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इस्लाम: हाफ़िज़ ख़ुदा तुम्हारा ! 

इस्लाम: हाफ़िज़ ख़ुदा तुम्हारा ! 

इस्लाम में रमज़ान का महीना बहुत पवित्र माना जाता है। लेकिन दूसरी तरफ अफगानिस्तान की मस्जिदों में बम धमाके हो रहे हैं, जिनमें अनगिनत नमाज़ी मारे गए हैं। आखिर वो कौन मुसलमान हैं जो ऐसे कारनामों को अंजाम दे रहे हैं। क्या उन्हें मुसलमान कहा जाना चाहिए।

एक बार फिर रमज़ान जैसे पवित्र एवं इबादत के महीने में अफ़ग़ानिस्तान के मज़ार-ए-शरीफ़ शहर और कुंदुज़ शहर में मस्जिद के पास हुये बम धमाकों में 15 लोगों की मौत और 65 से अधिक गंभीर रूप से ज़ख़्मी हुये हैं। ख़बर है कि इन हमलों की ज़िम्मेदारी इस्लामिक स्टेट ने ली है। हमलों के मास्टर माइंड आईएसआईएस का प्रमुख ऑपरेटिव अब्दुल हमीद संगयार नामक व्यक्ति को गिरफ़्तार भी किया गया है। 

इस घटना ने एक बार फिर पूरे विश्व का ध्यान अफ़ग़ानिस्तान की ओर आकर्षित किया है। इस घटना के मात्र दो दिन पूर्व ही काबुल के पास अब्दुल रहीम शाहिद हाई स्कूल में तीन धमाके हुए थे। इसमें छह लोगों की मौत की ख़बर आई थी और एक दर्जन से अधिक लोग घायल हुये थे। इसके पहले भी गत वर्ष 8 मई को राजधानी काबुल में एक स्कूल के पास एक बड़ा बम ब्लास्ट किया गया था। इस घटना में 50 से अधिक लोगों की मौत हुई थी जबकि 100 से ज़्यादा लोग घायल हो गए थे। उसके बाद 14 नवंबर 2021 को काबुल के ही एक शिया बाहुल्य क्षेत्र में बम ब्लास्ट हुआ जिसमें 6 लोगों की मौत हुई और 7 लोग गंभीर रूप से घायल हुये। इस घटना के अगले ही दिन 15 नवंबर 2021 को कंधार प्रांत की एक मस्जिद में धमाका हुआ था जिसमें 32 लोगों की मौत हो गई थी जबकि 40 लोग घायल हो गए थे। अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर तालिबान के गत वर्ष पुनः जबरन क़ब्ज़ा करते ही काबुल के एयरपोर्ट के पास तीन धमाके हुए थे। इन धमाकों में भी 100 से अधिक  लोगों की मौत हुई थी जबकि 120 से अधिक लोग घायल हुए थे।

माह-ए-रमज़ान में भूखे प्यासे रोज़दार बेगुनाह नमाज़ियों की हत्यायें, रोज़दार नमाज़ियों को कभी बमों के विस्फ़ोट से मारना तो कभी आत्मघाती हमलावर द्वारा स्वयं को ही ब्लास्ट कर निहत्थे लोगों की जान लेना, कभी स्कूलों की बिल्डिंग उड़ा देना तो कभी स्कूल में पढ़ने वाले मासूम बच्चों की सामूहिक हत्यायें कर देना, कभी मुहर्रम के जुलूस में शामिल सोगवारों को आत्मघाती हमले का शिकार बनाना, कभी दरगाहों व इमामबाड़ों पर हमले, कभी गुरुद्वारों पर हमले तो कभी अन्य धर्मों के आराध्य बुतों को ध्वस्त करना, आम लोगों की भीड़ के बीच कभी किसी मर्द को तो कभी किसी औरत को कोड़ों से मारना, कभी गोली से उड़ा देना गोया ज़ुल्म और दहशत की इबारतें लिखने में माहिर तालिबान हों या इस्लामिक स्टेट के आतंकी अथवा अलक़ायदा या इसी विचारधारा के अन्य कई आतंकी संगठन, ये अपनी इन्हीं अमानवीय व दहशतगर्द कारगुज़ारियों को इस्लामी कारगुज़ारी बताते हैं । कौन मुसलमान है और कौन नहीं दुर्भाग्यवश, इसका 'प्रमाण पत्र' भी प्रायः यही संगठन बांटते रहते हैं।

