क्या कृषि क़ानून केवल कारपोरेट घरानों को फ़ायदा पहुँचाने के लिए हैं? क्या इसका कोई वैचारिक आधार भी हो सकता है? क्या मोदी सरकार की कारपोरेटपरस्त आर्थिक नीति के पीछे कोई समाजनीति भी है?
दरअसल, पूरी दुनिया का दक्षिणपंथ कारपोरेट हितैषी माना जाता है। बदले में कारपोरेट शक्तियाँ दक्षिणपंथी सत्ता को पालती-पोसती हैं। स्वाधीनता आंदोलन और नेहरू-आंबेडकर के समाजवादी विचारों और नीतियों के प्रभाव के कारण भारत में दक्षिणपंथ सीधे तौर पर कारपोरेट के साथ दाखिल नहीं हुआ।
1980 में स्थापित बीजेपी ने गांधीवादी समाजवाद को अपनी विचारधारा घोषित किया। लेकिन सच यह है कि बीजेपी का न गांधीवाद से कोई लेना-देना है और न समाजवाद से। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आवरण में कारपोरेट भक्ति और अतीतजीवी हिन्दू धर्म की व्यवस्था का सपना सज रहा था। जैसे-जैसे बीजेपी मज़बूत होती गई, उसका आवरण हटता गया।
अटल-आडवाणी की बीजेपी पर लगे गांधीवादी समाजवाद के मुखौटे को नरेंद्र मोदी ने उतार फेंका। हिंदुत्व मोदी-शाह की बीजेपी का खुला एजेंडा बना। खुलेआम सांप्रदायिक राजनीति के दम पर एक कट्टर हिंदुत्व की छवि के रूप में नरेंद्र मोदी का उभार हुआ। गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने पूँजीपतियों के साथ व्यक्तिगत दोस्ती की।
पूँजीपतियों के हित में नीतियाँ बनाकर नरेंद्र मोदी ने प्राकृतिक संसाधनों और सरकारी संपत्ति को कारपोरेट के हवाले किया। इस फायदे के बदले में कारपोरेट जगत ने मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए अपने तमाम साधनों का इस्तेमाल किया। इसमें सबसे बड़ी भूमिका कारपोरेट मीडिया की रही। ब्रांडिंग के ज़रिए कारपोरेट मीडिया ने नरेंद्र मोदी की विकास पुरुष वाली एक मज़बूत नेता की छवि गढ़ी। इसका फायदा मोदी को मिला।
2014 के लोकसभा चुनाव में मीडिया का सबसे बड़ा हिस्सा मोदी के समर्थन में खड़ा हुआ। भारत की राजनीति में तीन दशक बाद नरेंद्र मोदी को पूर्ण बहुमत मिला। 2019 के लोकसभा चुनाव में कारपोरेट मीडिया का पहले से बड़ा हिस्सा पूरी बेशर्मी के साथ नरेंद्र मोदी का खुलकर समर्थन कर रहा था। मोदी ने पिछले चुनाव से भी बड़ी जीत दर्ज की।
मोदी ने कारपोरेट के साथ अपने रिश्तों को कभी छिपाया भी नहीं। आलोचना होने पर उन्होंने महात्मा गाँधी और बिरला के रिश्तों का उदाहरण देते हुए कारपोरेट के साथ अपने रिश्तों को महिमामंडित करने की कोशिश की।
अंबानी और अडानी के साथ उनके रिश्तों की झलकियाँ कई बार पूरे हिंदुस्तान ने देखीं। विज्ञापन के अंदाज़ में जिओ का उद्घाटन करने में मोदी ने संकोच नहीं किया। अडानी ग्रुप का देश में पसरता क़ारोबार बीजेपी सरकार की नीतियों और नरेंद्र मोदी की विशेष कृपा का ही परिणाम है।
