मोदी को नेहरू से कौन बचाएगा!
गणतंत्र की स्थापना यानी संविधान लागू किये जाने की हीरक जयंती का जश्न शुरू हुआ। दुनिया की नज़रें भारत पर टिक गईं। दुनिया ने ये देखकर ताली बजाई कि सबसे बड़े लोकतंत्र और स्वयंभू विश्वगुरू ने संसद में अपना पूरा वक्त उस नेता को गालियां देने में खर्च कर दिया जिसने इस देश में संसदीय लोकतंत्र की नींव रखी थी।
चालीस और पचास के दशक में एशिया से लेकर लैटिन अमेरिका और अफ्रीका तक जितने भी देश आज़ाद हुए, उनमें देखते-देखते लोकतंत्र का नामो-निशान मिट गया। सिर्फ भारत में प्रजातांत्रिक व्यवस्था बची रही। आखिर क्या फर्क था? सबसे बड़ा फर्क सत्ता के शीर्ष पर जवाहर लाल नेहरू जैसे किसी व्यक्ति के होने और ना होने का था।
ब्रिटिश राज से पहले जो भारत ग्लोबल जीडीपी में लगभग बीस फीसदी का योगदान करता था, वह आजादी के समय ठन-ठन गोपाल था। एक सुई तक बनाने तक की क्षमता नहीं थी। सत्तर प्रतिशत आबादी अनपढ़ थी। स्वास्थ्य सेवाओं का हाल ये था कि 1947 में एक भारतीय की औसत आयु 32 साल थी। आजादी से ठीक एक दशक पहले पड़े अकाल में लाखों भारतीय मर चुके थे और अन्न के लिए हमें दुनिया की तरफ देखना पड़ता था।
ऐसे में नेहरू ने भारत की बागडोर संभाली। दिल, लिवर, गुर्दा और मष्तिष्क जैसे अंग बनकर जिन संस्थाओं ने भारत को जीवित रखा, वो सब नेहरू अपने प्रधानमंत्रित्व के शुरुआती 11 सालों में बना चुके थे। सारे बड़े डैम, बड़े कारखाने या तो बन चुके थे या बनने की प्रक्रिया में थे।
चुनाव आयोग समेत संसदीय लोकतंत्र को मजबूत करने वाली तमाम संस्थाओं की नींव पड़ चुकी थी। पहले आम चुनाव हो चुके थे। विरोधी दलों के नेताओं को सरकार में शामिल करने की स्वस्थ परिपाटी शुरू की जा चुकी थी। राज्यों का पुनर्गठन हो चुका था जो भारत के राजनीतिक एकीकरण की दिशा में एक बहुत बड़ा कदम था।
आईटीटी, आईआईएम, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, एम्स और इसरो, जिन संस्थाओं पर आज भारत नाज करता है, वो सब नेहरू के कार्यकाल में बनाये गये। संस्थाओं के साथ-साथ नेहरू ने भारत को साइंटिफिक टेंपरामेंट दिया।
नेहरू ने भारत को जो राजनीतिक संस्कार दिये, उसे खुरच-खुरचकर मिटाने में बरसों लगे लेकिन अवशेष अब भी बाकी हैं।
संसद में चीन के मुद्दे पर जिन महावीर त्यागी ने नेहरू की सबसे तीखी आलोचना की थी, वो विपक्ष के नहीं बल्कि सत्तारूढ़ पार्टी के सदस्य थे। ऐसा सिर्फ नेहरू युग में ही संभव था। ये नेहरू के राजनीतिक संस्कारों का ही असर था कि वही महावीर त्यागी उनके निधन के बाद भी सरकार में शामिल किये गये।
ये नेहरू के राजनीतिक संस्कारों का ही असर था कि उनके निधन के 30 साल बाद नरसिंह राव की सरकार ने कश्मीर मामले में भारत का पक्ष रखने के लिए जो डेलिगेशन जेनेवा भेजा उसका नेता किसी सत्तारूढ़ नहीं बल्कि विरोधी दल के अटल बिहारी वाजपेयी को बनाया।
ब्रह्मांड के सबसे बड़े नेता नरेंद्र दामोदार दास मोदी अपने प्रधानमंत्रित्व के 11 साल पूरे कर चुके हैं। उन्हें देश की संसद को ये बताना चाहिए था कि उन्होंने 11 साल में कौन सी ऐसी एक संस्था बनाई है, जिसकी तुलना नेहरू काल में हुए असंख्य कामों से की जा सके। कायदा यही था कि मोदी अपने शुरुआती 11 साल की तुलना नेहरू के 11 बरसों से कर लेते। लेकिन मोदी ने ऐसा नहीं किया।
आखिर मोदी संसद में अपनी 11 साल की उपलब्धियों के बारे में कुछ कहते तो क्या कहते? क्या वो यह बताते कि नेहरू ने संसदीय लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए जो संस्थाएं बनाई थीं, उनका अपहरण करने के लिए मैंने नई तरकीबों का आविष्कार किया है? क्या मोदी ये बताते कि मैंने इस देश में संगठित अपराध तंत्र की नींव रखी है और हरेक संस्था को इसमें अपना सहभागी बनाया है? क्या मोदी ये बताते कि नेहरू ने जो कंपनियां बनाई थीं, उन्हें मैं एक-एक करके बेच रहा हूं लेकिन लिस्ट इतनी लंबी है कि अगले बीस साल तक खत्म नहीं होगी।
कालचक्र अपनी गति से घूमता है और इतिहास बेहद निर्मम होता है। जैसे-जैसे वक्त बीतता जाएगा नरेंद्र मोदी नेहरू के सामने खुद को और ज्यादा निहत्था और असहाय पाएंगे और कुंठा के कीचड़ में आपादमस्तक धंसते चले जाएंगे। करोड़ों रुपये का बजट, किराये के स्वयंभू बुद्धिजीवी और विशाल ट्रोल आर्मी ये सब मिलकर मोदी को इस गर्त से नहीं निकाल पाएंगे।