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कारगिल युद्ध : पाकिस्तान के धोखे का भारत ने दिया करारा जवाब 

कारगिल युद्ध : पाकिस्तान के धोखे का भारत ने दिया करारा जवाब 

कारगिल की जंग के बाद से अब तक पाकिस्तान की भारत से सीधे लड़ने की हिम्मत नहीं हुई। क्या हुआ था कारगिल की जंग से पहले और उस दौरान, जानिए। 

पूरे देश ने एक बार फिर कारगिल विजय दिवस और हमारे फौजियों की शहादत को याद किया है। कारगिल की जंग एक ऐसे फरेब की कहानी है जिसमें दोस्ती के भरोसे को तोड़ा गया। तब कुछ महीने पहले ही भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पाकिस्तान से दोस्ती का हाथ बढ़ाने के लिए लाहौर यात्रा पर गए थे। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ और वाजयेपी के बीच लाहौर समझौता भी हुआ, लेकिन उसके बाद पाकिस्तानी सेना ने कारगिल में घुसपैठ कर दी थी। उसके नायक थे पाकिस्तीन सेना प्रमुख जनरल परवेज़ मुशर्रफ़।

हालाँकि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने वाजयेपी को सफ़ाई देते हुए कहा था कि उन्हें इस बारे में कोई ख़बर नहीं है। मैंने कुछ साल बाद जब पाकिस्तान में लाहौर में ही शरीफ के निवास पर उनका इंटरव्यू किया तब भी शरीफ़ ने इस बात का दावा किया कि उन्हें पाकिस्तानी सेना के कारगिल में पहुँचने और घुसपैठ के प्लान के बारे में जानकारी नहीं थी।

कारगिल जंग को हुए दो दशक से ज़्यादा का वक़्त बीत गया है, भारत ने उस जंग में ना केवल जीत हासिल की, बल्कि पाकिस्तान को ऐसा करारा जवाब दिया कि उसके बाद से अब तक पाकिस्तान की भारत से सीधे लड़ाई करने की हिम्मत नहीं हुई। हालाँकि अब भी वो परोक्ष युद्ध चलाता रहा है। पिछले दिनों मैं कश्मीर में था, कारगिल अब मुल्क के लोगों के लिए गर्व और सम्मान की जगह भर नहीं है, वो कश्मीर का एक बड़ा पर्यटन स्थल भी बन गया है। श्रीनगर से कारगिल तक के 202 किलोमीटर के सफ़र को सड़क से तय करेंगे तो आपको ज़मीन पर जन्नत के नज़ारों का अहसास भी होगा। श्रीनगर से सोनमर्ग और द्रास होते हुए कारगिल पहुँचा जा सकता है, लेकिन आज कहानी उस कारगिल जंग की, जब भारत में एक कामचलाऊ सरकार थी, प्रधानमंत्री वाजपेयी उससे पहले लोकसभा में एक वोट से विश्वासमत हार चुके थे। रक्षा मंत्री और सेना प्रमुख दोनों ही तब भारत में नहीं थे।

कारगिल की कहानी सिर्फ़ जीत की कहानी भर नहीं है, उस वक़्त हमारी इंटेलिजेंस को लेकर भी सवाल उठे थे। क़रीब दो हफ्ते तक हम तय नहीं कर पाए थे कि यह पाकिस्तानी मुजाहिदीन हैं या फिर पाकिस्तानी सेना का कारनामा। सेना प्रमुख सरकार को अपनी बात समझाने में मुश्किल महसूस कर रहे थे, लेकिन सेना और राजनयिक समझदारी से हमने इस जंग को जीत लिया। विनम्र समझे जाने वाले वाजपेयी को अमेरिकी प्रशासन डिगा नहीं पाया था, यहाँ तक कि वाजपेयी ने युद्ध के बीच अमेरिकी राष्ट्रपति के उस आमंत्रण को भी अस्वीकार कर दिया जिसमें उन्हें अमेरिका में शरीफ के साथ बातचीत का न्यौता दिया गया था। 

