प्रियदर्शनी इंदिरा ने 1934 में बंबई विश्वविद्यालय से मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की और शांति निकेतन के शिक्षा भवन की छात्रा के रूप में आगामी शैक्षिक सत्र के लिए दाखिला ले लिया। उनको वहां भेजने से पूर्व उनके माता-पिता स्वयं आश्रम परिसर देखने गए। यह जनवरी, 1934 की घटना है। यद्यपि पंडित जवाहरलाल नेहरू इससे पूर्व भी शांति निकेतन कई बार गए थे परंतु यह पहला अवसर था, जब कमला नेहरू भी उनके साथ गईं। नेहरू परिवार रवींद्रनाथ के अपने आवास 'कोणार्क' के समीप अतिथि गृह में ठहरा।
उन्होंने इस यात्रा का आनंद उठाया और 'अतिथि पुस्तिका' पर यह लिखकर हस्ताक्षर किए- 'जीवन यात्रा में एक आनंदमय दिवस की स्मृति में।' 27 अप्रैल, 1934 को पंडित जी ने अलीपुर सेंट्रल जेल से एक लंबा पत्र भेजा, जिसमें उन्होंने इंदिरा को जुलाई से आगामी शिक्षा सत्र से कॉलेज में प्रवेश देने के लिए अनुरोध किया।
यह पत्र रोचक है क्योंकि इस पत्र में उन्होंने हमारे देश में लड़कियों की शिक्षा के बारे में अपने आधारभूत विचारों की रूपरेखा दी।
उन्होंने लिखा कि उनकी इच्छा अपनी पुत्री को सरकारी विश्वविद्यालय में भेजने की नहीं है। उन्होंने लिखा, 'मैं इन विश्वविद्यालयों को बेहद नापसंद करता हूँ।' उन्होंने कहा कि वे अपनी पुत्री को शिक्षा के लिए यूरोप भेजना चाहते थे और विशेष कर स्विट्जरलैंड भेजने का मन बनाए हुए थे, परंतु घटनाचक्र ऐसा चला कि इस संबंध में पहल न कर सके क्योंकि गत कई वर्षों में हम जैसे-तैसे गुजारा कर रहे हैं और भविष्य का कार्यक्रम बनाने में कठिनाई महसूस करते हैं।
उन्होंने लिखा- 'मैंने अपनी पुत्री को अपने लिए विषय चुनने को कह दिया है क्योंकि आधुनिक लड़की पर अपने निर्णय नहीं थोपने चाहिए। 'परंतु मैं ऐसी शिक्षा को नापसंद करता हूँ, जो लड़की को ड्राइंगरूम के कामों के अलावा अन्य किसी कार्य के योग्य नहीं बनाती। व्यक्तिगत रूप से यदि मुझे अवसर मिला तो मैं चाहूंगा कि मेरी पुत्री एक वर्ष तक किसी कारखाने में काम करे, जैसा कि कोई अन्य कामगार करता है और यह प्रशिक्षण उसकी शिक्षा का अंग होना चाहिए।' वे यथार्थवादी थे, अतः उन्होंने अपने पत्र में यह भी लिखा कि मेरे विचार से इस प्रकार की शिक्षा भारत में नितांत असंभव है।
इंदिरा ने कॉलेज खुलने के कुछ समय बाद प्रवेश लिया क्योंकि कमला नेहरू की बीमारी गंभीर हो गई थी और ऐसे में इंदिरा को अपनी मां के पास रहना था। जैसे ही उनकी मां की दशा में कुछ सुधार हुआ, वे शीघ्र ही शांति निकेतन आ गईं। वे अन्य छात्राओं के समान लड़कियों के छात्रावास में रहने लगीं। उस छात्रावास का नाम श्रीभवन था। उनके कमरे में तीन या चार छात्राएं थीं।
पंडितजी की इच्छा थी कि इंदिरा को अलग से कोई सुविधा नहीं दी जाए। इंदिरा वास्तव में एक अनुशासित युवती थीं।
उन्होंने आश्रम (उन दिनों शांति निकेतन को आश्रम कहा जाता था) में पूर्ण निष्ठा और परिश्रम से रोजमर्रा के काम संपन्न किए और एक आदर्श छात्रा के रूप में अपने को ढाल लिया। शांति निकेतन में इंदिरा की दिनचर्या का वर्णन करते हुए श्री चंद्रा ने लिखा है- मैं अपने सचिवालय के कार्यों के अलावा कॉलेज में राजनीति और संविधान भी पढ़ाता था। अतः मुझे भविष्य में विश्व भारती में आचार्य बनने का विशेषाधिकार प्राप्त था।
