दिल्ली की सरहदों पर डेढ़ महीने से जारी किसान आंदोलन इस देश के लोकतंत्र का नया इम्तिहान है। एक तरफ़ पंजाब-हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और दूसरे राज्यों से आए लाखों किसान हैं और दूसरी तरफ़ अपने दो-तिहाई बहुमत से हासिल जनादेश के अहंकार में डूबी सरकार, जो एक क़दम पीछे हटने को तैयार नहीं है। बीच में बारिश से भीगा यह सर्द मौसम है जो किसी भी आंदोलन के हौसले को गला सकता है, लेकिन इस आंदोलन को नहीं गला पाया है।
लेकिन क्या यह आंदोलन रातों-रात खड़ा हो गया है? क्या तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ पैदा हुआ गुस्सा आंदोलन में बदल गया है? सरकार याद दिला रही है और ठीक ही याद दिला रही है कि ये वे क़ानून हैं जिनका वादा दूसरे दल भी अपने घोषणापत्रों में करते रहे और जिसकी ओर कई राज्यों ने कदम भी बढ़ाए हैं।
अड़ गए किसान
सरकार को उचित ही यह बात समझ में नहीं आ रही कि जो मांगें कल तक सबके लिए सही थीं और खेती को गति देने के लिहाज से ज़रूरी, अचानक उन पर किसान भड़क क्यों उठे हैं। सरकार को लग रहा है कि इन किसानों को विपक्ष भड़का रहा है। सरकार का प्रस्ताव है कि इन तीनों क़ानूनों में वे सारे नुक़्ते हटाए जा सकते हैं जिन पर किसानों को आपत्ति है। मगर किसान हैं कि मानते नहीं। उनका कहना है- तीनों क़ानून वापस लिए जाएं।
किसान ऐसा क्यों कह रहे हैं? क्या सरकार से उनका भरोसा उठ गया है? क्या वह वाकई मानने लगे हैं कि यह सरकार पूंजीपतियों की दोस्त है और सारे फ़ैसले उन्हीं के हित में ले रही है?
असहिष्णु होती सरकार
एक हद तक यह बात है लेकिन इससे भी आगे कुछ बातें हैं। सरकार से भरोसा टूटने की यह प्रक्रिया सिर्फ़ इन क़ानूनों तक सीमित नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में अपनी चुनावी सफलता के बाद सरकार ने जिस तरह का आचरण किया है, उसमें यह बात बहुत साफ़ नज़र आती है कि लोकतांत्रिक असहमतियों और आंदोलनों के प्रति उसका रवैया बहुत असहिष्णु है- उन आंदोलनों के प्रति भी जो अपने आंतरिक गठन और अनुशासन में लोकतंत्र की नई कसौटियां बना रहे हैं।
शाहीन बाग़ का आंदोलन
इस ढंग से देखें तो इस साल चल रहे किसान आंदोलन और 2019 में लगभग इसी समय चले शाहीन बाग़ आंदोलन में काफ़ी समानताएं नज़र आती हैं- दोनों के प्रति सरकारी पक्ष के रवैये में भी। राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर और नागरिकता संशोधन क़ानून की क्रोनोलॉजी बताने वाली सरकार के नए क़ानून के विरुद्ध जब शाहीन बाग के बिल्कुल आम लोगों ने आंदोलन छेड़ा तो सरकार ने उसे लगभग वही सब कहा जो किसान आंदोलन के बारे में कहा गया।
शाहीन बाग़ में पहले आतंकवादियों की शह देखी गई, फिर नक्सलवादी होने का इल्ज़ाम लगा, फिर शांति भंग करने का आरोप लगा और अंततः उसके तार दिल्ली के दंगों से जोड़ दिए गए। किराये पर धरना देने का आरोप तो लगा ही।
