मैं सन चौरासी में दिल्ली आ चुका था, लगभग साल भर हुआ था। उससे पहले मैं जून 1982 में इलाहाबाद से, जहाँ मैं 'अमृत प्रभात' अख़बार में था, भोपाल आ गया था। जबलपुर से महेश योगी का अख़बार 'ज्ञानयुग प्रभात' निकलता था जिसके एक तरह के सीईओ हमारे बड़े भाई जैसे संतोष सिंह हो गये थे, जो कि महेश योगी के रिश्तेदार थे... वे हमारे पत्रिका ग्रुप के अंग्रेज़ी अख़बार 'नॉर्दन इंडिया पत्रिका' में खेल संवाददाता थे... उनके साथ मेरी मंगलेश डबरालजी, विनोद श्रीवास्तव की बहुत आत्मीयता थी... पत्रिका के न्यूज़ एडिटर विश्वमोहन बडोला जी थे। उनसे और ज्ञानरंजन जी से भी संतोष के अत्यंत प्रेमपूर्ण संबंध थे...। संतोष सिंह जिनका कुछ साल पहले निधन हो गया, इन दोनों का बहुत आदर करते थे। ज्ञान जी से उनका कोई इलाहाबादी नाता भी था। इसी कारण ज्ञान जी ने जबलपुर में अख़बार जमाने में उनकी बहुत मदद की।
बहरहाल, संतोष जी मुझसे जबलपुर चलने की कहते रहे पर मैं नहीं गया। मेरे साथ रिपोर्टर रहे, मित्र अजय चतुर्वेदी को उन्होंने भोपाल संवाददाता बनाया। कुछ ही महीने बाद अजय ने सूचना सेवा की परीक्षा पास कर ली और वे वहीं ऑल इंडिया रेडियो में पदस्थ हो गये। अब संतोष जी भोपाल जाने के लिये मेरे पीछे पड़े और अंततः मैं भोपाल आ गया। चौहत्तर बंगलो के बीच बनी निशात कॉलोनी का सोलह नम्बर का दो मंज़िला मकान मेरा घर और दफ़्तर हो गया। एक मकान छोड़कर अठारह नम्बर में इंडिया टुडे के संवाददाता श्रीकांत खांडेकर रहते थे जिनसे गहरा अपनापा हुआ।
'ज्ञानयुग प्रभात’ अल्पायु में ही भावातीत हो गया। संकट मुँह बाये खड़ा था। संस्थान ने सभी कर्मचारियों को पचमढ़ी या हरिद्वार बुलाया, पर में नहीं गया। संतोष जी ने दिल्ली आने को कहा। वे वहाँ पहुंचकर महर्षि संस्थान के कार्यकलापों में रम चुके थे। उन्होंने कहा कि फ़ीचर एजेंसी शुरू करनी है। रहने की व्यवस्था है। मैं चला आया।
साउथ एक्स्टेंशन के पास, रिंग रोड पर ही, चौराहे से चार कोठी आगे विशाल कोठी थी... E-19। मैं उसमें आ गया। तब हम तीन प्राणी ही थे, मैं, रंजना और डेढ़ बरस की रागिनी। हमें बीच वाला विशाल कमरा मिला। बड़ी- बड़ी अलमारियों वाला। कमरे के साथ छोटी सी रसोई और ग़ुसलख़ाना भी था। ऊपर सपरिवार संतोष सिंह रहते थे। अन्य कई कमरों में अन्य लोग जिनमें इलाहाबाद से परिचित वीरेंद्र मिश्र के अलावा सुनील श्रीवास्तव, राजेन्द्र गुप्ता आदि सपरिवार रहते थे। नीचे बड़े हॉल में ऑफ़िस था।
फ़ीचर एजेंसी मुख्यतः महर्षि के ध्यान आदि के प्रचारार्थ थी, आध्यात्मिक स्वरूप वाली। तब मैंने संतोष जी से किसी बड़े ज्ञानी- ध्यानी को जोड़ने की बात कही और लक्ष्मीकांत वर्मा का नाम सुझाया। वर्माजी आ गये। उनसे इलाहाबाद से संबंध थे और वे बहुत स्नेह करते थ। डिफ़ेंस कॉलोनी के बाद सफदरजंग एनक्लेव में उनके साथ यादगार समय बीता।