मेरे विद्यार्थी एक साल वृक्ष की छाया में बैठकर पढ़ते थे। कॉलेज में अपनी कक्षाओं के अतिरिक्त इंदिरा कला भवन में नंदलाल बोस के मार्गदर्शन में अल्पकालीन अंतर्विभागीय छात्रा के रूप में चित्रकला सीखती थीं।
शांति निकेतन में उस दिन वीरानी छाई थी। पूरे आश्रम में दर्जन भर स्टाफ के सदस्य ही उपस्थित थे। शनंदलाल बोस पक्के कांग्रेसी थे। उन्होंने अपनी गर्दन में सिल्क के धागे के साथ उस पहचान पत्र को लटका लिया था मानो उनके सीने पर लटकता वह कोई सम्मान सूचक पदक हो। सर जॉन को यह शानदार दृश्य पसंद नहीं आया। उन दिनों भवनों की दृष्टि से शांति निकेतन में अधिक देखने के लिए कुछ भी न था और छात्राओं का छात्रावास श्रीभवन ऐसे कुछ स्थानों में से था, जिसका गवर्नर ने निरीक्षण किया।
'एन इंटेलीजेंट वीमेंस गाइड टू सोशलिज्म'
गवर्नर ने कुछ शयनकक्षों और कमरों का निरीक्षण किया और उन कमरों में से एक कमरे में द्वार के पास ही एक सजी मेज देखी। उन्होंने उत्सुकतावश सावधानी से सजी पुस्तकों में से एक पुस्तक उठाई। वह पुस्तक बर्नार्ड शॉ लिखित 'एन इंटेलीजेंट वीमेंस गाइड टू सोशलिज्म' थी। उन्होंने कुछ पुस्तकें उठाईं और देखा कि वे पुस्तकें समाजवाद तथा तत्संबंधी विषयों पर थीं। उन्होंने पूछा कि यह 'रेड लेडी' (वामपंथी महिला) कौन है तो उन्हें बताया गया कि वह जवाहरलाल नेहरू की पुत्री हैं।
उन्होंने नृत्यांगनाओं की भव्य झाँकी में भाग लिया था, जो हल्के पीले रंग की साड़ियां पहने थीं और वसंत के फूलों से सुशोभित थीं। वे आम्रकुंज तक वसंत का प्रतीक बनकर आईं। आम्रकुंज में गुरुदेव रवींद्रनाथ के समक्ष उत्सव मनाया गया। यदि मुझे ठीक याद है तो विजयलक्ष्मी पंडित इस उत्सव में उपस्थित थीं और उन्होंने जो कुछ देखा, उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। जब वे इलाहाबाद जाने वाली थीं, उस समय मैं हावड़ा स्टेशन पर था और उन्हें विदा करने के लिए डॉक्टर विधानचंद्र राय आए थे।
उन्होंने पूछा कि इंदू की शांति निकेतन में कैसी प्रगति है। विजयलक्ष्मी पंडित ने उत्तर दिया, 'वह वहाँ बड़ी लोकप्रिय है। उसने तो दही में चीनी मिलाकर खाना भी सीख लिया है।' श्री चंद्रा ने इंदिरा के छात्रा जीवन के दो रोचक प्रसंग सुनाए। जब वे शांति निकेतन में थीं, मध्य यूरोप के एक कला मर्मज्ञ वहाँ अतिथि प्रोफेसर होकर आए और उस समय इंदिरा भी भारतीय कला पर उनके लोकप्रिय भाषण सुना करती थीं, जो कला भवन के संग्रहालय के सेंट्रल हॉल में आयोजित किए गए थे। उन दिनों कला भवन के विद्यार्थी फर्श पर चटाई के आसनों पर बैठ जाते थे और एक डेस्क पर अपना कार्य किया करते थे।
कभी-कभी यदि उन्हें बड़े चित्र का काम करना पड़ता था तो वे शिल्पियों के समान पारंपरिक तरीके से उसे फर्श पर बिछा लेते थे। इसलिए कला भवन में जो लोग भी आते थे, वे अपने जूते बाहर उतार दिया करते थे। परंतु यह नए प्रोफेसर जूते पहनकर आ जाते थे। उन्होंने विद्यार्थियों की इस विनती पर कभी ध्यान नहीं दिया कि वे संग्रहालय में घुसते ही अपने जूते उतार दिया करें। उनके कुछ भाषण हुए और उसके बाद भी जब प्रोफेसर ने जूते पहनकर अंदर आना बंद नहीं किया तो सभी विद्यार्थी व्यवस्थित और प्रतिष्ठापूर्ण ढंग से कक्षा से बाहर आ गए। उन्होंने एक शब्द भी नहीं बोला और वे प्रोफेसर को क्रोध और आश्चर्य में छोड़ गए।
