3 सितम्बर 2021 को जब मैंने एनडीटीवी को इंटरव्यू दिया था तो मुझे मालूम नहीं था कि मेरी बातों पर इस तरह की तीखी प्रतिक्रिया पैदा होगी। एक तरफ़ कुछ लोगों ने बड़े कड़े शब्दों में अपनी नाराज़गी और ग़ुस्से का इज़हार किया है, और दूसरी तरफ़ देश के हर कोने और इलाक़े से लोगों ने मेरी बात की तस्दीक की है, मेरे नज़रिए से सहमति जताई है। मैं उन सब का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा, पर उससे पहले मैं उन आरोपों और अभियोगों का जवाब देना चाहूँगा जिन्हें मेरे इंटरव्यू से नफ़रत करने वालों ने मुझ पर लगाया है। क्योंकि इलज़ाम लगाने वाले हर एक इन्सान को अलग-अलग जवाब देना संभव नहीं है, मैं यहाँ एक समवेत जवाब दे रहा हूँ।
मेरे आलोचकों का इलज़ाम है कि मैं हिन्दू दक्षिणपंथियों की आलोचना तो करता हूँ, मगर कभी मुसलिम उग्रपंथियों के ख़िलाफ़ नहीं बोलता। उनका अभियोग है कि मैं तीन-तलाक़, पर्दे-हिजाब, और मुसलमानों के दूसरे पिछड़ेपन के दस्तूरों के बारे में कभी कुछ नहीं बोलता। मुझे कोई आश्चर्य नहीं कि इन लोगों को मेरे बरसों से किये इन कामों का ज़रा भी इल्म नहीं है। आख़िरकार मैं इतना महत्वपूर्ण व्यक्ति तो नहीं हूँ कि सब को मेरे क्रिया-कलापों की ख़बर हो जो मैं लगातार करता रहा हूँ।
दरअसल सचाई यह है कि पिछले दो दशकों में दो बार मुझे पुलिस की सुरक्षा दी गयी क्योंकि मुझे मुसलिम चरमपंथियों की ओर से जान की धमकियाँ दी जा रही थीं। पहली बार यह तब हुआ जब मैंने ‘तीन तलाक़’ का पुरजोर विरोध तब किया था, जब यह विषय राष्ट्र के सामने उछला भी नहीं था। किन्तु उसी समय से मैं, ‘मुस्लिम्स फ़ॉर सेक्युलर डेमोक्रेसी’ नाम के संगठन के साथ भारत के बहुत से शहरों – जैसे हैदराबाद, इलाहाबाद, कानपुर, अलीगढ़- जाकर इस पुरातनपंथी रूढ़ि के ख़िलाफ़ बोल रहा था। इसका नतीजा यह हुआ कि मुझे जान की धमकियाँ मिलने लगीं, और मुंबई के एक अख़बार ने उन धमकियों के अपने एक अंक में साफ़-साफ़ दोहराया भी। उन दिनों के मुंबई के पुलिस-कमिश्नर श्री ए. एन. रॉय ने उस अख़बार के संपादक और प्रकाशक को तलब करके यह कहा कि अब अगर मुझ पर कोई हिंसक हमला हुआ, तो उसका ज़िम्मेदार मुंबई पुलिस उस अख़बार को ही मानेगी।
सन 2010 में, एक टीवी चैनल पर एक जाने-माने मुसलिम मौलाना कल्बे जवाद से मेरा एक वाद-विवाद हिजाब-बुर्क़े की सड़ी-गली परंपरा के बारे में हुआ। उसके बाद वो मौलाना साहब मुझसे इतने नाराज़ हो गए कि कुछ ही दिनों में लखनऊ में मेरे पुतले जलाए जाने लगे और मुझे मौत की धमकियाँ मिलने लगीं। उस वक़्त फिर से मुझे मुंबई पुलिस ने सुरक्षा कवच दिया। इसलिए मुझ पर यह इलज़ाम कि मैं चरमपंथी मुसलमानों के ख़िलाफ़ खड़ा नहीं होता, सरासर ग़लत है।
कुछ ने मुझ पर तालिबान को महिमामंडित करने का आरोप लगाया है। इससे अधिक झूठ और बेतुकी कोई बात हो ही नहीं सकती। तालिबान और तालिबानी सोच के लिए मेरे पास निंदा और तिरस्कार के अलावा कुछ और है ही नहीं। मेरे एनडीटीवी साक्षात्कार से एक सप्ताह पूर्व, 24 अगस्त को मैंने अपने ट्वीट में लिखा था,
“यह चौंकाने वाली बात है कि मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड के दो सदस्यों ने अफ़ग़ानिस्तान में बर्बर तालिबान के काबिज़ होने पर खुशी जताई है। हालाँकि संगठन ने खुद को इस बयान से दूर रखा है, किन्तु इतना काफ़ी नहीं है, और यह ज़रूरी है कि मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड इस विषय पर अपना दृष्टिकोण साफ़ करे।”
मैं यहाँ अपनी बात को दोहरा रहा हूँ, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि हिंदू दक्षिणपंथी लोग इस झूठ के परदे के पीछे छिपें कि मैं मुसलिम संप्रदाय की दक़ियानूसी पिछड़ी प्रथाओं के विरोध में खड़ा नहीं होता।