रामचरित मानस में तो लक्ष्मण रेखा नहीं लांघने का ज़िक्र किया गया है, लेकिन वाजपेयी ने भी सेना को सीमा नहीं लांघने का आदेश दिया था और सेना ने अपनी सीमा में रहते हुए यह जीत हासिल कर ली। कारगिल जंग में जीत तो भारत के लिए सम्मान और गौरव की कहानी है ही, लेकिन इस जीत ने विश्वास मत में हारे वाजपेयी की अगले चुनावों में जीत की गारंटी भी तय कर दी थी। एक ऐसा युद्ध जो न केवल सीमा पर लड़ा गया बल्कि टेलीविजन पर दिखाई गई जंग की तस्वीरों से यह मुल्क के हर घर तक पहुँच गया और लगा कि मानो हर भारतीय इस जंग में शामिल है।

कश्मीर के बटालिक सेक्टर के तारकुल गाँव में तीन मई 1999 को गडरिया ताशी नाग्याल रोज़ की तरह उस दिन भी अपनी भेड़ें चरा रहा था। पहाड़ियों पर अपनी भेड़ों को तलाशने के लिए जब उसने दूरबीन से नज़र दौड़ाई तो उसे भेड़ों के बजाय कुछ लोगों की आवाजाही सी दिखी, जिसका मतलब था कि पाकिस्तानी लोग घुसपैठ कर रहे हैं। ताशी तुरंत समझ गया कि उसे क्या करना है, दौड़ता हुआ वह फौजी अफसरों के पास पहुँचा।

ताशी ने बताया कि उस इलाक़े में पाकिस्तान के कुछ लोग आगे बढ़ रहे हैं, उनके पास बारुद और असलहा भी है। फौज को तब उसकी बात पर पूरी तरह यक़ीन नहीं हुआ था। फौज, इंटेलिजेंस ब्यूरो और दूसरी एजेसियों को काफ़ी दिनों तक यह लगता रहा कि वे मुजाहिदीन या आतंकवादी हैं जो घुसपैठ की कोशिश कर रहे हैं।

12 मई 1999 तक पाकिस्तानी फौज के दो सौ जवान सीमा पार करके, नियंत्रण रेखा को पार करके कारगिल की सुनसान पहाड़ियों पर पहुँच चुके थे। उनका इरादा भारत के इलाक़े में दस चोटियों पर कब्ज़ा करने का था। उन्होंने उन पर कब्जा कर भी लिया, क्योंकि उस इलाक़े में सर्दियों के दौरान भारत और पाकिस्तान दोनों अपनी फौज को नीचे उतार लेते हैं और फिर जैसे ही गर्मियाँ शुरू होती हैं वे वापस अपने अपने इलाक़ों में तैनाती कर लेते हैं। जब कारगिल हुआ उस वक़्त तब के विदेश मंत्री जसवंत सिंह तुर्कमेनिस्तान में थे। 

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दो हफ्ते बीत चुके थे। 19 मई तक भी सेना को ठीक से अंदाज़ा नहीं था कि आख़िर हो क्या रहा है? तब रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नांडिस ने दावा किया कि घुसपैठिए आतंकवादी मुजाहिदीन ही हैं और हम पूरे इलाक़े को दो दिन में साफ़ कर देंगे। सरकार और सेना को मई के आख़िरी हफ्ते में जाकर समझ आया कि उनका मुक़ाबला आतंकवादियों से नहीं बल्कि सेना से है, पाकिस्तानी सेना से।

घुसपैठ के 21 दिन बाद 24 मई को दिल्ली में कैबिनेट की पहली बैठक हुई। इसमें प्रधानमंत्री के अलावा रक्षा मंत्री, गृहमंत्री, विदेश मंत्री और कई वरिष्ठ मंत्री शामिल थे। इस तरफ़ सेना प्रमुख जनरल वी पी मलिक को कैबिनेट को समझाने में मुश्किल आई।

