ट्रंप के भूत को कैसे भगाएंगे जो बाइडन?

01:18 pm Jan 22, 2021 | मुकेश कुमार - सत्य हिन्दी

अमेरिका के छियालीसवें राष्ट्रपति जो बाइडन ने डोनल्ड ट्रंप द्वारा लिए गए अटपटे और विध्वंसकारी फ़ैसलों को उलटकर जता दिया है कि वे ट्रंप युग की कड़वी यादों को दफ़्न करना चाहते हैं। वे उस कालखंड को अमेरिका के इतिहास से काटकर अलग कर देना चाहते हैं, जो एक बदनुमा दाग़ की तरह उस पर चस्पा हो गया है। वे अमेरिका को ट्रंप के प्रभावों से मुक्त कर देना चाहते हैं, लेकिन क्या ये मुमकिन है? 

पिछले चार सालों में ट्रंप ने जो नुक़सान कर दिया है क्या उसकी भरपाई हो सकेगी?

राष्ट्रपति बनने के बाद पहले संबोधन में बाइडन ने जिस तरह बार-बार दोहराया कि अमेरिका के लिए ये परीक्षा का समय है, उसी से समझ में आ जाता है कि वे कितने चिंतित और आशंकित हैं। उन्हें इस बात का अंदाज़ा है कि ट्रंप का जाना ट्रंप-प्रवृत्ति का ख़त्म होना नहीं है।

प्रशासनिक फ़ैसलों से ट्रंप की नीतियाँ तो उलटी जा सकती हैं, लेकिन अमेरिकी समाज में जैसा बँटवारा हो चुका है, उसे दूर कर पाना हिमालयी चुनौती से कम नहीं है। इसीलिए उनके भाषण में जिस दूसरी चीज़ पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया गया, वह थी एकता। 

सक्रिय रहेंगे ट्रंप 

बाइडन ने बारंबार इस तथ्य को रेखांकित किया कि अमेरिका तभी आगे बढ़ सकता है जब वह एक होगा। वे जानते हैं कि ट्रंप ने अपने झूठे प्रचार और विभाजित करने वाली नीतियों से अमेरिका में पहले से मौजूद खाईयों को और भी गहरा कर दिया है। वे यह भी जानते हैं कि ट्रंप व्हाइट हाउस से चले गए हैं मगर उनकी विदाई पूरी तरह से नहीं हुई है और वे राजनीतिक परिदृश्य में बने रहने वाले हैं। 

वे अगला चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुके हैं, इसलिए अपने विभाजनकारी विचारों और अभियानों के साथ सक्रिय रहेंगे। वे अमेरिका को गोरे बनाम अन्य में बाँटते रहेंगे। 

दरअसल, अमेरिका का भविष्य अब काफी कुछ इसी बात पर टिका हुआ है कि वह आंतरिक रूप से कितना एकजुट और शक्तिशाली है। अँदर से बँटा अमेरिका अपनी लोकतांत्रिक पहचान और मूल्यों को नहीं बचा सकेगा, जो कि उसकी एक बड़ी विशेषता है और जिसका इस्तेमाल वह अंतरराष्ट्रीय राजनीति में करता रहा है। हालाँकि अमेरिकी लोकतंत्र विरोधाभासों और विडंबनाओं से भरा हुआ है, मगर यदि ये छवि भी ध्वस्त हुई तो उसके पास कुछ भी नहीं बचेगा। जो बचेगा वह मुनाफ़ाखोर, युद्धोन्मत्त देश होगा। 

देखिए, अमेरिका के हालात पर चर्चा- 

बाइडन के सामने हैं चुनौतियां 

बाइडन ने जिस पृष्ठभूमि के साथ दुनिया के सर्वाधिक शक्तिशाली देश की बागडोर सँभाली है, वह बहुत उलझी हुई है। डोनल्ड ट्रंप ने उनके लिए ऐसी विरासत छोड़ी है जो घरेलू और अतंरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर पहाड़ सरीखी है। ट्रंप ने पिछले चार साल में लोकतंत्र पर ज़बर्दस्त प्रहार करते हुए अमेरिका को एक दिग्भ्रमित राष्ट्र में तब्दील कर दिया है।