उन्होंने मुझ पर हिन्दुओं और हिंदू-धर्म की अवमानना करने का अभियोग भी लगाया है। इस आरोप में रत्ती भर भी सच नहीं है। सच यह है कि अपने इंटरव्यू में मैंने साफ़ कहा है कि पूरी दुनिया में, “हिंदू जनसमुदाय सबसे सज्जन और सहिष्णु बहुसंख्यक समाज है।” मैंने इस बात को बार-बार दोहराया है कि हिन्दुस्तान कभी अफ़ग़ानिस्तान जैसा नहीं बन सकता क्योंकि भारतीय लोग स्वभाव से ही अतिवादी नहीं हैं, और मध्यमार्ग और उदारता हमारी नस-नस में समाई है।
आपको हैरानी होगी कि मेरे यह मानने और कहने के बावजूद क्यों कुछ लोग मुझसे नाराज़ हैं? इसका उत्तर यह है कि मैंने साफ़ शब्दों में हर प्रकार के दक्षिणपंथी-अतिवादियों, कट्टरपंथियों और धर्मांध लोगों की भर्त्सना की है, फिर वो चाहे जिस धर्म-मज़हब-पंथ के हों। मैंने जोर देकर कहा है कि धार्मिक-कट्टरवादी सोच चाहे जिस रंग की हो उसकी मानसिकता एक ही होती है।
हाँ, मैंने अपने साक्षात्कार में संघ और उसके सहायक संगठनों के प्रति अपनी शंका ज़ाहिर की है। मैं हर उस सोच के ख़िलाफ़ हूँ जो लोगों को धर्म-जाति-पंथ के आधार पर बांटती हो, और मैं हर उस व्यक्ति के साथ हूँ जो इस प्रकार के भेदभाव के ख़िलाफ़ हो। शायद इसीलिए सन 2018 में देश के सबसे पूज्य-मान्य मंदिरों में से एक, काशी के ‘संकट मोचन’ हनुमान मंदिर ने मुझे आमंत्रित कर मुझे ‘शांति दूत’ की उपाधि दी और मुझ जैसे ‘नास्तिक’ को मंदिर में व्याख्यान देने का दुर्लभ सौभाग्य भी दिया।
मेरे विरोधी इस बात से भी उत्तेजित हैं कि मुझे तालिबानी सोच और हिंदू-चरमपंथियों के बीच बहुत समानता दीखती है। तथ्य यह है कि दोनों की सोच में समानता है ही। तालिबान ने एक मज़हब पर आधारित इसलामी सरकार बना ली है, और हिंदू दक्षिणपंथी भी एक धर्माधारित हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। तालिबान औरतों के हक़ और स्वतंत्रता को ख़तम कर उन्हें हाशिये पर लाना चाहता है, और हिन्दू चरमपंथियों को भी औरतों की आज़ादी पसंद नहीं है। उत्तर प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक में युवक-युवतियों को सिर्फ़ इसलिए मारा-पीटा गया है कि वो साथ-साथ किसी पार्क या रेस्टोरेंट में देखे गए हैं। मुसलिम और हिंदू दोनों चरमपंथियों को यह हज़म नहीं होता कि कोई लड़की अपनी पसन्द से किसी और धर्म के आदमी से शादी कर ले।
हाल में ही एक बड़े नामी दक्षिणपंथी नेता ने बयान दिया कि महिलाएँ स्वतंत्र होने और अपने फ़ैसले खुद लेने लायक नहीं है। तालिबान की तरह ही हिंदू चरमपंथी भी अपनी ‘आस्था’ को किसी भी मनुष्य के बनाए नियम-क़ानून और संविधान से ऊपर मानते हैं।
तालिबान किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय के अस्तित्व और हक़ों को नहीं मानता। हिंदू चरमपंथी भी अपने देश के अल्पसंख्यकों के प्रति जो भावना रखते हैं उसका पता उनके बयानों, नारों, और जब मौक़ा मिले तो उनके कर्मों से जग-ज़ाहिर होता ही रहता है।
तालिबान और हमारे चरमपंथियों के बीच अंतर सिर्फ़ इतना है कि तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान में अपना एकछत्र शासन जमा लिया है, और भारत में हमारे चरमपंथियों की भारतीय संविधान-विरोधी ‘तालिबानी’ सोच की ज़बरदस्त मुखालिफ़त होती रहती है। हमारे संविधान में धर्म, जाति, पंथ और लिंग के आधार पर भेद की जगह नहीं है, और हमारे देश में न्यायालय और मीडिया जैसी संस्थाएँ अभी ज़िंदा हैं। बड़ा अन्तर सिर्फ़ इतना है कि तालिबान अपने मक़सद में सफल हो गया है, और हिन्दू दक्षिणपंथी वहाँ पहुँचने के प्रयास में लगे हैं। ख़ुशक़िस्मती से यह भारत है, जहाँ के नागरिक इन प्रयासों को असफल करके ही दम लेंगे।