जनरल मलिक ने यह बताने की कोशिश की कि वे मुजाहिदीन नहीं हो सकते क्योंकि मुजाहिदीन या आतंकवादी ज़मीन पर कब्ज़ा करके नहीं बैठते। पाकिस्तानी सेना इन इलाक़ों में स्थायी क़ब्ज़ा करने के मक़सद से आगे बढ़ रही है और यदि इन पर जल्दी ही बड़ी कार्रवाई नहीं की गई तो 1972 वाली नियंत्रण रेखा यानी लाइन ऑफ़ कंट्रोल बदल सकती है। पाक सेना स्ट्रेटेजिक पोजीशन पर है जिसका उसे फायदा मिलेगा। उनका मक़सद कारगिल-लेह-श्रीनगर हाईवे पर कब्ज़ा करना है ताकि वे हमारी रसद भी रोक सकें। मलिक का मानना था कि हमें एयरफोर्स का इस्तेमाल करना चाहिए और नौसेना को भी अलर्ट कर देना चाहिए।

एक बड़ा सवाल सबके सामने था कि कारगिल वापस लेने के लिए क्या हम दूसरा फ्रंट खोलें? एक और जगह हमला करें? अगर ऐसा किया गया तो खुली जंग हो सकती है।

विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने कहा कि कारगिल से कब्ज़ा वापस लेना होगा, ये तो सब स्वीकारते हैं लेकिन किसी भी हाल में नियंत्रण रेखा या अंतरराष्ट्रीय सीमा को पार नहीं किया जाना चाहिए। कैबिनेट को अंदाज़ा था कि दोनों मुल्कों के पास परमाणु ताक़त होने के क्या ख़तरे हैं। इसलिए तय हुआ कि खदेड़िये, लेकिन एलओसी पार मत कीजिए।

1999 का साल वाजपेयी सरकार और हिन्दुस्तान की राजनीति के लिए सबसे ज़्यादा उलटफेर और बड़ी घटनाओं से भरपूर था। वाजपेयी की लाहौर बस यात्रा की जहाँ दुनिया भर में तारीफ हो रही थी वहीं मुल्क में उनकी सरकार को गिराने की साज़िशें कामयाब होने वाली थीं। अप्रैल में लोकसभा में विश्वास मत में वाजपेयी सरकार एक वोट से गिर गई, अपना बहुमत खो बैठी। यानी जब मुल्क के लिए बड़ा फ़ैसला लेने का वक़्त था, सेना को निकालने का वक़्त था, तब वाजपेयी सरकार के पास बहुमत नहीं था। वह कामचलाऊ सरकार के तौर पर काम कर रही थी लेकिन बड़े फ़ैसले लेने पर विवश थी।

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सरकार ने वायु सेना के इस्तेमाल की इजाज़त तो दे दी लेकिन एलओसी किसी भी हाल में पार करने से मना किया गया। यह ख़बर पाकिस्तान सेना को लग गई और उनके लिए यह राहत भरी ख़बर थी। उन्हें अब रक्षात्मक रणनीति अपनाने की ज़रूरत नहीं थी।

हिंदुस्तानी आसमान पर अब वायुसेना के जहाज सीना चीरते नज़र आ रहे थे। शुरुआती झटकों के बाद वायुसेना ने अपनी रणनीति बदली। वायुसेना ने अपने जंगी जहाज़ों को उतार दिया और इसे नाम दिया गया ऑपरेशन ‘सफेद सागर’। मिग-29 दूसरे जहाजों को सुरक्षा कवर दे रहे थे। भारतीय वायुसेना ने अपने वायुक्षेत्र में रहकर वह कारनामा कर दिखाया जो बहुत मुश्किल था। 13,000 से 18,000 फीट की ऊँचाई पर छिपे पाकिस्तानी जहाज़ों को चुन-चुन कर निशाना बनाया गया। पाकिस्तान को समझ में आ गया कि भारत आसमान में लड़ाई के लिए तैयार है और जंग कर सकता है।

वायुसेना के इस्तेमाल के दौरान हमारे दो एयरक्राफ्ट नष्ट हो चुके थे और हमारे पायलट नचिकेता पाकिस्तान के कब्ज़े में थे, जिन्हें छुड़ाने की कोशिश हो रही थी। पाकिस्तानी सेना के अफसरों ने कहा कि प्रधानमंत्री कहेंगे तो छोड़ देंगे। काफ़ी दबाव के बाद पाकिस्तान तैयार हुआ और भारत ने कैप्टन नचिकेता को रेडक्रॉस से लेकर गोपनीय तरीक़े से वाघा बार्डर से भारत भेज दिया ताकि उनकी कोई फोटो जारी नहीं हो सके।

