अर्थशास्त्र की यह एक पुरानी कहावत है कि महंगाई उन लोगों पर लगाया गया टैक्स है जो अन्यथा टैक्स देने की हालत में नहीं होते। आमतौर पर यह माना जाता है कि महंगाई ग़रीब तबके को सबसे ज्यादा परेशान करती है। लेकिन कोरोना काल के आगमन से जो हालात बने हैं उसमें महंगाई मध्यवर्ग को भी उतना ही परेशान कर रही है जितना ग़रीब तबके को।
सितंबर महीने में महंगाई यानी मुद्रास्फीति की जो दर 7.34 फीसदी के रिकाॅर्ड स्तर पर पहुंच गई थी उसका सबसे बड़ा कारण था खाद्य वस्तुओं यानी खाने-पीने के जरूरी सामान का महंगा हो जाना। बाजार से जो भी खबरें आई हैं, वे यही बता रही हैं कि महंगाई का बढ़ना अभी भी जारी है। यह ऐसी महंगाई है जिससे बचना निम्न और मध्यम वर्गों के लिए लगभग नामुमकिन होता है।
अगर औद्योगिक उत्पाद महंगे होते हैं या कपड़ा महंगा होता है या फिर किराया-भाड़ा महंगा होता है तो इनके उपयोग को कुछ समय के लिए टाला या कम किया जा सकता है लेकिन अनाज, सब्जियों या दालों के मामले में यह तरीका एक हद से ज्यादा नहीं अपनाया जा सकता।
लाॅकडाउन से बढ़ी मुसीबत
वैसे 7.34 फीसदी की मुद्रास्फीति दर भले ही पिछले कुछ साल की सबसे ज्यादा दर है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि देश के ग़रीब और मध्य वर्ग के लिए यह कोई नई चीज है। कुछ दशक पहले तक हम दहाई अंक की मुद्रास्फीति के कष्ट से भी गुजर चुके हैं। लेकिन कोरोना काल में और इसकी वजह से लागू किए गए लाॅकडाउन में जो हुआ है, उसने इस कष्ट को कई गुना बढ़ा दिया है।रोजगार पर पड़ी मार
अगर हम सेंटर फाॅर माॅनीटरिंग इंडियन इकाॅनमी के आंकड़ों को देखें तो शहरों में लाॅकडाउन के शुरुआती दिनों में जो बेरोजगारी दर तेजी से बढ़ी थी, उस स्थिति में मामूली सा सुधार ही आया है। बेशक इस दौरान मनरेगा के विस्तार की वजह से ग्रामीण रोजगार में वृद्धि हुई है लेकिन इसका यह अर्थ है कि ठीकठाक आमदनी वाले रोजगार कम हुए हैं जबकि बहुत कम आमदनी वाले रोजगार में ही इजाफा हुआ है।
जो लोग नियमित रोजगार में हैं उनकी स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं है। सरकारी नौकरियों में ही स्थिति थोड़ी बेहतर कही जा सकती है, जहां नियमानुसार नियमित वेतन वृद्धि और महंगाई भत्ता वगैरह कर्मचारियों को मिल जाते हैं। हालांकि वहां से कई दूसरी तरह की खबरें भी आती रहती हैं।
नहीं मिल रही तनख्वाह
मसलन, दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल के डाॅक्टर और कर्मचारी पिछले दिनों इसलिए हड़ताल पर चले गए थे क्योंकि उन्हें कई महीनों से तनख्वाह नहीं मिली थी। जबकि निजी क्षेत्र में छंटनी वगैरह से बच गए लोगों की तनख्वाहों में बड़े स्तर पर कटौती हुई और जहां नहीं भी हुई, वहां इस साल अप्रैल में इन्क्रीमेंट आमतौर पर नहीं ही मिला है। असंगठित क्षेत्र और अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वालों की स्थिति इससे भी ज्यादा बुरी है।
देखिए, बेरोजगारी के विषय पर चर्चा-