ट्रंप ने श्वेत नस्लवाद के जिन्न को बोतल से बाहर निकाल दिया है और अब उसे वापस बोतल में बंद करने की चुनौती बाइडन के सामने है।

ट्रंप तो चले गए हैं लेकिन ट्रंप का भूत व्हाइट हाउस में अभी भी मौजूद है, उसे बाइडन कैसे भगाएंगे? ट्रंप के ख़िलाफ़ महाभियोग या उन्हें जेल भेजने की कार्रवाई इसमें कितनी कारगर होगी, इसको लेकर संदेह हैं। संदेह इसलिए हैं कि ऐसे मौक़ों पर ट्रंप जैसे नेता विक्टिम कार्ड खेलकर अपनी लोकप्रियता को और भी पुख्ता करने की चालें चलते हैं। ऐसे में बाइडन का दाँव उल्टा भी पड़ सकता है। ज़ाहिर है उन्हें बहुत फूँक-फूँककर क़दम रखना होगा। 

बाइडन अपनी सौम्यता और मेल-मिलाप की भावना से अमेरिकियों में राष्ट्रीय एकता का भाव जागृत करने की कोशिश करते दिख रहे हैं। उन्होंने विभिन्न सामाजिक वर्गों की नुमाइंदगी वाली एक बहुरंगी सरकार बनाई है, जो अपने आप में एक सकारात्मक संदेश देती है।

मगर सदिच्छाएं अकसर राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और तिकड़मबाज़ियों की अंधी गलियों में दम तोड़ देती हैं। उन्हें एक राजनीतिक परिवर्तन में तब्दील करके दिखाना बाइडेन के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। उन्हें ये साबित करना होगा कि ऐसी सरकार उनकी अपनी प्राथमिकता भर नहीं है, बल्कि बहुसंख्यक अमेरिकी भी यही चाहते हैं।

बदलनी होगी अमेरिका की छवि

बाइडन अब जिस तरह का अमेरिका बना पाएंगे, वैसी ही उसकी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा भी होगी। ट्रंप ने अमेरिका को जगहँसाई का पात्र बनाकर छोड़ा है। संसद पर हमले के बाद से चीन और रूस जैसे देश उस पर हँस रहे हैं, उसके मज़े ले रहे हैं। बाइडन को ये छवि बदलनी होगी और इसकी शुरुआत भी अमेरिका के अंदर से ही होनी है। उनका तख़्ता पलटने की कोशिश अमेरिकियों ने ही की थी। 

जहाँ तक लोकतांत्रिक देशों की बात है तो वे अमेरिका में सत्ता परिवर्तन को उम्मीद की नज़रों से देख रहे हैं। भारत, तुर्की, ब्राज़ील, इजरायल जैसे कई ऐसे देश हैं जहाँ स्पष्ट तौर पर लोकतंत्र ख़तरे में दिख रहा है। यहाँ की सरकारें लोकतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त कर रही हैं, असहमति और विरोध के हर स्वर को कुचलने पर आमादा हैं। ऐसे में अगर अमेरिका वापस लोकतंत्र की पटरी पर लौटता दिख रहा है तो ये स्वाभाविक ही है कि दुनिया भर में लोकतांत्रिक शक्तियों को हौसला मिलेगा। 

अमेरिकी लोकतंत्र का भविष्य एक तरफ अगर ट्रंपवादी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगने पर निर्भर करता है तो दूसरी ओर उसकी परीक्षा आर्थिक, सामाजिक और स्वास्थ्य के मोर्चों पर बाइडन सरकार के कामकाज पर है। इस लिहाज़ से पहले छह महीने उनके लिए बहुत भारी साबित होने जा रहे हैं। ध्यान रहे, पिछले राष्ट्रपतियों की तरह बाइडन के पास अधिक समय नहीं है खुद को साबित करने के लिए। 