फिर आ गया स्तब्धकारी 31 अक्टूबर का दिन। और एकदम बाद के नवम्बर के हाहाकारी दिन जिनको याद करके आज भी सिहरन और शर्म महसूस होती है।
यह शर्म और ग्लानि तो कभी पीछा नहीं छोड़ने वाली। हमारी इस कोठी के गेस्ट हॉउस में इलाहाबाद से आए डॉ. रामकुमार वर्मा ठहरे हुए थे। 31 को शायद सुबह साढ़े दस बजे उनकी श्रीमती इंदिरा गांधी से मुलाक़ात तय थी। इतने बजे के क़रीब जब वे वहीं दिखे तो मैंने पूछा कि आप गये नहीं। वे घबराये हुए थे और कांपती- सी आवाज़ में बोले, सुनते हैं कि गोली चल गयी।
क्या हुआ जानने को बेचैन मैं बाहर पीछे की चाय पान की गुमटी पर गया। वहां खुसर पुसर में यही बात हो रही थी। थोड़ी देर बाद साफ़ हुआ कि गोली श्रीमती गांधी को ही मारी गयी है। अब बात फैल चुकी थी। कोठी के अंदर यही चर्चा थी। मैं फटाफट तैयार होकर बस पकड़ एम्स आ गया। वहाँ भीड़ लगातार बढ़ रही थी। मैं रिंग रोड तरफ़ के गेट पर खड़ा हो गया। गेट के दोनों ओर लोग जमा थे। सिर्फ़ वीआईपी लोगों को अंदर जाने दिया जा रहा था। तभी सत्यप्रकाश मालवीय आये, उनसे इलाहाबाद से परिचय था, मुझे देखकर वे ठिठके और पूछा, नायक अंदर चलोगे! मैंने मना कर दिया।
ढाई बजे क़रीब इंदिराजी की मृत्यु की आधिकारिक घोषणा हुई। बढ़ती भीड़ के साथ बेचैनी बढ़ रही थी। और अख़बारों के साथ साल भर से भी कम पुराने 'जनसत्ता' का भी विशेष संस्करण बिक रहा था। एक अपशकुनी छाया और अज्ञात- सा भय माहौल पे तारी था।
अक्टूबर का महीना, शाम ज़ल्दी घिर आयी थी। ख़ून के बदले ख़ून के नारे लगने लगे थे। हमारे सामने शुरुआत खाली टायर जलाने से हुई। सरदारों को तो उसमें फंसा कर बाद में जलाना शुरू हुआ। किसी बड़ी अनिष्ट की आशंका से मैं भागता सा घर लौटा।
साउथ एक्स्टेंशन चौराहे पर भीड़ उत्तेजित थी। एक सिख का बड़ा स्टोर था, ऊपर आवास। गनीमत है कि लोग चिल्ला चिल्ला कर और शटर ठोंक पीटकर ही अंदर वालों को धमकाने में लगे थे। यह सब काफ़ी देर चला फिर। भीड़ छँट गयी। और जगहों से नृशंस ख़बरें आनी शुरू हो गयी थीं। सभी सहमे हुए थे। गहन आशंका में सोये कि ढाई तीन बजे उठाया गया। कहा गया कि पानी में ज़हर मिला दिया गया है। किसने बताया, किसने मिलाया। कुछ नहीं मालूम। दंगों में ऐसी अफ़वाहों का बाज़ार गर्म रहता है जिनका अता पता, सिर पैर कुछ नहीं मालूम होता।
अफ़वाहें बेतार गश्त लगा रही थीं। भड़काती और भयभीत करती हुई। ट्रेन में लाशें आयीं, आदि। सच्ची कहानियाँ ही इतनी क्रूर और राक्षसी थीं कि कई बार उनके आगे अफ़वाहें फीकी पड़ जातीं!