पाकिस्तान ने इस घुसपैठ का कोड नाम ‘ऑपरेशन बद्र’ रखा था। इसके पांच मक़सद थे – 

  1. सबसे पहले श्रीनगर–लेह हाईवे को रोकना और बंद करना क्योंकि इसी रास्ते से लद्दाख में फौज़ियों को रसद सप्लाई होती थी। 
  2. सियाचिन से भारतीय सैनिकों को वापसी के लिए दबाव डालना।
  3. इस घुसपैठ के बहाने से अपनी ताक़त को मज़बूत करना ताकि भारत से कश्मीर विवाद को सुलझाने के लिए अपनी शर्तें लगाई जा सकें।
  4. जम्मू कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियाँ बढ़ाना।
  5. कश्मीर मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मंच तक पहुँचाना। लेकिन शायद इसमें से किसी काम में पाकिस्तान को कामयाबी नहीं मिली।

कारगिल तक पाकिस्तानी सेना की घुसपैठ और काफी वक्त तक भारत को इसके बारे में सही-सही जानकारी नहीं मिल पाई और बहुत वक्त तक तो हम इसे सिर्फ आतंकवादियों की घुसपैठ ही मानते रहे। सरकार और खास तौर पर गुप्तचर एजेंसियों की इसको लेकर काफी आलोचना हुई। कारगिल खत्म होने के बाद बनी सुब्रहमनियम कमेटी ने भी माना कि गुप्तचर एजेंसियों की इस मसले पर बड़ी भूल हुई। उस वक्त के थल सेना अध्यक्ष वी पी मलिक ने तब कहा था कि हमारी सीमाओं पर पाकिस्तानी सेना की इस तरह की कार्रवाई का अनुमान और जानकारी लगा पाना, हमारी इंटेलीजेंस एजेसिंयों के कामकाज, उनके सूचनाओं के जुटाने के तौर तरीकों और निर्णय तक पहुंचने की क्षमता में कमी को बताता है, हालांकि उनके इस बयान को लेकर भी जनरल मलिक को काफी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा।

जनरल मलिक का मानना था कि यदि गुप्तचर एजेंसियों ने सही मूल्यांकन किया होता तो प्रधानमंत्री वाजपेयी को फरवरी 1999 में लाहौर जाने से रोका जा सकता था। तब पाकिस्तानी घुसपैठ को तुरन्त सैनिक अभियान घोषित कर दिया जाता, जिसके नतीजे बिलकुल अलग होते।

जनरल मलिक ने कहा कि मार्च 1999 के प्रारम्भ से मुझ सहित सेना को यह मालूम नहीं था कि भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नई दिल्ली में भारतीय राजनीतिक पत्रकार आर के मिश्र और इस्लामाबाद में पाकिस्तानी राजनयिक नियाज़ नाईक के माध्यम से गुप्त वार्ता चला रहे हैं। जनरल मलिक कारगिल की घटना को लेकर गुप्तचर एजेंसियों की नाकामी से तो नाराज़ थे ही, साथ ही सेना से ज़्यादा एजेंसियों पर सरकार के भरोसे के रवैये से उन्हें तकलीफ थी। जनरल मलिक ने कहा कि लंबे समय तक घुसपैठियों की सही पहचान नहीं कर पाने में हम अक्षम रहे। घुसपैठिए कौन थे? क्या वे आतंकवादी थे या फिर पाकिस्तानी सेना के नियमित सैनिक थे?

