विदा ले रहे साल 2020 में कोरोना महामारी को छोड़ दें तो सबसे बडा ट्रेंड क्या माना जाए? कुछ लोग कोरोना को रोकने के नाम पर लगे देशव्यापी लॉकडाउन को 2020 की सबसे बड़ी त्रासद घटना बता सकते हैं। कुछ लोग लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों की दर्दनाक घर वापसी को साल की सबसे बड़ी सरकार प्रायोजित त्रासदी बता सकते हैं।
कुछ लोग कह सकते हैं कि इस साल बड़ी संख्या में लोगों के काम-धंधे चौपट हो गए और नौकरियां छूट गईं। देश की अर्थव्यवस्था के ढहने को भी इस बीते साल की सबसे बड़ी परिघटना माना जा सकता है।
इसमें कोई शक नहीं कि इन सभी घटनाओं ने अखिल भारतीय जनजीवन को बुरी तरह प्रभावित किया है। सामाजिक और आर्थिक तौर पर देश का बहुत नुकसान हुआ है। लेकिन इन सबसे भी कहीं ज्यादा गंभीर परिघटना यह है कि हमारे लोकतंत्र और संविधान पर पहले से मंडरा रहे संकट के बादल और गहरा गए हैं।
हालांकि सरकार चला रहे लोग इस हकीकत को अपनी हद दर्जे की आत्ममुग्धता के चलते नहीं मानेंगे। वे इसके ठीक उलट दावा करेंगे। सांप्रदायिक और जातीय नफरत के नशे में डूबा, खाया-अघाया सरकार का समर्थक वर्ग और मुख्यधारा के मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भी पूरे भक्ति-भाव से सरकारी धुन पर नाचता-झूमता-उछलता दिखाई देगा। उन सबके ऐसा करने की वजह साफ होगी कि इन घटनाओं से जुड़े सवाल उनके मुख्य सरोकारों में शामिल ही नहीं हैं।
हिंदुत्व का एजेंडा
सरकार और उसके समर्थकों के लिए यह साल कुछ अलग तरह की उपलब्धियों से भरा रहा है। बीते साल के दौरान सरकार चकाचौंध वाले विकास और संकुचित राष्ट्रवाद की चाशनी में डूबे नफरत के अपने हिंदुत्व नामधारी एजेंडे को आगे बढ़ाने में विभिन्न मोर्चों पर सफल रही है। उसकी यही सफलता ही लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा चुनौतीभरा सवाल है।
बीते साल के संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय मीडिया भी भारतीय लोकतंत्र के संकट की ही चर्चा कर रहा है। ब्रिटेन की मशहूर पत्रिका 'द इकॉनॉमिस्ट’ ने लिखा है - “भारत एक पार्टी वाला देश बनने की ओर बढ़ रहा है।”
एजेंसियों का बेजा इस्तेमाल
जिस तरह से सीबीआई, एनआईए, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), इनकम टैक्स, पुलिस, पैसे आदि के दम पर विपक्षी नेताओं को परेशान और विपक्ष शासित राज्यों की सरकारों को अस्थिर किया जा रहा है, उससे 'द इकॉनॉमिस्ट’ के लिखे हुए की पुष्टि होती है। इससे पहले 'द टाइम’, 'वाशिंगटन पोस्ट’ आदि भी इस तरह के बढ़ते संकट का जिक्र कर चुके हैं।
लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन
'ग्लोबल डेमोक्रेसी इंडेक्स’ तो पहले ही बता चुका है कि नागरिक अधिकारों में लगातार भारी कटौती के चलते भारत दुनिया के 165 देशों में सीधे दस पायदान खिसक कर 51वें स्थान पर पहुंच गया है। इसके अलावा भी दुनियाभर में नागरिक अधिकारों और मानवाधिकारों की स्थिति का अध्ययन करने वाले कई स्वतंत्र संगठनों ने भारतीय लोकतंत्र की गिरती सेहत की ओर ध्यान आकर्षित किया है।
भारतीय लोकतंत्र को लेकर इस तरह के अप्रिय और बदनाम निष्कर्षों के बावजूद साल खत्म होते-होते आए नीति आयोग के प्रमुख अमिताभ कांत के बयान से भी यह जाहिर हो गया कि नरेंद्र मोदी की सरकार अब लोकतंत्र के खिलाफ और सख्त होने का इरादा रखती है।
आर्थिक सुधार और लोकतंत्र