बेरोज़गारी से निपटना होगा

हालाँकि बाइडन के लिए ये अच्छी बात है कि कोरोना की रोकथाम के लिए टीके लगने शुरू हो गए हैं और अगले तीन महीने में अमेरिका की बड़ी आबादी को टीके लग जाएंगे। इससे कोरोना के प्रसार पर काफी हद तक रोक लग जाएगी। लेकिन कोरोना ने लाखों परिवारों को आर्थिक बदहाली में धकेल दिया है। बेरोज़गारी चरम पर है और वह सामाजिक असंतोष एवं हिंसा को नई खुराक मुहैया करवा सकती है। इसलिए महामारी की वज़ह से पैदा हुए इन दुष्प्रभावों से निपटने के लिए एक बड़े आर्थिक पैकेज के अलावा भी बहुत कुछ करना पड़ेगा। 

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ट्रंप ने मेल-मिलाप के बजाय टकराव की नीतियाँ अख़्तियार की थीं और उससे अमेरिका को राजनीतिक एव आर्थिक दोनों स्तरों पर नुकसान हुआ है। ख़ास तौर पर उनकी अमेरिका फर्स्ट की नीति ने बड़ा नुक़सान किया है।

चीन के साथ व्यापार युद्ध चीन से ज़्यादा अमेरिका पर भारी पड़ रहा है। बाइडन चीन के साथ कैसे पेश आएंगे ये अभी स्पष्ट नहीं है। संभावना यही है कि अमेरिका के वर्चस्व को बचाने के लिए वे शीत युद्ध को आगे बढ़ाएंगे। अमेरिका के अंदर जो चीन विरोधी भावना भर दी गई है शायद उसकी वज़ह से रिश्ते सामान्य होने की उम्मीद नहीं रखी जा सकती।  

अलबत्ता ट्रंप द्वारा किए गए नुक़सान की भरपाई के लिए वे विश्व मंच पर भी मेल-मिलाप की दिशा में सक्रियता एवं स्पष्टता दिखा रहे हैं। पेरिस पर्यावरण समझौते और विश्व स्वास्थ्य संगठन में वापसी के साथ उन्होंने अपने इरादे साफ़ कर दिए हैं। जल्द ही ईरान के साथ परमाणु समझौते की भी बहाली होनी तय है। अपने यूरोपीय साझीदारों से रिश्ते सुधारने की प्रक्रिया उन्होंने शुरू कर दी है। ओबामाक़ालीन विदेश नीति फिर से अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय राजनीति को आकार देने लगी है।

ओबामा युग की वापसी! 

ये एक तरह से ओबामा युग में अमेरिका के वापस लौटने जैसा है। लेकिन ओबामा युग की बहुत सारी ख़ामियाँ भी थीं। ट्रंप के कुकर्मों की वज़ह से वह बहुत उजला दिखता है, मगर वास्तव में उस दौर में भी अमेरिका का रुख़ दादागीरी वाला रहा था। लोकतांत्रिक उदारता का मुखौटा तो उसने पहन रखा था, मगर दूसरे देशों के अंदरूनी मामलों में दखल देने की उसकी प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं लगा था। 

विश्व राजनीति को लोकतांत्रिक बनाने की दिशा में भी ओबामा ने ज़ुबानी जमा खर्च के सिवा कुछ ख़ास नहीं किया था। संयुक्त राष्ट्र और सुरक्षा परिषद में सुधार का एजेंडा वहीं का वहीं रहा। बाइडन उससे कुछ बेहतर कर पाएंगे या उससे हट पाएंगे, इसमें संदेह है। संदेह इसलिए है कि अमेरिकी साम्राज्य का अपना एक चरित्र है और उसे बदलने की इजाज़त उन्हें सत्ता प्रतिष्ठान नहीं देगा। 

हल करने होंगे सवाल    

स्पष्ट है कि बाइडन के सामने खाली ब्लैक बोर्ड नहीं है जिस पर वे अपनी मर्ज़ी से इबारतें लिख सकते हैं। बोर्ड पर तरह-तरह के पेचीदा सवाल लिखे हैं और बाइडन को वे हल करने हैं। इसके लिए उनके पास सीमित समय होगा और अगर उस अवधि में वे उत्तर न दे पाए तो उन्हें फेल घोषित कर दिया जाएगा। लेकिन ये असफलता उनकी भर नहीं होगी, ये समूचे अमेरिका की नाकामी होगी।