देश में इन दिनों 'कश्मीर फ़ाइल्स' नामक मूवी की बड़ी चर्चा हो रही है लेकिन सुप्रीम कोर्ट में कश्मीर की एक फ़ाइल कोई ढाई साल से पड़ी है, उसकी चर्चा कोई नहीं कर रहा।
यह फ़ाइल है केंद्र के उन फ़ैसलों की जिनके तहत जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू अनुच्छेद 370 को निष्क्रिय कर दिया गया था, राज्य को दो हिस्सों में बाँट दिया गया था, उनका दर्जा घटा दिया गया था। वहाँ के लोगों के नागरिक अधिकारों को छीन लिया गया था। ऐसे कई सारे मुद्दे हैं मगर सुप्रीम कोर्ट है कि शुरुआती सुनवाई करने के बाद पिछले दो साल से इन फ़ाइल के पन्ने ही पलट नहीं रहा।
जब केंद्र ने 5-6 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 को निष्क्रिय करने के बाद राज्य के दो टुकड़े करने की तरफ़ क़दम बढ़ाया था तो कुछ याचिकाकर्ता कोर्ट के पास इसे रुकवाने के लिए गए थे। यह 1 अक्टूबर 2019 की बात है। तब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र के क़दम पर रोक लगाने से इनकार करते हुए कहा था कि याचिकाकर्ता चिंता न करें, कोर्ट घड़ी की सुइयाँ पीछे भी करवा सकता है। लेकिन घड़ी की सुइयाँ पीछे होना तो दूर, लगता यह है कि सुप्रीम कोर्ट में ही घड़ी के काँटे रुक गए हैं। ढाई साल में सुप्रीम कोर्ट ढाई कोस भी नहीं चला है।
यह बिल्कुल ही हैरत की बात है कि देश की शीर्ष अदालत जो किसी राज्य सरकार की बर्ख़ास्तगी के मामले में 24 घंटे से कम समय में हस्तक्षेप करती है, वह एक राज्य में हुए इतने बड़े संवैधानिक उलटफेर पर ख़ामोशी अख़्तियार किए हुए है, वह भी एक ऐसे मामले में जिसके साथ संविधान के कई अनुच्छेद, कई संधियाँ और जम्मू-कश्मीर की जनता और जन-प्रतिनिधियों से किये गए कई-कई वादे जुड़े हुए हैं।
सुप्रीम कोर्ट के जज संविधान के मसलों को हमसे लाख गुना बेहतर जानते हैं लेकिन एक नागरिक के तौर पर जो भी थोड़ी-बहुत समझ हम में हैं, उसके तहत हम और हमारे जैसे कई लोग महीनों से इन चंद सवालों के जवाब की प्रतीक्षा कर रहे हैं। हम कोर्ट से जानना चाहते हैं कि
- क्या जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाला अनुच्छेद 370 को पूरी तरह निष्क्रिय किया जा सकता है? अप्रैल 2018 में ही सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच कह चुकी थी कि चूँकि जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा 1957 में ही विसर्जित हो गई और वही इस अनुच्छेद को समाप्त करने के बारे में सहमति दे सकती थी, इसलिए यह अनुच्छेद संविधान की दृष्टि से अमर है। यह तो थी दो जजों की राय। आप पाँच जजों की इसके बारे में क्या राय है?
- सरकार ने अगस्त 2019 में अनुच्छेद 367 में सुधार करके यह जुड़वा दिया है कि अनुच्छेद 370 के खंड 3 में उल्लिखित संविधान सभा का अभिप्राय वर्तमान संदर्भों में राज्य की विधानसभा है और हम इसे तर्क के तौर पर मान लेते हैं क्योंकि दोनों ही जनता द्वारा चुनी गई संस्थाएँ हैं। तो क्या अनुच्छेद 370 को निष्क्रिय करने के लिए जम्मू-कश्मीर विधानसभा की राय ली गई थी? आप जानते हैं कि नहीं ली गई थी क्योंकि तब वहाँ राज्यपाल का शासन था। क्या ऐसे में सरकार का क़दम वैधानिक है? आपकी इसके बारे में क्या राय है?
- केंद्र सरकार ने यह क़दम उठाते समय अनुच्छेद 367 में एक चौथा खंड जोड़ दिया था ताकि जम्मू-कश्मीर के मामले में राज्यपाल को भी सरकार माना जाए। क्या आपको लगता है कि राज्यपाल किसी राज्य की जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है? क्या आपको लगता है कि अनुच्छेद 367 में जो भी बदलाव किए गए हैं, वे अनुच्छेद 370 की आत्मा के तहत वाजिब हैं?
- आपको मालूम है कि भारत में जम्मू-कश्मीर का विलय एक संधि के तहत हुआ था और उस विलय पत्र में दर्ज़ था कि विलय के बाद केंद्र और राज्य के पास क्या-क्या अधिकार होंगे। आपको यह भी मालूम है कि अनुच्छेद 370 उस विलय पत्र की शर्तों के अनुसार ही तैयार किया गया था। ऐसे में क्या आपको लगता है कि राज्य की जनता की सहमति के बग़ैर और केवल संसद में बहुमत के दम पर विलय पत्र की उन शर्तों को तोड़ा जा सकता है?
हम नहीं मानते कि सुप्रीम कोर्ट इतने महत्वपूर्ण संवैधानिक मामलों की अहमियत नहीं समझ रहा। लेकिन फिर सवाल उठता है कि मामले की सुनवाई में देर क्यों हो रही है।
देरी क्यों हो रही है, यह हमें नहीं मालूम और हम इसके बारे में कोई अटकलबाज़ी नहीं करेंगे। लेकिन देरी हो रही है, यह तो स्पष्ट है। अंग्रेज़ी में एक कहावत याद आती है - justice delayed is justice denied - इंसाफ़ में देरी इंसाफ़ नहीं करने के बराबर है।