अब मूल सवाल पर लौटते हैं। क्या कृषि क़ानून केवल कारपोरेट को फ़ायदा पहुँचाने के लिए हैं या इसके मायने कुछ और भी हैं? क्या हिंदुत्व से इसका कोई संबंध है? वी. डी. सावरकर के अनुसार हिंदुत्व हिंदुओं की राजनीतिक विचारधारा है। यह हिंदू राष्ट्र की वैचारिकी है। जबकि डॉ. आंबेडकर का कहना था कि हिंदू कभी राष्ट्र हो ही नहीं सकता। दरअसल, हिंदू श्रेणी क्रम में स्थापित जातियों का एक समुच्चय मात्र है। हिंदुत्व का आधार वर्ण है। वर्ण व्यवस्था के अनुसार, सत्ता और संसाधनों पर केवल द्विजों का अधिकार है। धन-संपत्ति, शस्त्र-शास्त्र तथा राज्य और ज्ञान की सत्ता मूल रूप से द्विजों के पास होनी चाहिए। शूद्र तो सेवक मात्र है।
अतीत में शूद्र जातियों का पेशा दस्तकारी और किसानी करना था। यही उनके जीवन का आसरा था। जबकि अतिशूद्र या अछूत जातियाँ स्वच्छता के पेशे में थीं। नीच माने जाने वाले तमाम काम अछूत करते थे। हिंदू राष्ट्र के विचार में इस नीच काम को आज भी न्यायसम्मत ठहराया जाता है। 2007 में नरेंद्र मोदी ने अपनी किताब 'कर्मयोगी' में लिखा,
‘मैं नहीं मानता कि वाल्मीकि तबक़ा मेहतरी का काम सिर्फ़ रोज़ी-रोटी कमाने के लिए करता है। अगर ऐसा होता तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसी क़िस्म के काम को जारी नहीं रखता। ...कभी किसी के दिमाग़ में इस ज्ञान का उदय हुआ होगा कि वाल्मीकि तबक़े का फ़र्ज़ है कि वो पूरे समाज और देवताओं के सुख के लिए काम करे। देवताओं ने जो उन्हें काम सौंपा है वह उन्हें करना पड़ेगा- यही सफ़ाई का काम, सदियों तक, अंदरूनी रूहानी गतिविधि की तरह।’
आलोचना होने पर बाज़ार से किताब की क़रीब पाँच हज़ार प्रतियाँ हटा ली गईं। लेकिन मोदी अपने विचार पर क़ायम रहे।
2009 में उन्होंने पुजारी और मेहतर के काम को 'समान' बताते हुए कहा, 'पुजारी पूजा से पहले मंदिर साफ़ करता है तो दलित शहर को मंदिर की तरह।' अर्थात आध्यात्मिक सुख के लिए दलित सफ़ाई करते हैं।
संवैधानिक दृष्टिकोण से आज शूद्र जातियाँ ओबीसी और अछूत जातियाँ दलित या एससी कहलाती हैं। ओबीसी जातियाँ मुख्य रूप से किसान हैं। आज़ादी के बाद ज़मींदारी उन्मूलन और सिंचाई के साधनों के बढ़ने से खेती-किसानी में समृद्धि आई और इस पर जीवन-यापन करने वाली जातियाँ मज़बूत हुईं। तकनीकी साधनों के विकास और हरित क्रांति की मुहिम के फलस्वरूप पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी जैसे राज्यों के सिख और जाट किसान संपन्न हुए। मंडल कमीशन लागू होने के बाद उत्तर भारत में यादव और पटेल जैसी जातियों को आरक्षण का लाभ मिला।
पिछड़ी जातियों का उभार
