हैरानी की बात है कि 1857 के रानी झाँसी लक्ष्मीबाई के बलिदान का कारण बने ‘अंग्रेज़ों के मित्र’ जयाजीराव सिंधिया के वंशज और आज भी ख़ुद को ‘श्रीमंत’ कहलाना पसंद करने वाले केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया, नेता प्रतिपक्ष राहुल गाँधी पर इस बात के लिए भड़के हुए हैं कि उन्होंने अपने एक लेख में तमाम राजे-रजवाड़ों की ‘अंग्रेज़ भक्ति’ का उल्लेख किया है। वे इसे ‘भारत माता’ का अपमान बता रहे हैं।
कुछ दिन पहले इंडियन एक्सप्रेस में ‘ए न्यू डील फ़ॉर इंडियन बिज़नेस’ शीर्षक से छपा यह लेख कॉरपोरेट कंपनियों के एकाधिकार के ख़तरे को चिन्हित करते हुए एक नया आर्थिक प्रस्ताव पेश करता है। राहुल गाँधी ने लिखा है- “ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत की आवाज कुचल दी थी। यह आवाज अपनी व्यापारिक शक्ति से नहीं, बल्कि अपने शिकंजे से कुचली थी। कंपनी ने हमारे राजा-महाराजाओं और नवाबों की साझेदारी से, उन्हें रिश्वत देकर और धमका कर भारत पर शासन किया था। उसने हमारी बैंकिंग, नौकरशाही और सूचना नेटवर्क को नियंत्रित कर लिया था। हमने अपनी आजादी किसी दूसरे देश के हाथों नहीं गँवाई, हमने इसे एक एकाधिकारवादी निगम के हाथों खो दिया, जो हमारे देश में दमन तंत्र को चलाता था। कंपनी ने प्रतिस्पर्धा ख़त्म कर दी। वही यह तय करने लगी कि कौन क्या और किसे बेच सकता है। कंपनी ने हमारे कपड़ा उद्योग और मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर को भी नष्ट कर दिया था। मैंने कभी नहीं सुना कि कंपनी द्वारा कभी कोई अनुसंधान किया गया। मुझे बस इतना पता है कि कंपनी ने एक क्षेत्र में अफीम की खेती पर एकाधिकार हासिल कर लिया था और दूसरे में नशा करने वालों का एक बाजार विकसित कर लिया था। जब कंपनी भारत को लूट रही थी, तब उसे ब्रिटेन में एक आदर्श कारपोरेट निकाय के रूप में दर्शाया जा रहा था।”
कोई भी देख सकता है कि राहुल गाँधी ने राजे-रजवाड़ों के बारे में बेहद सरसरी तौर पर एक तथ्य रखा है। वे दरअसल कॉरपोरेट एकाधिकार की बात कर रहे हैं जिसने कभी भारत को ग़ुलाम बनाया था। वे बता रहे हैं कि मौजूदा समय में भी लोगों को डरा-धमकाकर या घूस देकर चुनिंदा कॉरपोरेट कंपनियों के लिए एकाधिकार का रास्ता खोला जा रहा है। राहुल गाँधी का कहना है कि “हमारी अर्थव्यवस्था तभी फलेगी-फूलेगी जब सभी व्यवसायों के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष स्थान होगा।’
‘श्रीमंत’ ज्योतिरादित्य सिंधिया को राहुल गाँधी के लेख में दर्ज आर्थिक विश्लेषण से कोई लेना-देना नहीं है। वे सरसरी तौर पर दिये गये एक ऐतिहासिक संदर्भ को भारत के राजे-रजवाड़ों का अपमान बताने में जुट गये हैं। उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म एक्स पर लिखा- "भारत की समृद्ध विरासत के बारे में राहुल गांधी की अज्ञानता और उनकी औपनिवेशिक मानसिकता ने सभी हदें पार कर दी हैं।….अगर आप (राहुल) देश के 'उत्थान' का दावा करते हैं, तो भारत माता का अपमान करना बंद करें और महादजी सिंधिया, युवराज बीर टिकेंद्रजीत, कित्तूर चेन्नम्मा और रानी वेलु नचियार जैसे सच्चे भारतीय नायकों के बारे में जानें, जो जमकर हमारी आज़ादी के लिए लड़े।"
