जम्मू-कश्मीर में लगातार आतंकवादी हमले क्यों हो रहे हैं?
जम्मू और कश्मीर से लगातार जो ख़बरें आने लगीं ये चिंता से भी ज्यादा डर पैदा करती हैं। डर इस बात का नहीं है कि हमारी फौज के जवानों का हौसला पस्त होगा या हमारी सरकार ही कमजोर पड़ जाएगी और आतंकियों तथा उनके पीछे बैठे उनके पाकिस्तानी आकाओं का हौसला इतना बढ़ जाएगा कि वे हमें लंबे समय तक भारी परेशान कर देंगे। लेकिन जो कुछ हो रहा है वह इतना तो बताता ही है कि आतंकियों ने हथियार नहीं डाला है, पाकिस्तान से घुसपैठ हो रही है, पाक मदद जारी है और हमारे अपने कश्मीरी समाज से आतंकियों को मदद मिले न मिले लेकिन हमारे खुफिया तंत्र को उनसे ज़रूरी सूचनाएं नहीं मिल रही है। ऐसा जाना-बूझकर हो रहा है या फौजी उपस्थिति का दबदबा और खौफ ऐसा करा रहा है, यह मालूम नहीं है। लेकिन खुफिया सूचनाओं में फौजी तंत्र को पर्याप्त फ़ीड नहीं है, तभी हमले हो रहे हैं। कठुआ के बनडोटा गाँव के पास आतंकियों ने जिस तरह घात लगाकर फौजी वाहन पर हमला किया और चार जवानों को मारने के साथ ही अनेक को घायल कर दिया उसमें उनको एक स्थानीय आतंकी के पूरा सहयोग मिलने की बात सामाने आ रही है।
पर उससे ज्यादा चिंता की बात यह है कि इस बार घाटी से भी ज्यादा वारदातें जम्मू इलाके में हो रही हैं। अकेले जून में ही चार बड़ी वारदातें जम्मू इलाके में हो चुकी हैं। बल्कि मई में तो वायु सेना के दो हेलीकॉप्टरों तक को निशाना बनाया गया जिसमें एक जवान शहीद हो गया। कठुआ के ही हीरन नगर में सेदा सोहल गाँव में जब फौज और आतंकियों की मुठभेड़ हुई तो केन्द्रीय रिजर्व पुलिस का एक जवान और दो आतंकी मारे गए थे। बनडोटा में कई जवान घायल हैं और लेख के लिखे जाने तक भी आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई जारी थी। दो जवान गंभीर रूप से घायल थे और उनको बिलावर के अस्पताल में भेजा गया था।
उल्लेखनीय है कि जम्मू इलाके को अपेक्षाकृत शांत मानकर वहां से फौज की संख्या कम की गई थी और यह रिपोर्ट भी है कि पाकिस्तान से जिन 70 से 80 आतंकियों के घुसपैठ का अनुमान है उनमें से ज्यादातर अभी इसी इलाके में हैं। वे चार-चार, पाँच-पाँच की टोली बनाकर अपनी गतिविधियां चला रहे हैं। और यह बताने का मतलब नहीं है कि वे घाटी को छोड़ गए हैं। और जब बर्फ पड़ेगी तो घाटी वाली सीमा ही उनके लिए घुसपैठ का रास्ता बनती है।
जम्मू-कश्मीर और खास तौर से जम्मू क्षेत्र को आतंकी क्यों वारदातों के लिए चुन रहे हैं, इसको समझना मुश्किल नहीं है। धारा तीन सौ सत्तर हटे और राज्य का विभाजन हुए पाँच साल होने को आए हैं, और सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला है कि सितंबर के पहले जम्मू और कश्मीर में चुनाव हो जाने चाहिए। राज्य में विधानसभा की सीटों के पुनर्गठन का काम भी पूरा हो चुका है और इसे लेकर भी हल्की नाराज़गी है।