प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में काम करने वाले देश के सबसे बड़े नीति-नियामक संस्थान यानी नीति आयोग के सबसे बड़े अधिकारी अमिताभ कांत ने कहा कि भारत में कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र है, इसलिए हम आर्थिक विकास दर में चीन का मुकाबला नहीं कर सकते। उनके इस बयान से दो बातें साफ होती हैं। एक तो यह कि आर्थिक सुधार और लोकतंत्र एक साथ नहीं चल सकते और दूसरा यह कि मोदी सरकार इसके लिए लोकतांत्रिक अधिकारों को कम करना ज़रूरी समझ रही है।
अमिताभ कांत का लोकतंत्र के प्रति हिकारत भरा यह बयान ऐसे समय में आया, जब खेती को कॉरपोरेट के हवाले कर देने वाले नए कृषि कानूनों को रद्द करवाने के लिए देश भर के किसान आंदोलित हैं और उन्होंने दिल्ली को घेर रखा है।
कॉरपोरेट का दख़ल बढ़ेगा
कहा जा सकता है कि अमिताभ कांत का बयान पिछले छह साल से सरकार के स्तर पर जारी लोकतंत्र विरोधी अभियान का निचोड़ है। यह बयान आने वाले साल के लिए भी संकेत है कि देश की संपत्ति और सरकारी सेवाओं को देशी-विदेशी कॉरपोरेट के हाथों सौंपने के अपने इरादों को पूरा करने के लिए मोदी सरकार लोकतंत्र को लहूलुहान करने में और तेजी लाएगी।
देखिए, किसान आंदोलन पर चर्चा-
इस संदर्भ में मोदी के छह साल पुराने उस बयान को याद किया जा सकता है जो उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद सितंबर 2014 में अपनी पहली जापान यात्रा के दौरान दिया था। उन्होंने वहां निवेशकों के एक कार्यक्रम में कहा था, ''...मैं भारत को दुनिया की सर्वाधिक मुक्त अर्थव्यवस्था बना दूंगा।’’
मोदी सरकार शुरू से ही अपने इसी संकल्प को पूरा करने के लिए काम करती रही है। कोरोना महामारी के दौर में उसके इरादे और ज्यादा मुखरता से सामने आए हैं। खेती-किसानी को कॉरपोरेट के हवाले कर देने वाले कानून पहले अध्यादेश की शक्ल में लाए गए थे और फिर संसद में उसे जोर-जबरदस्ती से पारित कराया गया।
बिना किसी को बताए संसद का शीतकालीन सत्र स्थगित कर देना भी सरकार के लोकतंत्र विरोधी एजेंडे का ही हिस्सा है। दिल्ली आए किसानों के साथ किए गए निर्मम सुलूक को भी इसी सिलसिले से जोड़ कर देखा जा सकता है।
आवाज़ को कुचलने की कोशिश
कोरोना संक्रमण के खतरे को नजरअंदाज करते हुए भीषण सर्दी में उन पर ठंडे पानी की बौछार की गई और आंसू-गैस के गोले छोड़े गए और उन्हें दिल्ली की सीमा में प्रवेश करने से रोका गया। यही नहीं, अब पंजाब और हरियाणा में उन किसानों के घरों पर इनकम टैक्स के छापे भी डलवाए जा रहे हैं।
बीते साल में कोरोना काल के दौरान सरकार ने न सिर्फ संसद और चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं और सूचना का अधिकार जैसे कानूनों को कमजोर बनाने का काम चालू रखा बल्कि इस दिशा में कोरोना के नाम पर कुछ नए प्रयोग भी किए। कोरोना का मुकाबला करने के बारे में सारे फैसले खुद ही करने का काम भी इनमें से एक था।
अकेले लिए फैसले
मोदी सरकार ने लॉकडाउन से लेकर वैक्सीन के प्रस्तावित वितरण को लेकर किसी भी फैसले में राज्य सरकारों को शामिल नहीं किया। यही नहीं, राज्य सरकारों को जरुरी मदद करने में भी भरपूर कोताही की। अफसोस की बात यह भी रही कि न्यायपालिका भी कई मामलों में मौन रही और कई मामलों में वह बहुत हद सरकार के सुर में सुर मिलाकर ही बोलती रही।
करीब ढाई महीने तक चले लॉकडाउन के तहत लोगों के हर तरह के काम-धंधे बंद रहे लेकिन सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स की मदद से विपक्षी नेताओं को परेशान करने और विधायकों की खरीद-फरोख्त के जरिए विपक्षी दलों की राज्य सरकारों को अस्थिर करने का काम चालू रहा।