कुछ लोग मेरी इस बात से भी नाखुश हैं कि मैंने अपने इंटरव्यू में ज़िक्र किया है कि श्री एम. एस. गोलवलकर ने नाज़ियों और अल्पसंख्यकों से निपटने के नाज़ी तरीक़ों की भी तारीफ़ की है। श्री गोलवलकर 1940 से 1973 तक संघ के मुखिया थे, जिन्होंने दो पुस्तकें भी लिखी थीं, “वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड” और “अ बंच ऑफ़ थॉट्स”। ये दोनों किताबें इन्टरनेट पर आसानी से उपलब्ध हैं। पिछले कुछ समय से उनके शिष्यों ने पहली किताब के बारे में यह कहना शुरू कर दिया है कि यह गुरुजी की किताब नहीं है। उन्हें ऐसा इसलिए करना पड़ा क्योंकि बड़े से बड़ा धर्मांध व्यक्ति भी उस किताब में लिखी बातों का आज समर्थन नहीं कर पायेगा। उनका कहना है कि ग़लती से गुरुजी का नाम उस किताब से जुड़ गया। हालाँकि कई वर्षों से उसके बहुत संस्करण छपते रहे और तब कभी किसी ने कोई बात नहीं की।
“वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड” सन 1939 में प्रकाशित हुई थी और स्वयं गुरुजी सन 1973 तक संसार में विद्यमान थे, और 34 वर्षों में उन्होंने कभी इस पुस्तक का खंडन नहीं किया। इसका अर्थ हुआ कि उनके चेलों द्वारा अब इस किताब का खंडन केवल राजनीतिक मजबूरी है। इस किताब से एक उद्धरण देखिये:
“वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड” (पृष्ट 34-35; पृष्ठ 47-48)
“अपनी नस्ल और संस्कृति को विशुद्ध रखने के लिए जर्मनी ने विधर्मी यहूदियों का सफ़ाया करके दुनिया को अचंभित कर दिया। अपनी नस्ल-प्रजाति पर गर्व का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है जर्मनी। जर्मनी ने यह भी सिद्ध कर दिया कि मूल से ही विपरीत नस्लों और संस्कृतियों का साथ रहना और एक होना कितना असंभव है। इस सबक से हम भारतीय लोग कितना कुछ सीख कर लाभान्वित हो सकते हैं....
“भारत में रह रहे विदेशी नस्ल के लोगों (क्रिस्तानों और मुसलमानों) को या तो हिन्दू सभ्यता, भाषा और हिन्दू धर्म को सीखना और उसका आदर करना पड़ेगा, और यह भी कि हिन्दू जाति और संस्कृति की वो इज्ज़त करें, अर्थात वो हिन्दू राष्ट्र को मानें... और अपनी पृथक पहचान को भूल कर वो हिंदू प्रजाति में समाहित हो जाएँ और तभी इस देश में रहें। उन्हें किसी प्रकार के अलग विशेषाधिकारों की बात तो छोड़िये, किसी तरह के नागरिक अधिकार भी नहीं मिलने चाहिए।”
“अ बंच ऑफ थॉट्स” (पृष्ठ 148-164, और 237-238, भाग 2, अध्याय षष्ठम)
“आज भी सरकार में उच्च पदों पर आसीन मुसलमान और दूसरे भी राष्ट्रविरोधी सम्मेलनों में खुलेआम बात करते हैं...
“...कई प्रमुख ईसाई मिशनरी पादरियों ने साफ़ कहा है कि उनका उद्देश्य इस देश को ‘प्रभु येशु का क्रिस्तान साम्राज्य बनाने का है’...”
दोनों उद्धरण अपने आप में स्पष्ट हैं।
बड़े मज़े की बात है कि मुझसे नाराज़ हिन्दू दक्षिणपंथियों के एक वरिष्ठ नेता ने स्वयं महाराष्ट्र विकास अघाड़ी की सरकार को ‘तालिबानी’ कहा है। महाराष्ट्र का शासन बड़े सुचारू ढंग से चलाने वाली सरकार में शामिल तीन पार्टियों में से किसी का मैं सदस्य नहीं हूँ। किन्तु इतना स्पष्ट है कि आज महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री श्री उद्धव ठाकरे की लोकप्रियता और सुशासन की तुलना बंगाल में ममता बनर्जी और तमिलनाडु में स्टालिन से की जाती है। उनके सबसे कठोर आलोचक भी उनपर किसी प्रकार के भेदभाव या अन्याय का आरोप नहीं लगा सकते। कैसे कोई श्री उद्धव ठाकरे की सरकार को ‘तालिबानी’ कह सकता है, यह मेरी समझ से परे है।