बताया गया है कि यह शांतिपूर्ण प्रदर्शन विद्यार्थियों के एक छोटे दल ने आयोजित किया, जिसका नेतृत्व इंदिरा और सीमांत गाँधी के पुत्र खान अब्दुल गनी खाँ ने किया, जो उस समय कला भवन में छात्र थे। इस मामले की ओर कविवर का ध्यान आकर्षित किया गया। विद्यार्थियों ने कुछ और आरोप लगाए और प्रोफेसर को कहा गया कि वे शांति निकेतन छोड़ दें और प्रोफेसर अगली ट्रेन से वहाँ से चले गए।
उन्होंने इस कृत्य के लिए शांति निकेतन को कभी भी क्षमा नहीं किया और बाद के वर्ष में जब वे दिल्ली के एक समाचार पत्र में कला निदेशक के रूप में काम करने लगे, तब उन्होंने यदा-कदा अत्यंत कटुता के साथ चित्रकला के बंगाल स्कूल और विशेष रूप से शांति निकेतन की आलोचना की। दूसरी घटना 6 फरवरी, 1935 की है। उस दिन बंगाल के गवर्नर सर जॉन एंडरसन शांति निकेतन आए।
बंगाल के प्रथम गवर्नर लॉर्ड कामाइकिल शांति निकेतन आए थे और उसी समय से यह परंपरा हो गई थी कि जब कभी नया गवर्नर उस जिले में जाता था, तब वह शांति निकेतन भी जाता था। उन दिनों बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियाँ चल रही थीं और सर जॉन को उनकी वीरभूमि जिले की यात्रा के कुछ दिन पूर्व किसी क्रांतिकारी ने दार्जिलिंग के रेसकोर्स में पिस्तौल से मार डालने का असफल प्रयास किया। इसलिए पुलिस भी गवर्नर की यात्रा की सुरक्षा के लिए जरूरत से ज्यादा प्रबंध कर रही थी।
इस सुरक्षा के कार्य में अधिक उत्साह इसलिए भी था कि जिला कलेक्टर और जिले के पुलिस सुपरिटेंडेंट दोनों ही प्रांतीय सेवा के वरिष्ठ अधिकारी थे, इसलिए वे ब्रिटिश राज की सेवा में पूरे जोश से लग गए थे।
पूर्व गवर्नर, यहाँ तक कि वायसराय लार्ड इर्विन की यात्रा के समय भी पुलिस शांति निकेतन में वर्दी में नहीं आई, गवर्नर के साथ कुछ लोग सादे कपड़े पहनकर आए और कार्यक्रमों में बिना बाधा पहुँचाए इधर-उधर बैठ गए। परंतु उस अवसर पर जिले के अधिकारी कविवर से भेंट करने आए और उन्होंने गुरुदेव से कहा कि वे कुछ संदिग्ध छात्रों को एहतियात के तौर पर उस समय तक अपनी हिरासत में रखना चाहेंगे, जब तक गवर्नर की यात्रा पूरी न हो जाए।
गुरुदेव इस सुझाव पर चकित रह गए। उनके नेत्रों में क्रोध की अग्नि जल उठी और उन्होंने अतिथियों से कहा कि वे जो चाहे कर सकते हैं परंतु गवर्नर को तार भेजेंगे कि वे इस विचार के समर्थक नहीं हैं कि माता-पिताओं ने जिन बच्चों को उनके संरक्षण में शांति निकेतन भेजा है, वे जेलों में बंद कर दिए जाएँ ताकि गवर्नर की सुरक्षा की जा सके।
इसलिए वे गवर्नर से शांति निकेतन की यात्रा रद्द करने को कहेंगे। उन्होंने शीघ्र ही तार भेजने का आदेश दे दिया और कमरा छोड़कर चले गए। जिले के अधिकारी घटनाओं के इस परिवर्तन से बड़े परेशान हुए और शीघ्रता से विचार-विमर्श किया तथा अनिल चंद्रा से कहा कि गुरुदेव को इस बात के लिए सहमत किया जाए कि वे गवर्नर को कुछ न कहें और कहा कि वे स्वयं उत्तरदायित्व संभाल लेंगे तथा गिरफ्तारियाँ नहीं होने देंगे।