किसान आंदोलन में भी खालिस्तानी तत्व खोज लिए गए, नक्सली हाथ देख लिया गया और यह सवाल भी पूछा गया कि इनकी फंडिंग कहां से हो रही है। आंदोलन में बैठी औरतों को शाहीन बाग का मान लिया गया और कहा गया कि वे सौ-सौ रुपये में धरना देने के लिए आई हैं।
अराजनैतिक आंदोलन
लेकिन यह तोहमतें ही नहीं हैं जो किसान आंदोलन और शाहीन बाग को जोड़ती हैं, ये वे लोकतांत्रिक हिकमतें भी हैं जो दोनों आंदोलनों को एक करती हैं। दोनों अपने चरित्र में सब्र और शांति के अनुपम उदाहरण हैं- बिल्कुल आज़ादी की लड़ाई के दौर में गांधी के सत्याग्रह की याद दिलाने वाले। दोनों ने अपने-आप को अराजनैतिक बनाए रखा- राजनीतिक दल आए-गए, लेकिन उन्हें मंच नहीं दिया गया।
लोकतांत्रिक प्रतिरोध की नई परिभाषा
दोनों आंदोलनों का एक सांस्कृतिक चरित्र दिखता है- शाहीन बाग़ हर शाम बिल्कुल जनवादी सांस्कृतिक कार्यक्रमों का केंद्र बनता चला गया। दोनों आंदोलनों में घरेलू महिलाओं की भागीदारी बहुत बड़े पैमाने पर रही। दोनों को जब देशद्रोही कहा गया तो दोनों जगह यह बताने वाले लोग निकल आए कि वे अपने देश से कितना प्रेम करते हैं। तिरंगा, राष्ट्रगान, न्याय और बराबरी के गीत- दोनों जगह गूंजे। एक तरह से दोनों आंदोलन इस देश में लोकतांत्रिक प्रतिरोध की नई परिभाषा तैयार करते नज़र आए।
शाहीन बाग़ एक मुहल्ले से निकल कर देश भर में फैल गया। तमाम शहरों में शाहीन बाग़ बन गए, जबकि किसान आंदोलन ने धीरे-धीरे पूरे देश को समेट लिया। वहां दूर-दूर से आने वाले किसानों के जत्थे दिख रहे हैं।
शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक आंदोलन
इस ढंग से देखें तो कह सकते हैं कि मौजूदा किसान आंदोलन अपने जज़्बे में शाहीन बाग का ही विस्तार है। इसके तरीक़े पुराने तौर-तरीक़ों से मेल नहीं खाते। याद कर सकते हैं कि पंजाब-हरियाणा की इसी पट्टी में जब आरक्षण को लेकर जाट आंदोलन चला था तो कितनी तोड़फोड़ और हिंसा हुई थी। वे भयावह दिन थे जिनमें लड़कियों और उनके परिवारों के साथ बदसलूकी तक की घटना हुई थी। लेकिन आज की तारीख़ में उन्हीं इलाक़ों से संचालित हो रहा आंदोलन बेहद शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक बना हुआ है तो जाहिर है कि इसकी अपनी वजहें भी हैं।
यह आंदोलन इस देश में लोकतांत्रिक जज़्बे की बहाली का भी आंदोलन है। लेकिन किसान आंदोलन और शाहीन बाग में इतनी सारी समानाएं थीं तो कुछ अलगाव भी हैं जो सरकार के लिए इस आंदोलन को और चुनौतीपूर्ण बनाते हैं।
किसान आंदोलन पर देखिए चर्चा-
बदनाम करने की कोशिश
कोरोना की वजह से शाहीन बाग़ आंदोलन खत्म हुआ तो सरकार ने राहत की सांस ली। इसके बाद इस प्रतिरोध से प्रतिशोध लेने का खेल शुरू हो गया। बहुसंख्यकवादी उन्माद की राजनीति के दौर में यह कुछ आसान था, लेकिन किसानों के साथ इस तरह निपटना आसान नहीं है। सरकार के मंत्रियों को तत्काल यह समझ में आ गया कि इन किसानों को खालिस्तानी, आतंकवादी या कुछ और बताना दरअसल अपनी साख कम करना है इसलिए फौरन उन्होंने सुर बदले। अब किसानों को बहलाने-फुसलाने का काम शुरू हो गया।