सुरक्षा संबंधी मामलों की कैबिनेट समिति यानी सीसीएस की बैठक में जनरल मलिक ने घुसपैठियों की पहचान का मुद्दा उठाया। रॉ प्रमुख अरविन्द देव, इंटेलिजेस प्रमुख एस के दत्ता और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय में सचिव सतीश चन्द्रा का मानना था कि घुसपैठियों में सत्तर फ़ीसदी जिहादी आतंकवादी और तीस फ़ीसदी पाकिस्तानी सेना के नियमित सैनिक थे। जनरल मलिक के जोर देने पर प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय से जिहादी आतंकवादियों के बारे में पूरी रिपोर्ट रखने को कहा तो कुछ दिन बाद सतीश चन्द्रा ने अपनी नई रिपोर्ट में 70 फ़ीसदी पाकिस्तानी सैनिक और 30 फ़ीसदी जिहादी होने की बात की। इस पर भी जनरल मलिक ने सवाल खड़ा किया कि थल सेना के पास उपलब्ध सबूतों के मुताबिक़ सभी घुसपैठिये पाकिस्तानी सैनिक हैं। 

एक और अहम घटना का ज़िक्र जनरल मलिक ने किया है कि पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल परवेज़ मुशर्रफ और पाकिस्तान के चीफ ऑफ़ जनरल स्टाफ मोहम्मद अज़ीज़ खान के बीच बातचीत का टेप मिलने और उसे सीसीएस में सुनने के बाद साफ हो गया था कि कारगिल अभियान जिहादी अभियान नहीं बल्कि सैनिक हमला था जिसे पाकिस्तानी सेना ने तैयार किया और अंजाम भी दिया।

उधर पाकिस्तान एक बार फिर रंग बदल रहा था। कारगिल जंग के दौरान ही 6 जून को पाकिस्तान की तरफ़ से बातचीत का प्रस्ताव आया। प्रधानमंत्री वाजपेयी ने 7 जून को देश को संबोधित करते हुए कहा, मैं साफ तौर पर कहना चाहता हूँ कि यदि घुसपैठ के माध्यम से नियंत्रण रेखा को बदलने के साथ बातचीत करने की भी चाल है तो प्रस्तावित बातचीत शुरू होने से पहले ही खत्म हो जाएगी।

वाजपेयी ने सेना पर भरोसा जताते हुए कहा कि हमें हमारी फौज की ताक़त पर भरोसा करना चाहिए। 

पाकिस्तान के विदेश मंत्री सरताज अजीज चीन होते हुए 12 जून को दिल्ली पहुंचे। उन्होंने तीन सूत्री प्रस्ताव भारत के सामने रखा: 

  1. युद्ध विराम।
  2. नियंत्रण रेखा की समीक्षा और निर्धारण के लिए एक वर्किंग ग्रुप बनाया जाए।
  3. अगले सप्ताह में इसी तरह भारतीय विदेश मंत्री की पाकिस्तान यात्रा।

नई दिल्ली ने इस प्रस्ताव को सीधे ठुकरा दिया।

वाजपेयी ने एक बार फिर सार्वजनिक बयान दिया कि भारत अंतरराष्ट्रीय सीमा या नियंत्रण रेखा का उल्लंघन नहीं करेगा। इस पर जनरल मलिक ने ब्रजेश मिश्र से बात करके कहा कि हमें ऐसा बयान नहीं देना चाहिए। जनरल मलिक का कहना था कि मान लीजिए हम कारगिल से घुसपैठिए को नहीं भगा सके तो सेना के पास अंतरराष्ट्रीय सीमा या नियंत्रण रेखा को पार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहेगा। 

इस युद्ध का सबसे अहम हिस्सा था तोलोलिंग। पाकिस्तान ने द्रास सेक्टर में तोलोलिंग पर कब्ज़ा कर लिया था। उसने हाईवे के पास भारतीय सैनिक ठिकानों को तबाह करने और नियंत्रण रेखा के आसपास हमारी चौकियों तक यातायात को रोकने के काबिल बना दिया था। उससे पूरी रसद सप्लाई भी रुक सकती थी। उसे तोड़ना और उस पर कब्ज़ा करना ज़रूरी था।

तोलोलिंग पर विजय के बाद दोनों देशों के बीच ट्रैक-2 बातचीत शुरू हुई। इसके लिए पाकिस्तान ने एक बार फिर चार सूत्री प्रस्ताव रखा:

  1. नियंत्रण रेखा को परस्पर सम्मान देने के लिए दोनों पक्षों द्वारा उचित उपाय करना।
  2. लाहौर घोषणा के तहत शुरू की गई कम्पोजिट बातचीत को तुरन्त शुरू करना।
  3. इस्लामाबाद द्वारा मुजाहिदीन पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर उनसे कार्रवाई बंद करने को कहना।
  4. निश्चित समय सीमा के अंदर कश्मीर विवाद का समाधान ढूंढना।

प्रधानमंत्री वाजपेयी ने इन चारों बातों को नामंज़ूर कर दिया और युद्ध विराम से इंकार कर दिया। इसके साथ ही वाजपेयी ने कहा कि पाकिस्तानी सेना को कारगिल से तुरन्त हट जाना चाहिए वरना भारत उचित कार्रवाई करेगा।

वाजपेयी सरकार ने इस लड़ाई में एक अहम फ़ैसला किया। शहीदों के सम्मान का फ़ैसला। पहली बार तय किया गया कि शहीदों के शवों को उनके गांव, उनके घर तक पहुँचाया जाएगा और पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा।

ये फ़ैसला काफी अहम रहा, खासतौर से मुल्क को जोड़ने में इसने अहम भूमिका निभाई। लड़ाई भले ही कारगिल में हो रही थी लेकिन इस फ़ैसले से राजस्थान से मणिपुर तक और लद्दाख से केरल तक पूरा मुल्क लड़ाई से जुड़ गया। जब किसी गांव या मोहल्ले में किसी शहीद का शव पहुंचता तो उसके सम्मान में पूरा गांव या शहर एक साथ खड़ा दिखाई देता, जबकि दूसरी तरफ पाकिस्तानी सेना की त्रासदी यह रही कि वह अपने सैनिकों को कबूल करने से ही बचती रही।

कारगिल के इलाक़े में जब भारतीय सेना अपने अभियान को तेज़ी से आगे बढ़ा रही थी तब दूसरी तरफ राजनयिक स्तर पर अमेरिकी प्रशासन भारत और पाकिस्तान से लगातार सम्पर्क में था। अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने इस दौरान कई बार वाजपेयी और शरीफ से बातचीत भी की। अमेरिका को अब इस लड़ाई की गंभीरता और उसके नतीजों का अंदाज़ा होने लगा था।

पाकिस्तानी विदेश मंत्री सरताज अज़ीज के भारत में नाकाम दौरे के बाद उसकी सरकार जंग खत्म करने के सम्मानजनक तरीके तलाश रही थी। 

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पाकिस्तान अब हर हाल में इसमें अमेरिकी दखल चाहता था। जून के आख़िर में शरीफ क्लिंटन से अपने पक्ष में समर्थन करने के लिए अनुरोध करने लगे। फिर 2 जुलाई को शरीफ ने बिल क्लिंटन से बातचीत की और उन्हें तुरंत युद्ध रोकने और कश्मीर समस्या के समाधान के लिए अनुरोध किया। जब कोई जवाब नहीं मिला तो उन्होंने अगले दिन कहा कि वह वाशिंगटन आने के लिए तैयार हैं। तब क्लिंटन ने शरीफ को साफ शब्दों में कहा कि अमेरिका दो बातों को ध्यान में रखकर आए, पहली बात- पाकिस्तान को अपने सैनिकों को नियंत्रण रेखा से पीछे हटाने के लिए तैयार होना पड़ेगा और दूसरा कि वह कश्मीर विवाद में दख़ल देने के लिए तैयार नहीं है।

शरीफ ने बताया कि वे अगले दिन चार जुलाई को वाशिंगटन पहुंच रहे हैं, हालांकि उस दिन अमेरिकी स्वतंत्रता दिवस की वजह से छुट्टी होती है। अमेरिका चाहता था कि वाजपेयी भी इस मौके पर मौजूद रहें। इसी वक्त क्लिंटन ने वाजपेयी से भी फोन पर बात कर उन्हें वाशिंगटन आने के लिए कहा लेकिन वाजपेयी ने इंकार कर दिया।