इतिहास का सामान्य विद्यार्थी भी कह देगा कि राहुल गाँधी के लेख में दिये गये संदर्भ को ध्यान रखा जाये तो ज्योतिरादित्य सिंधिया की दलील बेहद हास्यास्पद है। ज्योतिरादित्य सिंधिया जिन नामों को गिना रहे हैं उनका संघर्ष उस शुरुआती दौर का है जब ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में पैर ज़माने की कोशिश कर रही थी। ज्योतिरादित्य ने अपने जिन पुरखे महादजी सिंधिया का हवाला दिया है, उन्होंने 1782 में अंग्रेज़ों के साथ हुई ‘सालाबाई की संधि’ पर पेशवा की ओर से दस्तख़त किये थे। इसके साथ ही अंग्रेज़ों से संघर्ष का इरादा ख़त्म हो गया था। यही नहीं, 1783 में महादजी अगर गोहद के राजा से ग्वालियर का क़िला छीन सके तो वजह अंग्रेज़ों का समर्थन ही था।महादजी सिंधिया ने अपनी शक्ति तमाम राजपूत राजाओं से युद्ध करके बढ़ाई न कि अंग्रेजों से लड़कर। अंत में वे मुग़ल साम्राज्य के ‘वकील-उल-मुतलक' बने। यह उपाधि उन्हें मुग़ल सम्राट शाह आलम ने दी थी।
सच्चाई ये है कि ईस्ट इंडिया कंपनी शासन के ख़िलाफ़ राजे-रजवाड़ों का अंतिम संघर्ष 1857 में हुआ। लेकिन इस दौर में भी अंग्रेज़ों का साथ देने वाले राजे-रजवाड़ों की तादाद, उनसे लड़ने वालों से कई गुना ज़्यादा रही।
ख़ुद ज्योतिरादित्य के पुरखे जयाजीराव सिंधिया इसकी मिसाल हैं जिन्होंने प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष में अंग्रेज़ों का साथ न दिया होता तो इतिहास ही बदल गया होता। 1857 में जिन राजवंशों ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ तलवार खींची वे हमेशा के लिए मिटा दिये गये। उनके वंशजों को उत्तराधिकार से वंचित कर दिया गया और राज किसी ‘स्वामिभक्त’ को सौंप दिया गया। राजा, महाराजा से लेकर रायसाहब और नवाब साहब की उपाधियाँ इसी स्वामीभक्ति की कसौटी पर बाँटी गयीं जिसे आज भी उनके वंशज बड़े फ़ख़्र से धारण करते हैं। क्रांति के केंद्र रहे अवध में तो ये खेल जमकर खेला गया। अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाकर बादशाह वाजिद अलीशाह को कलकत्ता के मटियाबुर्ज में नज़रबंद कर दिया गया और आज हम अयोध्या के राजा बतौर एक ‘मिश्र जी’ को जानते हैं।
1911 का ‘दिल्ली दरबार’ इसका चरम था जिसमें शामिल होने के लिए भारतीय रजवाड़ों में होड़ लग गयी थी। एक-दो को छोड़कर सभी भारतीय रजवाड़े किंग जॉर्ज पंचम और महारानी मेरी को कोर्निश करने के लिए दिल्ली पहुँचे थे और महारानी के स्वामिभक्त होने का प्रमाण हासिल किया था। इस दरबार का जब समापन हुआ तो भारतीय राजवंशों के दस चुने हुए राजकुमार 'पेज बॉय’ बने हुए थे। उन्हें कई दिनों तक प्रशिक्षण दिया गया था कि कैसे राजा और रानी के लबादे को अपने कंधों की ऊँचाई तक उठाये हुए उनके पीछे-पीछे चलना है।
दुनिया के जिस देश में भी साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष हुआ, ऐसे लोगों को हमेशा ग़द्दार माना गया। क्रांति के सफल होने पर सज़ा भी दी जाती रही है। बीसवीं सदी में आज़ाद होकर नई धज के साथ सामने आये तमाम देशों की बुनियाद में ऐसे ग़द्दारों की निशानियाँ दफ़्न हैं। लेकिन भारत एक अपवाद है। जब सभी रणबाँकुरों ने अपनी तलवारों को म्यान में धर लिया था तो गाँधी जी के नेतृत्व में भारत की जनता ने अहिंसक क्रांति का चमत्कार कर दिखाया। इस दौर में भी रियासतों का रुख़ जनता के प्रति दमनकारी था। यहाँ तक कि कांग्रेस संगठन की ओर से आंदोलन करना प्रतिबंधित था।