आतंकवादियों की गतिविधियों से इस चुनाव का साफ़ रिश्ता है। हमने यह भी देखा है कि लंबा चले लोकसभा चुनाव में भी आतंकी घटनाएँ बढ़ने लगी थीं। यहाँ हम लद्दाख क्षेत्र के चुनाव और राज्य का बँटवारा करने वाली पार्टी के प्रदर्शन की चर्चा नहीं करेंगे। जम्मू और कश्मीर घाटी में राज्य का बंटवारा मुद्दा था और उससे भी उल्लेखनीय खुद चुनाव था जिसमें लोगों की भागीदारी तो ठीकठाक हुई लेकिन स्थापित दलों की हालत ख़राब रही। बड़े-बड़े नेता ढेर रहे।
नेशनल कांफ्रेस-कांग्रेस गठबंधन तथा पीडीपी के नेता तो चुनाव लड़े और हारे लेकिन भाजपा और उसके दुलारे गुलाम नबी आजाद की पार्टी तो घाटी के चुनाव मैदान में उतारने से डर गई और मैदान ही छोड़ दिया। लोगों ने मतदान में हिस्सा लेकर जिन्हें जिताया और जिन्हें हराया उन सबके माध्यम से अपना जनादेश साफ दिया।
पर केंद्र में बैठे नेताओं ने इस जनादेश को ठीक समझा हो, ऐसा नहीं लगता। हार या जीत को सीधे फेस करने और चुनाव में हिस्सा लेकर जो संदेश दिया जा सकता था (राजीव-फारुख समझौते के बाद हुए चुनाव में अपनी पराजय के बाद राजीव गांधी ने बड़ी शालीनता से जनादेश को स्वीकार किया था)। रक्षा मंत्री और गृह मंत्री तो यह बयान भी देते रहे कि पाक अधिकृत कश्मीर खुद ब खुद हमारी ओर आने वाला है क्योंकि हमने जो उपलब्धियां हासिल की हैं (और पाकिस्तान कटोरा लेकर घूम रहा है) उसे देखकर ही कश्मीरी लोग लट्टू हो गए हैं। अभी तक राज्य में लाखों की संख्या में जवान तैनात हैं। निश्चित रूप से इसके चलते पहले की तुलना में हाल तक ज़्यादा शांति रही है। उनके ख़र्च की बात छोड़ भी दें तो निवेश से लेकर शेष देश के जुड़ाव के जो सपने दिखाए गए थे, वे कहां हैं यह कोई भी पूछ सकता है। चुनाव में भी इस तरह के पिटे मोहरों और भगोड़े दस्तों पर लोग कितना भरोसा करेंगे, कहना मुश्किल है। चुनाव कराने के क्रम में ऐसी सख्ती नहीं रखी जा सकती। आतंकी इस ताक में थे और हथियार-गोला-बारूद तथा प्रशिक्षण पा रहे थे। वारदातें बढ़ना उसी का प्रमाण है। और याद रखें कि अब सामान्य गैर मुसलमान लोग या प्रवासी निशाने पर नहीं हैं। रियासी में तीर्थयात्रियों वाली बस को निशाना बनाने तक ऐसी रणनीति दिखती थी। अब तो सीधे फौज के लोग निशाने पर हैं।
एक थ्योरी यह चल रही है कि पाक अधिकृत कश्मीर में वहां के एक रिटायर ब्रिगेडियर और आईएसआई के ऑपरेटर आमीर हमजा समेत 21 कश्मीरी आतंकियों की रहस्यमय हत्या के बाद से ही ये वारदातें और घुसपैठ बढ़ी हैं। हमजा 2018 में सुनजवाँ सैनिक कैंप पर हमले से जुड़ा था। उसकी और इन 21 लोगों की हत्या कुछ अनाम बंदूकधारियों ने कर दी थी। ये हत्यारे कौन थे, इसकी तरह तरह की व्याख्या है, पर न तो किसी ने इसका श्रेय लेने का दावा किया है और न कोई पक्के प्रमाण ही सामने आए हैं। कहा जाता है कि इसके बाद से ही आईएसआई ने लश्करे-तैयबा के कमांडर सैफुला सज्जाद जट्टा, जो उसके एक दस्ते का नेतृत्व कर रहा है, को इसका बदला लेने का जिम्मा सौंपा है। घटनाएँ इसी चलते बढ़ी हैं। अब इस थ्योरी को मानने का मतलब पीओके में रॉ की गतिविधियों को बड़ा और सही मानना होगा। पर बीच चुनाव में ऐसा होगा, यह अविश्वसनीय लगता है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)