1980 के बाद पिछड़ी जातियाँ राजनीतिक ताक़त के रूप में उभरीं। यूपी-बिहार जैसे राज्यों में सत्ता उनके हाथ में आई। लेकिन सांप्रदायिक उन्माद के बाद राजनीतिक सत्ता हिंदुत्ववादियों के हाथों में चली गई। हिन्दुत्व की राजनीति और सत्ता के स्थायित्व के लिए दलित और पिछड़ी जातियों को कमज़ोर करना ज़रूरी है। दरअसल, दलित चेतना और पिछड़ों की मज़बूती हिंदुत्व की राजनीति और विचारधारा दोनों के लिए ख़तरा है।
आरक्षण के अधिकार और छुआछूत से मुक्ति जैसे क़ानूनी प्रावधान से दलितों की स्थिति में काफ़ी सुधार हुआ। ख़ासकर, विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाली वर्तमान नौजवान पीढ़ी आंबेडकर के विचारों, संवैधानिक मूल्यों और अपने अधिकारों के प्रति बहुत सचेत है। लेकिन मोदी सरकार ने अघोषित रूप से आरक्षण को लगभग ख़त्म कर दिया। निजी शिक्षा के बढ़ते व्यवसाय के कारण दलित बच्चे स्कूल-कॉलेज से बेदखल होकर दिहाड़ी मज़दूर बनने के लिए बेबस हो रहे हैं। ठेकों पर दी जाने वाली नौकरियों में दलित-पिछड़ों के लिए कोई आरक्षण का प्रावधान नहीं है। लिहाज़ा, चोर दरवाज़े से आरक्षण व्यवस्था ख़त्म की जा रही है। अब तो नरेंद्र मोदी सदन में खुल्लम खुल्ला निजी क्षेत्र की वकालत कर रहे हैं। शिक्षा और रोज़गार में बढ़ता निजीकरण दलित और पिछड़ों को हाशिए पर धकेल देगा।
सावरकर के हिंदुत्व में मुसलमान घोषित रूप से शत्रु है। आज़ादी के बाद से मुसलमानों की शैक्षिक और आर्थिक स्थिति में लगातार गिरावट दर्ज हुई है। नौकरियों में उनका प्रतिनिधित्व लगातार घट रहा है। जस्टिस राजेंद्र सच्चर कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि मुसलमानों के हालात दलितों से भी बदतर है। ज़्यादातर मुसलिम समाज व्यवसाय और तकनीकी मरम्मत के काम से जुड़ा है।
सांप्रदायिक दंगों में मुसलमानों के व्यापार, दुकान और घरों को निशाना बनाया जाता है। गुजरात, मुज़फ़्फ़रनगर से लेकर दिल्ली दंगों में देखा गया है कि चिन्हित करके मुसलमानों की दुकानों और घरों को जलाया गया।
दलितों का एक तबक़ा अगर मज़बूत होकर उभरा तो उसका कारण आरक्षण है। ओबीसी जातियों के मज़बूत होने का मुख्य कारण खेती-किसानी है। निश्चित तौर पर आरक्षण से भी ओबीसी को लाभ मिला है। अब एक तरफ़ तो सार्वजनिक क्षेत्र के तमाम संस्थानों का निजीकरण करके आरक्षण को अघोषित तौर ख़त्म किया जा रहा है। दूसरी तरफ़ पिछली लोकसभा में सवर्णों को असंवैधानिक आर्थिक आधार पर दस फ़ीसदी आरक्षण दे दिया गया। साथ ही संयुक्त सचिव जैसे नीति निर्धारक पदों पर लैटरल इंट्री के ज़रिए द्विजों को बिठाया जा रहा है। इससे सरकारी क्षेत्रों में दलित और पिछड़ों की भागीदारी धीरे-धीरे ख़त्म हो जाएगी। अब मज़बूत कृषक ओबीसी जातियों को कमज़ोर करने के लिए ज़रूरी है कि उन्हें खेती के मालिकाना हक से बेदखल किया जाए। इसलिए एक लिहाज़ से कृषि क़ानून ओबीसी किसानों को आर्थिक रूप से कमज़ोर करने की साज़िश है।