नवाज़ शरीफ ने वाशिंगटन जाने से पहले रक्षा मामलों की कैबिनेट समिति के साथ बैठक की। इसमें परवेज़ मुशर्रफ भी शामिल थे। मुशर्रफ फिर शरीफ को विदा करने एयरपोर्ट भी पहुंचे। तीन जुलाई को भारतीय फौज ने टाइगर हिल पर विजय हासिल कर ली थी।

अमेरिकी अधिकारी ब्रूश रीडल के मुताबिक़ राष्ट्रपति क्लिंटन नियंत्रण रेखा की मर्यादा बहाल करने पर जोर दे रहे थे। क्लिंटन ने शरीफ से ये भी पूछा कि क्या उन्हें इस बात की जानकारी है कि पाकिस्तानी सेना संभावित उपयोग के लिए परमाणु हथियार तैयार कर रही है तो शरीफ ने कहा कि उन्होंने ऐसा कोई आदेश नहीं दिया है। तब वे संयुक्त बयान पर दस्तखत करने के लिए तैयार हुए। इसके बाद राष्ट्रपति क्लिंटन ने प्रधानमंत्री वाजपेयी को फोन किया कि वे दस्तखत होने से पहले इस साझा बयान को देख लें।

जनरल वी पी मलिक ने अपनी किताब में लिखा है कि 6 जुलाई को भारत और पाकिस्तान के सैन्य महानिदेशकों के बीच फोन पर बातचीत हुई। तब तक बटालिक और द्रास सेक्टर से 90 फीसदी  घुसपैठ को खत्म कर दिया गया था। टाइगर हिल और पाइंट 4875 पर कब्ज़ा जमाने के बाद 79 माउंट ब्रिगेड और 50 पैरा ब्रिगेड अब मस्वाई सेक्टर के बाकी हिस्से से घुसपैठ खत्म करने की तैयारी में थी।

8 जुलाई को प्रधानमंत्री ने जनरल मलिक को अपने आवास पर बुलाया और ब्रजेश मिश्र और उनके साथ बैठक की। प्रधानमंत्री ने बताया कि पाकिस्तान नियंत्रण रेखा तक पीछे हटने पर राज़ी हो गया है। जनरल मलिक ने कहा कि भारतीय सेना उनके ऐसे पीछे हटने के प्रस्ताव को मंज़ूर नहीं करेगी। जनरल ने सवाल किया कि जब हवा हमारे अनुकूल हो तो हमें दुश्मन को बचकर निकलने का मौक़ा क्यों देना चाहिए? कुछ घंटों के बाद प्रधानमंत्री ने जनरल मलिक को फिर से बुलाया और पूछा कि बाकी पाकिस्तानी घुसपैठियों को भगाने में अभी कितना वक्त लगेगा? जनरल मलिक ने कहा कि दो-तीन हफ्ते लगेंगे। उम्मीद है कि दो सप्ताह में यह काम पूरा हो जाएगा। उस वक्त वाजपेयी कामचलाऊ सरकार के नेता थे। वाजपेयी ने कहा कि हमें लोकसभा चुनाव भी कराने हैं जिसके लिए अब कम वक्त रह गया है। इसी बीच मुख्य चुनाव आयुक्त एम एस गिल ने 11 जुलाई 1999 को लोकसभा चुनावों के लिए अध्यादेश जारी कर दिया।

जनरल मलिक ने 21 जुलाई को प्रधानमंत्री को सारे हालात की जानकारी दी और कहा कि हमारी सीमा में पाकिस्तानी कब्जे वाली चोटियों पर विजय हासिल करने से पहले ऑपरेशन विजय को समाप्त करना मुमकिन नहीं और इसके लिए हमें बल प्रयोग की इजाज़त चाहिए। वाजपेयी ने इजाज़त दे दी। 25 जुलाई को सभी तीन चोटियों से पाकिस्तानी कब्ज़े को हटा दिया गया और 26 जुलाई को ऑपरेशन विजय की कामयाबी का ऐलान किया गया। जिसे अब पूरा देश कारगिल विजय दिवस के तौर पर मनाता है।

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