एक समझौता किया गया कि जिसमें यह कहा गया कि कोई भी गिरफ्तार नहीं किया जाएगा और जिस किसी को गवर्नर के पास जाने की आवश्यकता है, उसके पास एक पहचान पत्र होगा, जिसमें विश्व भारती के सचिव और पुलिस सुपरिटेंडेंट के हस्ताक्षर होंगे। फिर भी गुरुदेव ने आदेश दिया कि उस दिन सभी शिक्षक तथा विद्यार्थी श्री निकेतन पिकनिक मनाने चले जाएँगे और शांति निकेतन में केवल वही कार्यकता रह जाएँगे, जिनके पास पहचान पत्र हैं ताकि वे गवर्नर को शांति निकेतन दिखा सकें।
यह सुनकर वे मंद-मंद मुस्करा उठे और कहा, 'आह! फिर तो बात साफ है।' बाद में, जब गुरुदेव के साथ चाय पीने बैठे तो गुरुदेव ने जिले के उन ओछे पुलिस कर्मचारियों की शिकायत की, जिन्होंने उनके अतिथि की सुरक्षा के लिए कुछ छात्रों को गिरफ्तार करने की धमकी दी थी। यह सुनकर सर जॉन का चेहरा तमतमा उठा और उनकी यात्रा से गुरुदेव को जो असुविधा हुई, उसके लिए उन्होंने क्षमा माँगी।
उन 'ओछे कर्मचारियों' को एक सप्ताह में उस जिले से स्थानांतरित कर दिया गया।
जब शांति निकेतन में नव वर्ष (बंगला पंचांग के अनुसार बैसाख का प्रथम दिन) 14 अप्रैल, 1935 की प्रातः मनाया जा रहा था तब आनंद भवन से सूचना मिली कि कमला नेहरू के स्वास्थ्य में गंभीर गिरावट आ गई है। इंदिरा दोपहर के बाद की ट्रेन से इलाहाबाद के लिए चल पड़ीं। उनके भाग्य में यह नहीं था कि वे लौटकर फिर शांति निकेतन आएँ। शीघ्र ही वे अपनी बीमार माँ के साथ स्विट्जरलैंड चली गईं।
16 अप्रैल को इंदिरा के इलाहाबाद पहुँचते ही जवाहरलाल नेहरू ने रवींद्रनाथ को लिखा कि उन्हें बहुत दुःख है कि वे इंदिरा को शांति निकेतन में अपनी शिक्षा पूरी किए बिना ही वापस बुला बैठे हैं। उन्होंने लिखा :मैंने शांति निकेतन की अल्पावधि में इंदिरा को बहुत कम देखा है। पिछली बार मैंने उसकी झलक उस समय देखी, जब छह महीने पूर्व मुझे जेल में उससे साक्षात्कार करने का अवसर मिला था।
परंतु इन छोटी-छोटी मुलाकातों और उसके मित्रों से जो कुछ भी सुनने को मिला, उससे मैं आश्वस्त था कि वह शांति निकेतन में कितनी प्रगति कर रही है। महत्वपूर्ण बात यह है कि उसने खुद ऐसा रुख दिखाया था कि वह शांति निकेतन में अत्यंत प्रसन्न थी और वह इसे बिलकुल नहीं छोड़ना चाहती थी। मुझे जेल में इस बात से आत्मसंतोष था कि मेरी पुत्री को प्रिय और योग्य मित्र मिल गए हैं, जो ठीक दिशा में उसके विकास के लिए उसकी मदद कर रहे हैं, मैं उन सभी के प्रति स्नेह और उदारता के लिए हमेशा कृतज्ञ रहूँगा, मुझे इस बात की प्रसन्नता है और यह मेरा सौभाग्य है कि मैंने अपनी पुत्री की शिक्षा के लिए उसके जीवन की ऐसी अवस्था में शांति निकेतन का चयन किया।