कमलनाथ सरकार गिराई गई
इस सिलसिले में मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार का गिराया जाना सबसे बड़ी मिसाल है। वहां सरकार गिराने की कवायद पूरी करने के लिए लॉकडाउन के एलान में भी देरी की गई, जबकि कोरोना का संक्रमण तेजी से फैलना शुरू हो चुका था।
सरकार ने कोरोना महामारी का उपयोग सिर्फ संविधान के संघीय ढांचे को बिगाड़ने के लिए ही नहीं किया। उसने इस महामारी से निबटने में अपनी अक्षमता छुपाने के लिए देश के सामाजिक ताने-बाने को बिगाड़ने का काम भी किया, जिसमें सत्तारूढ़ पार्टी और उसके प्रचार तंत्र तथा मीडिया के एक बड़े हिस्से ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की।
तबलीगी के नाम पर फैलाई नफरत
तबलीगी जमात के एक कार्यक्रम के बहाने पूरे मुसलिम समुदाय को निशाने पर लेकर यह प्रचारित किया गया कि भारत में कोरोना की यह महामारी मुसलमानों की देन है और वे ही इसे पूरे देश में फैला रहे हैं। सांप्रदायिक नफरत फैलाने के इस आपराधिक अभियान की दुनिया भर में निंदा हुई लेकिन सरकार और उसके सहयोगी राजनीतिक-सामाजिक संगठनों पर इसका रत्तीभर असर नहीं हुआ।
महामारी के दौरान हर जगह अंधविश्वास और वैज्ञानिकता का संघर्ष भी हुआ, जिसमें सरकार और हिंदुत्ववादियों ने चालाकी से अंधविश्वास की हिमायत की। कोरोना वायरस को बेअसर करने के लिए ताली-थाली-घंटी बजाने और दीया-मोमबत्ती जलाने जैसे फूडड़ प्रहसन रचे गए। आयुर्वेद में बताए गए वैज्ञानिक शोध कार्यों को बढ़ावा देने के बजाय हिंदुत्व इसका इस्तेमाल लोगों को अंधविश्वासी बनाने में करता है।
इसीलिए कारोबारी योगगुरू रामदेव को कोरोना की दवाई के नाम पर उन जड़ी-बूटियों को बेचने की छूट भी दी गई, जिनके कोरोना वायरस पर असर के कोई सबूत नहीं हैं। खुद प्रधानमंत्री मोदी ने भी कोरोना से लड़ने के लिए डॉक्टर, अस्पताल, एंबुलेंस, मुफ्त जांच और सस्ती दवाइयों पर चर्चा करने के बजाय योग, ध्यान और काढ़े पर ज्यादा जोर दिया।
कोरोना से बचाव के लिए जारी तमाम दिशा-निर्देशों को नजरअंदाज कर अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास, दीपोत्सव और गंगा आरती जैसे बीजेपी के राजनीतिक एजेंडे वाले तमाम कर्मकांड धूमधाम से चलते रहे।
राज्य को धर्म से अलग रखने के संवैधानिक निर्देश की खिल्ली उड़ाते हुए प्रधानमंत्री भी इन आयोजनों में शिरकत करते रहे। मास्क पहनने और दो गज की दूरी रखने की उनकी नसीहत सिर्फ आम लोगों के लिए थी।
बिहार सहित कई राज्यों में हुए चुनाव-उपचुनाव के दौरान भी कोरोना प्रोटोकॉल को नजरअंदाज करते हुए प्रधानमंत्री और अन्य नेताओं की बड़ी-बड़ी रैलियां और रोड शो होते रहे और पश्चिम बंगाल में अभी भी हो रहे हैं। इस तरह साल 2020 ने दिखाया कि हिंदुत्व की राजनीति कितनी निर्मम और कठोर है, जिसे लोगों की जान से ज्यादा अपना एजेंडा प्यारा है।
उठने लगी आवाज़
कुल मिलाकर बीता साल कोरोना की महामारी के साथ ही इस संकटकाल को लोकतंत्र की जड़ें हिलाने तथा देश के समूचे अर्थतंत्र का कॉरपोरेटीकरण करने के अवसर में बदलने की मोदी सरकार की कोशिशों के लिए ही खास तौर पर जाना जाएगा। इस पूरे साल के दौरान राहत की बात यही रही कि सरकार के लोकतंत्र विरोधी इरादे अब लोगों की समझ में आने लगे हैं।
इस वक्त दिल्ली की सीमाओं पर चल रहा किसान आंदोलन उसी समझ का प्रमाण है। साल 2020 अपने अंतिम दौर में शुरू हुए इस ऐतिहासिक किसान आंदोलन के लिए भी जाना जाएगा जो कि पूरी तरह अहिंसक और लोकतांत्रिक तरीके से जारी है।