मुसलमान इस्लाम को चाहे जितना शांति सद्भाव तथा समानता वाला धर्म क्यों न बतायें परन्तु अपने उद्भव काल से ही यानी इस्लाम धर्म के प्रवर्तक व अंतिम पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद के जीवन काल में ही इस्लाम उदार व कट्टरवाद की दो अलग अलग धाराओं में बंट गया था। मस्जिदों में नमाज़ियों को क़त्ल करने की प्रवृति भी कोई नई नहीं है। यह तालिबान, इस्लामिक स्टेट अथवा अलक़ायदा द्वारा शुरू किया गया सिलसिला नहीं है। बल्कि इसकी शुरुआत 19 रमज़ान 40 हिजरी तदानुसार 26 जनवरी 661 ईस्वी को उसी समय हो गयी थी जबकि पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद के चचेरे भाई और दामाद अर्थात हज़रत मुहम्मद की इकलौती बेटी हज़रत फ़ातिमा के पति हज़रत अली को इराक़ के कूफ़ा शहर की मशहूर 'मस्जिद-ए-कूफ़ा ' में नमाज़ अदा करते वक़्त उस समय शहीद किया गया था जबकि वे नमाज़ में सजदे की हालत में थे। उनका हत्यारा इब्न-ए-मुल्जिम था।

सोचने का विषय है कि जिन हत्यारों ने अफ़ग़ानिस्तान में शियाओं की सामूहिक हत्या करने के लिये उसी दिन (19 रमज़ान ) का चुनाव किया हो उनका आदर्श व प्रेरक हज़रत अली का हत्यारा इब्न-ए-मुल्जिम नहीं तो और कौन हो सकता है ?

                                                   

इसी तरह मुहर्रम के जुलूस और इमाम बारगाहों पर इनके हमले उन शिया मुसलमानों पर होते हैं जो हज़रत मुहम्मद के नाती और अली व फ़ातिमा के बेटे हज़रत इमाम हुसैन व उनके उन 72 परिजनों व साथियों की शहादत का ग़म मनाते हैं जिन्हें करबला (इराक़) में स्वयं को मुसलमान बताने वाले उस समय के सीरियाई शासक यज़ीद की सेना द्वारा तीन दिनों तक भूखा प्यासा रखने के बाद शहीद कर दिया गया था। इन क्रूर 'इस्लामी ठेकेदारों ' को हज़रत हुसैन की शहादत और उनकी मज़लूमियत को याद करना और यज़ीद के ज़ुल्म की दास्तां सुनाना अच्छा नहीं लगता। यदि यह यज़ीद के पैरोकार नहीं हैं तो फिर क्या वजह है कि अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान व अन्य कई देशों में इस्लामिक स्टेट, तालिबानी सहित अन्य कई चरमपंथी संगठन प्रायः शिया व हज़ारा शिया समुदाय के लोगों को निशाना बनाते रहते हैं?

                                                   

इतिहास गवाह है कि पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद के देहान्त के फ़ौरन बाद ही इस्लाम पर वर्चस्व की लड़ाई और धर्म व सत्ता के गठजोड़ की जो ख़तरनाक सियासत शुरू हुई थी उसी का शिकार स्वयं इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद का पूरा परिवार हुआ। हज़रत अली की कूफ़े की मस्जिद में हत्या, हज़रत मुहम्मद की बेटी व हज़रत अली की पत्नी फ़ातिमा पर जानलेवा हमला, उनके अधिकारों व संपत्ति पर क़ब्ज़ा, अली के बड़े बेटे इमाम हसन को ज़हर देकर शहीद कर देना, फिर क्रूरता की इंतेहा करने वाली वह दास्तान-ए-करबला जिसमें अस्सी साल के बुज़ुर्ग से लेकर छः महीने के बच्चे तक को शहीद किया गया।

इसी तरह हज़रत मुहम्मद के घराने के और भी अनेक इमाम व उनके कई रिश्तेदार क़त्ल किये गये। इन सभी के क़ातिल कोई हिन्दू, यहूदी, पारसी या ईसाई नहीं बल्कि अल्लाह के नाम का कलमा पढ़ने वाले और हज़रत मुहम्मद को ख़ुदा का रसूल स्वीकार करने वाले लंबी लंबी दाढ़ियां रखने वाले मुसलमान ही थे।

अली, फ़ातिमा और करबाला में हुसैन और उनके परिवार के लोगों पर ढहाये गये ज़ुल्म व बर्बरता की यदि विस्तृत दास्तान पढ़िये तो रूह काँप उठती है। आज उन हत्यारों के पैरोकार उसी काले इतिहास को दोहराकर जहाँ हज़रत मुहम्मद के घराने के लोगों से अपनी रंजिश साबित कर रहे हैं, वहीं हत्यारों व इस्लाम को कलंकित करने वालों से अपने रिश्तों पर भी मुहर लगा रहे हैं। अन्यथा रमज़ान में इबादत गुज़ारों, भूखे प्यासों की हत्यायें, निहत्थे लोगों का क़त्ल यह आख़िर किस इस्लाम की शिक्षा है ? 

इस्लामी इतिहास में इस तरह के काम तो यज़ीद और इब्ने मुल्जिम जैसे लोगों या उनके पैरोकारों ने ही किये हैं। और उन घटनाओं का कलंक आज तक इस्लाम का इतिहास ढोता आ रहा है। जिन क्रूर ताक़तों के हाथों  का अपहरण किया जा चुका है उसे देखकर तो यही कहा जा सकता है कि - ऐ इस्लाम:हाफ़िज़ ख़ुदा तुम्हारा।

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