लगभग दो दिन घर में बंद अजब उधेड़बुन में बीते। दो तारीख़ को दोपहर तीन बजे सामने से स्वामी अग्निवेश शांति मार्च लेकर निकले तो उसमें शामिल होकर लाजपत नगर, सेंट्रल मार्केट का चक्कर लगा आये। लगभग सन्नाटा था, घरों से देखने वाले सभी गुमसुम, उदास और हतप्रभ थे। ऐसा लगा कि जैसे उन्होंने जो देखा-सुना-भोगा था उससे वे ऐसे शांति-मैत्री प्रस्तावों से भरोसा खो चुके थे।
अगला दिन तीन नवम्बर का दिन था। इंदिरा गांधी की अंत्येष्टि का दिन। वीरेंद्र मिश्र के साथ मैं निकला। कुछ दूरी बस से और बाक़ी पैदल चलकर कनॉट प्लेस आये, रेलवे स्टेशन, फिर हिंदुस्तान टाइम्स में मित्रों से मिले। यहीं एक चाय की दुकान पर समोसा मांगने पर मैंने लज्जा से ज़मीन में गड़ जाने वाला और आतताइयों के चेहरों को मुस्कान से भर देने वाला वह वाक्य सुना था, ‘दिल्ली में आजकल आलू और सरदार नहीं मिल रहे।’
वीरेंद्र वहीं रुक गये और मैं इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग में 'जनसत्ता' आ गया, मंगलेशजी के पास। उनके पास कवि, कथाकार उदय प्रकाश बैठे हुए थे, जिनसे भोपाल में मेरा परिचय हो चुका था। हमनें बाहर आकर शवयात्रा देखी। अब लौटने की चिंता थी। राजधानी सेना के हवाले थी, सात बजे से कर्फ़्यू और सेना की गश्त होने का समय शुरू था। उदय जी भी दूर जेएनयू कैम्पस में रहते थे। मैंने सुझाया कि पीछे रिंग रोड से शायद कोई बस मिल जाये। हम दोनों वहां आ गये और इंतज़ार में समय निरर्थक गुज़रा। वहाँ कुछ लोगों ने बताया कि तीन मूर्ति से बस मिल सकती है। एक छोटा संयोग यह हुआ कि उदय जी के एक दोस्त मिल गये जिन्होंने हमें अपनी अम्बेसडर पर तीन मू्र्ति छोड़ दिया। यहाँ पर भी सब स्थिर था। बस क्या मिलती। पौन घंटे बाद सात बजने वाले थे।
हमने पदयात्रा शुरू की। एक दुदीर्घ सूनी सड़क पर रिंग रोड तक का साथ था। भांति-भांति की बातें करते चलते रहे। अंधेरा गहराता रहा, संशय भी घिरते रहे। एक टपरे वाली दुकान बंद होने को थी कि हम पहुंच गये। उदय जी ने कैम्पा पिलाया। रिंग रोड पर हम शायद भीकाजी कामा प्लेस पर निकले। सात से ज़्यादा बज चुका था। सेना के वाहन दिखने लगे थे। उदय जी सड़क पार सीधे निकल गये, मैं डिफ़ेंस कॉलोनी के लिए रिंग रोड पर बांये मुड़ गया और सर्विस लेन पर दुबक कर चलने लगा। थोड़ी ही दूर गया होऊँगा कि बगल से एक साइकिल निकली। थोड़ा आगे जाकर वह रुकी। उसके सवाल ने पूछा कहाँ जा रहे हो? पता नहीं क्या कि कर्फ़्यू लगा है! मैंने कहा कि पता है पर सवारी नहीं मिली। अपने बारे में उसने कहा कि वह जल कल विभाग में है और एक तरह से ड्यूटी पर ही है। उसने नाम महावीर प्रसाद बताया। उसने कहा राजनगर तक छोड़ देता हूँ, बैठ जाओ।
राजनगर पर धन्यवाद कहकर ज्यों चलने को हुआ कि उसने कहा चलो एम्स तक छोड़ कर लौट आऊंगा। वहां से पैदल चलने को हुआ कि महावीर प्रसाद जी फिर बोले, अब कितना रह गया, चलो घर ही छोड़ आता हूँ। मैंने साइकिल चलाने का आग्रह किया तो मना कर दिया। घर पहुंचकर अंदर चलने को भी विनम्रता से टाल दिया। मैं उन्हें छोड़ने बात करते हुए साउथ एक्स्टेंशन चौराहे तक आया तो वे दायीं ओर लोदी कॉलोनी की ओर जाने लगे तो मैंने कहा कि आपको तो राजनगर जाना है तो उन्होंने कहा कि झोले में कुछ सब्ज़ी और फल हैं। लोदी कॉलोनी में एक सरदारजी मित्र रहते हैं, पता नहीं किस हाल में हों। यहाँ तक आया हूँ तो सोचा मिलता चलूँ और उन्हें ये थोड़ा कुछ दे आऊं...!
(वरिष्ठ पत्रकार मनोहर नायक की फेसबुक वाल से)