लेकिन किसान इसके लिए तैयार नहीं हैं। क्योंकि उनके मन में सरकार को लेकर ही शक का बीज पड़ गया है। कहीं न कहीं यह एहसास है कि यह सरकार उनके सवालों और हितों की रक्षा के लिए काम नहीं कर रही, उसे अपना मंदिर चाहिए, देशभक्ति की आड़ में मजबूत की जा रही सांप्रदायिकता चाहिए और ऐसा बेशर्म पूंजीवादी विकास चाहिए जो सिर्फ जीडीपी के आंकड़े देखकर तृप्त होता रहे- जिसमें भले ही कुछ लोगों की आय बढ़ती रहे और बाक़ी लोग पीछे छूटते चले जाएं।
उदारीकरण की दुश्वारियां
यह भी सच है कि यह प्रक्रिया आज शुरू नहीं हुई है। उदारीकरण के बाद से ही निर्बाध पूंजी इस देश का भविष्य गढ़ती रही है और दूसरों को विकास की बलि पर चढ़ना पड़ा है। यह बलि सबसे ज़्यादा किसानों से ली गई जिनकी ख़ुदकुशी के आंकड़े इतने डरावने हैं कि हम उन्हें भूल जाना चाहते हैं। इस प्रक्रिया के और भी स्तर हैं। पहले जो खेतिहर समाज था, वह अब शहरों और महानगरों में दिहाड़ी का मज़दूर है। वह इस देश का नागरिक नहीं, बस गुलाम है जिसे अगर कोई चीज़ फिर भी बचाए हुए है तो वह उसके एक वोट की ताक़त है।
झुकने को मजबूर हुआ मीडिया
दरअसल, यह किसान आंदोलन इस वजह से भी महत्वपूर्ण है। वह इस देश में अपनी नागरिकता की बहाली का आंदोलन भी बन गया है। वह हाशिए से केंद्र पर आ गया है। यही वजह है कि कल तक मीडिया का जो बड़ा हिस्सा इस आंदोलन को या तो नज़रअंदाज़ कर रहा था या इस पर सवाल उठा रहा था या इसका मज़ाक उड़ा रहा था, आज वह गंभीरता से इसकी ख़बरें लेने को मजबूर है।
किसान को अभी न अपने फ़ायदे के क़ानून चाहिए, न नई मंडियां। उसे बस अपने दाम की गारंटी चाहिए। सरकार यह मोटी बात नहीं समझ रही। यह किसानों का अपना लोकतंत्र है जो दशकों के नकार के बाद उबाल मार रहा है।
यह ठीक है कि इसमें बहुत सारे अमीर किसान हैं जो अपने खेतिहर मजदूरों का शोषण भी करते रहे होंगे, यह भी ठीक है कि मौजूदा व्यवस्था भी इन किसानों और ख़ास कर छोटे किसानों के लिए मददगार साबित नहीं हुई है। लेकिन यह आंदोलन इन बातों से परे जा चुका है।
समाज भी समझे जिम्मेदारी
तीनों क़ानूनों की वापसी दरअसल उसके लिए भारतीय लोकतंत्र में अपनी वापसी का मसला है। उसे वह दवा नहीं चाहिए जिस पर उसे भरोसा नहीं है। सरकार यह क़ानून वापस लेगी तो एक तरह से उस लोकतंत्र का सम्मान करेगी जिसमें आम नागरिक की बात सर्वोपरि होती है। लेकिन नागरिकताओं की राजनीति करने वाली सरकारें शायद मान लेती हैं कि उनसे की जाने वाली कोई भी मांग, उनसे रखी जाने वाली कोई भी असहमति बगावत है जिससे सख़्ती से निबटा जाना चाहिए। इस ढंग से देखें तो यह सिर्फ़ किसानों की नहीं, इस देश के लोकतांत्रिक समाज की भी ज़िम्मेदारी है कि वह अपने लोकतंत्र की रक्षा के लिए सरकार को झुकने पर मजबूर करे।