एक वर्ष बाद उन्होंने इसी विषय पर गुरुदेव को फिर लिखा। यह पत्र इलाहाबाद से 14 दिसंबर, 1936 को भेजा गया था। इस पत्र में लिखा गया था :'इंदिरा के हाल में भेजे गए पत्र की कुछ पंक्तियाँ आपको रुचिकर लगेंगी। यद्यपि ये पंक्तियाँ आपके लिए नहीं लिखी गई हैं और मैं उसको बिना बताए इन पंक्तियों को आपकी सेवा में लिख भेजता हूँ। वह मुझे बता रही थी कि वह महसूस करती है कि वह किस प्रकार बड़ी हो रही है और उसमें परिवर्तन आ रहा है। जब मैं पिछली बार उससे मिला था तब से वह कितना बदल चुकी है। यह आश्चर्य की बात है कि वह अँग्रेज लोगों को पसंद नहीं करती, फिर भी वह बताती है, ऐसे भी कुछ लोग हैं, जिन्हें वह चाहती है। तत्पश्चात वह कहती है :'मैं शांति निकेतन में रहकर अधिक प्रसन्न रही।
मुख्य रूप से गुरुदेव के दर्शन करके आनंदित हो उठती थी। उसी वातावरण में उनकी आत्मा स्पंदित रहती थी तथा उसे आच्छादित किए हुए थी। 'मैं महसूस करती हूँ कि इसी आत्मा ने मेरे जीवन और विचार को अत्यंत प्रभावित किया है।' शांति निकेतन के एक वरिष्ठ प्रोफेसर ने संस्मरण लिखा है कि जुलाई, 1934 में नया शैक्षिक सत्र प्रारंभ हुआ था और इंदिरा को कला के पाठ्यक्रम में प्रथम वर्ष की कक्षा में भर्ती किया गया था।
प्रोफेसर ने अपनी विलक्षण छात्रा के बारे में लिखा है :'मेरे पास प्रथम वर्ष की कला के विद्यार्थियों में से एक छात्रा इंदिरा थी। मैं कलकत्ता विश्वविद्यालय के गद्य संकलन और ओल्ड टेस्टामेंट के चयन किए गए अंशों को विद्यार्थियों को पढ़ाता था। इसके साथ ही साथ मैं विश्व भारती डिप्लोमा विंग में ब्राउनिंग की कृति 'मेन एंड वीमेन' पढ़ाया करता था। इंदिरा उसी ग्रुप में थी।
मुझे इंदिरा की सादगी भरी पोशाक और व्यवहार ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया था। वह काफी गंभीर थी और उसके चेहरे पर दुःख की छाया भी दिखाई देती थी। निश्चय ही इसका कारण यह था कि वह अपने माता-पिता के बारे में चिंतित रहती थी। उसके पिता जेल में थे और माँ बीमार थी। वह अपने लंबे बालों की चोटी बनाती थी और स्वच्छ खादी के वस्त्र पहना करती थी। वह अपने पिता की तरह लंबी और छरहरे बदन की थी। वह इस बात की अपेक्षा नहीं करती थी कि उसके साथ कोई विशेष व्यवहार किया जाए। वह अपने साथियों की तरह प्रसन्नता से सामान्य जीवन और दैनिक कार्यों में बराबर भाग लेती थी। उसे छात्रावास के शयन कक्ष में एक बिस्तर मिल गया था वह अपने कपड़े स्वयं धोती थी और अपना बिस्तर बिछाती थी।
वह प्रातः सभा में पंक्ति में खड़ी हो जाती थी और भोजनालय में अपनी बारी आ जाने पर परोसने में जुट जाती थी। उसका चाल-चलन अनुकरणीय था। उसके व्यक्तित्व में पूर्णता थी। मुझे ऐसा कोई भी अवसर याद नहीं आता, जब उसने मेरे दिए गए काम को पूरा न किया हो, चाहे वह गृह कार्य हो अथवा कक्षा-कार्य ही क्यों न हो। हर अवसर पर उसे उच्चतम ग्रेड प्रदान किया गया। उसके उत्तर स्वच्छ और स्पष्ट होते थे। उसके अक्षर छोटे-छोटे और घुमावदार थे। उसके लिखने का ढंग उसके पिता के समान ही था।'
(उड़ीसा के राज्यपाल रहे, शिक्षाविद, इतिहासकार, 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का शताब्दी इतिहास 1885-1985', 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का एक संक्षिप्त इतिहास', 1947-1985 (1986), 'इस्लाम और भारतीय संस्कृति', 'औरंगजेब' आदि पुस्तकों के लेखक विश्वंम्भर नाथ पांडे की पुस्तक 'इंदिरा गाँधी' से साभार।)