आज़ादी के बाद अंग्रेज़ों का साथ देने वालों को भी वह सारे हक़ दिये गये जो किसी भी भारतीय नागरिक को हासिल हैं। उनसे बदला लेने की भी कोई कोशिश नहीं हुई। उल्टा उन्हें नयी व्यवस्था के निर्माण में भागीदार बनाया गया।
ज्योतिरादित्य सिंधिया के पुरखों ने जो किया, इसके लिए उन्हें ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता लेकिन इतिहास को भी बदला नहीं जा सकता। इतिहास ये है कि 1857 की क्रांति की असफलता के बाद, नाना साहब पेशवा, रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे का साथ न देने के एवज़ में जयाजीराव सिंधिया को अंग्रेज़ी सरकार ने ‘फ़िदवी-ए-हज़रत-ए-मलिका-ए-मुअज़्ज़मा-ए-रफ़ी-उद-दर्जा-ए-इंग्लिश’ का ख़िताब दिया जिसका अर्थ ‘महान ब्रिटिश साम्राज्ञी का सबसे बड़ा स्वामिभक्त और अंग्रेज़ों का सबसे महान दोस्त’ है। यही नहीं, गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग ने 1858 में आगरा में दरबार आयोजित किया जिसमें जयाजीराव सिंधिया को अपने बग़ल में बैठाया और उनकी स्वामिभक्ति की जमकर प्रशंसा की। उन्हें अपने हाथ से माला पहनायी। सिंधिया को 19 की जगह 21 तोपों की सलामी का अधिकार भी दिया गया जो गवर्नर जनरल को ही मिलती थी। साथ में रानी लक्ष्मीबाई की झाँसी की जागीर भी सिंधिया के हवाले कर दी गयी। 1886 में जब जयविलास पैलेस में जयाजीराव सिंधिया ने अंतिम साँस ली तो वे ‘सीआईए' यानी ‘कंपेनियन ऑफ़ इंडियन एंपायर’ की उपाधि पा चुके थे। यह उपाधि एशिया के उन लोगों को दी जाती थी जो इस महाद्वीप में ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार में ‘साथी' की भूमिका अदा करते थे।
यही वजह है कि सिंधिया घराने के वंशज होने के नाते ज्योतिरादित्य सिंधिया के पास तमाम पैलेस बरक़रार हैं जबकि सत्तावनवीं क्रांति के प्रतीक रहा लाल क़िला सरकारी संपत्ति है। अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के वंशजों का कोई अता-पता नहीं है। हालाँकि लाल क़िले के क़रीब ख़ूनी दरवाज़ा आज भी मौजूद है जहाँ 22 सितंबर को बहादुर शाह ज़फ़र के बेटे और विद्रोही सेना के प्रमुख मिर्ज़ा मुग़ल, मिर्ज़ा ख़िज़्र सुल्तान और मिर्ज़ा मुग़ल के बेटे मिर्ज़ा अबूबक्र को कैप्टन विलियम हॉडसन ने निर्वस्त्र करके गोलियों से उड़ा दिया था। वह चाँदनी चौक भी मौजूद है जहाँ एक चबूतरे पर इन शहज़ादों के नग्न शवों का सार्वजनिक प्रदर्शन किया गया। बीसियों अन्य मुग़ल शहज़ादे भी इसी तरह निर्ममता से क़त्ल किये गये थे। कल्पना ही की जा सकती है कि अगर बहादुर शाह ज़फ़र ने भी क्रांतिकारियों का साथ देने के बजाय सिंधिया की तरह ब्रिटिश ताज के प्रति वफ़ादारी दिखायी होती तो आज लाल क़िले का स्वरूप क्या होता। वह आज की तरह शीर्ष पर तिरंगा धारे भारत की संप्रुभता का प्रतीक होता या फिर मुग़ल वैभव की एक निशानी मात्र होता और उत्तराधिकारियों के बीच मुक़दमों के लिए सुर्खियाँ बनता?
पुनश्च: ज्योतिरादित्य सिंधिया अगर अपने कुल के इतिहास को एक बार पलटें तो उन्हें यह भी पता चलेगा कि जयाजीराव सिंधिया के बेटे माधोराव ने अंग्रेज़ सरकार से अनमुति लेकर सम्राट जॉर्ज पंचम का नाम जोड़ते हुए अपने पुत्र का नाम ‘जॉर्ज जीवाजी राव’ और पुत्री के नाम में महारानी मैरी का नाम जोड़कर ‘मैरी कमला राजे’ रखा था। रजवाड़ों की अंग्रेज़भक्ति का ऐसा विकट उदाहरण इतिहास में दूसरा नहीं है। ज्योतिरादित्य उन्हीं जॉर्ज जीवाजी राव के पौत्र हैं।