चाहिए।
मैंने कहा- आप बस यही सब नाम और नंबर डालकर मैसेज कीजिए। मन ही मन डरा हुआ था। एक हादसा गुजर चुका है, पता नहीं इस मामले में क्या हो।
उनका मैसेज जैसे आया, मैंने उसे तुरंत आम आदमी पार्टी के विधायक दिलीप पांडे को फॉर्रवर्ड किया और लिखा कि भाई कुछ भी करो लेकिन वेंटिलेटर दिलवाओ। दो जान का सवाल है। दिलीप का जवाब हर बार फौरन आता है। उन्होंने कहा- भैया बताता हूं। जब देर होने लगी तो मैंने एक और मैसेज डाला। भाई, तुम जल्दी कुछ करो, हमारी मित्र भी परेशान हैं। दिलीप का जवाबी वॉयस मैसेज आया। सॉरी भैया, बताना भूल गया था। हो गया, उनको वेंटिलेटर पर डाल दिया गया होगा या डाला जा रहा होगा। लेकिन प्रॉ़बल्म सॉर्टेड। इसके कुछ देर बाद हमारी मित्र ने मैसेज डाला- "शु्क्रिया, काम हो गया। मुझे अब राहत मिली।" राहत मुझे भी मिली।
दो ज़िंदगियाँ अस्पताल के अंदर साधन की कमी के चलते बचाई ना जा सके, यह सुनने में अजीब लगता है, लेकिन आज कल ऐसा ही है। इंसान को बचाया जा सकता है, लेकिन ना तो ऑक्सीजन है, ना रेमडेसिविर और ना बेड।
लेकिन यह महिला खुशकिस्मत थीं और वह मासूम बच्चा भी जो अभी आया भी नहीं है। साथ और संयोग से ऐसे ही जीवन बचाने का संघर्ष चल रहा है। मैं यह ज़रूर कहूंगा कि दिल्ली में एक आदमी जो तमाम तरह की कमियों-खामियों के बावजूद लोगों की मदद में दिन-रात जुटा है, वो हैं दिलीप पांडे। मेरे निवेदन पर यह तीसरी जान है जिसको उनकी कोशिशों ने बचाया है। दिलीप की जितनी तारीफ करें कम है।
(राणा यशवंत के फ़ेसबुक पेज से साभार)