लोगों की आमदनी में इस कमी के विभिन्न संस्थाओं ने अपनी-अपनी तरह से जो अनुमान लगाए हैं, वे बताते हैं कि लाॅकडाउन के पहले छह महीनों में लोगों की आमदनी औसतन 30 से 50 फीसदी तक कम हुई है। अब मुद्रास्फीति इसी आग में घी डालने का काम कर रही है, आमदनी पहले ही कम थी लेकिन अब यह महंगाई उनकी बची-खुची क्रय क्षमता को भी कम कर रही है।
महंगाई से जुड़ी एक और जिस समस्या पर इन दिनों काफी चर्चा हो रही है, वह ऐसे बुजुर्गों की समस्या है जो अपने जीवन भर की बचत पर मिलने वाले ब्याज के सहारे जीवन यापन करते हैं। यह ब्याज दर लगातार नीचे आ रही है।
फिक्स डिपाजिट पर ब्याज दर इस समय पांच फीसदी के आस-पास है जबकि बचत खातों पर दो-ढाई फीसदी के आस-पास। इस समय हाल यह है कि हर बार जब वे अपना फिक्स डिपाजिट रिन्यू कराने जाते हैं तो ब्याज दर पहले से कम हो जाती है जबकि मुद्रास्फीति पिछले काफी समय से बढ़ती जा रही है।
बढ़ रही क़ीमतें
इस समय जो महंगाई बढ़ रही है वह एक पहेली की तरह भी है। लोगों की आमदनी कम होने से बाजार में मांग पहले से ही कम है, ऐसे में तो उम्मीद यही की जाती है कि दाम नीचे आएंगे, लेकिन वे ऊपर जा रहे हैं। खाद्य पदार्थों की महंगाई बढ़ने का कारण आमतौर पर यही होता है कि बाजार में मांग का आपूर्ति के मुकाबले बढ़ जाना।
फिलहाल मांग कम है और आपूर्ति कोई बहुत ज्यादा कम हुई हो ऐसा दिख नहीं रहा। कारण जो भी हो लेकिन असली चुनौती बाजार में कीमतों को नीचे लाने की है।
महंगाई से मुक्ति दिलाने का काम सरकारें आमतौर पर रिजर्व बैंक के हवाले कर देती हैं। संसद से पास आरबीआई एक्ट भी यही कहता है कि मुद्रास्फीति को भेदने या नियंत्रित करने का काम रिजर्व बैंक अपनी माॅनीटरी पाॅलिसी से करेगा। रिजर्व बैंक इसकी कोशिश करता भी है। लेकिन मुद्रास्फीति कई कारणों से बढ़ती है और हर तरह की महंगाई को सिर्फ माॅनीटरी पाॅलिसी से नियंत्रित नहीं किया जा सकता।
इसका सबसे अच्छा तरीका होता है बाजार से मुद्रा की तरलता को कम कर देना और आमतौर पर यही तरीका अपनाया जाता है। बेशक इसका एक उल्टा असर ग्रोथ पर पड़ता है इसलिए लंबे समय तक इस तरीके को नहीं अपनाया जाता।
विकास दर धड़ाम
और इस समय जब महंगाई बढ़ रही है तो इस तरीके को अपनाने की सिफारिश शायद कोई न करे। खासकर जब इस महीने की पहली तिमाही में विकास दर शून्य से 23 फीसदी से नीचे चली गई थी और आगे भी इसके गोता लगाने की ही आशंका है, ऐसे में यह शायद सोचा भी नहीं जा सकता। इसीलिए पिछले दिनों जब रिजर्व बैंक ने अपने माॅनीटरी पाॅलिसी घोषित की तो पाॅलिसी रेट में बदलाव नहीं किया, जबकि यह कहा जा रहा था कि बढ़ती हुई मुद्रास्फीति को देखते हुए रिजर्व बैंक ब्याज दर बढ़ाने का रास्ता खोलेगा। लेकिन फिलहाल वह ऐसा कोई जोखिम नहीं लेना चाहता जिससे विकास दर नीचे जाने का खतरा हो।
इसकी एक उम्मीद सरकार से बांधी जा सकती है। लेकिन क़ीमतों को नीचे लाने के लिए बाजार में सरकारी हस्तक्षेप का तरीका हमारे यहां से बहुत पहले ही विदा हो चुका है।