जिस तरह मंडल आयोग की सिफारिशें लागू किये जाने पर राम मंदिर के मुद्दे को गरम किया गया था, उसी तर्ज पर संविधान के मुद्दे की काट के लिए इमर्जेंसी के जिन्न को ज़िंदा किया जा रहा है। एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि आज की नई पीढ़ी को यह मालूम होना चाहिए कि किस तरह से संविधान को स्थगित कर इंदिरा गाँधी ने आपातकाल लागू किया था। तो नई पीढ़ी को यह भी बताना चाहिए कि 25 जून की रात आपातकाल लागू हुआ था, लेकिन उसकी पृष्ठभूमि में इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा का 12 जून का इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री पद से बेदखल करने का वह निर्णय था, जिसके बारे में लंदन टाइम्स ने अपने संपादकीय में टिप्पणी की थी कि 'यह निर्णय ऐसा ही था कि जैसे ट्रैफिक उल्लघंन के लिए एक प्रधानमंत्री को अपने पद से बर्खास्त कर दिया जाए।'
यहाँ उस समूचे घटनाक्रम का उल्लेख न कर इतना ही कहना पर्याप्त है कि आपातकाल की घोषणा संघ समेत दक्षिणपंथी ताकतों की इंदिरा गाँधी को पद से बेदखल करने के मंसूबों को विफल करने का संवैधानिक उपाय था। यहाँ यह भी गौरतलब है कि जिस आपातकाल को लेकर इंदिरा गाँधी को संविधान विरोधी बताया जा रहा है, उसी आपातकाल के लागू होने के दो महीने के बाद तत्कालीन संघ प्रमुख बाला साहब देवरस ने 25 अगस्त, 1975 को इंदिरा गाँधी को लिखे अपने पत्र द्वारा 15 अगस्त को उनके द्वारा दिये गये भाषण पर बधाई दी और आरएसएस पर लगाए गए प्रतिबंध को हटाने की याचना की। इसके बाद 10 नवम्बर 1975 को लिखे गए एक अन्य पत्र के द्वारा देवरस ने सरकार द्वारा किये जा रहे विकास कार्यक्रमों में संघ द्वारा सरकार से सहयोग करने का भी विश्वास जताया था। यह सारा विवरण क्रिस्टोफ जेफ्रोलाट ने अपनी पुस्तक 'दि हिंदू नेशनलिस्ट मूवमेंट एंड इंडियन पॉलिटिक्स' में दर्ज किया है। इस समूचे दौर में इंदिरा गाँधी के निशाने पर दक्षिणपंथी ताक़तें थीं। संविधान की प्रस्तावना में 'धर्मनिरपेक्षता' और 'समाजवाद' शब्द जोड़े जाने के पीछे यही नज़रिया था। लेकिन इंदिरा गाँधी के अपने घर में संजय गाँधी की उपस्थिति ने इस समूचे परिदृश्य को उल्टी दिशा देने का काम किया।
आपातकाल के दौर में संजय गांधी के गैरसंवैधानिक केंद्र के रूप में उभार के बाद संजय समर्थकों की आड़ में दक्षिणपंथी तत्वों द्वारा कांग्रेस की नीतियों को प्रतिक्रियावादी मोड़ देने और संजय गांधी का वैचारिक अधिग्रहण करने की कोशिशें तेज होने लगी थीं। इसके पहले संकेत ब्लिट्ज साप्ताहिक में प्रकाशित संजय गांधी के उस साक्षात्कार में प्रकट हुए थे जिसमें संजय गांधी ने 'न वाम न दक्षिण' का राग अलापते हुए उद्योगों के राष्ट्रीयकरण का विरोध और निजीकरण का समर्थन किया था। इंदिरा गांधी तभी से संजय और उनके घेरे को लेकर सशंकित होने लगी थीं। इंदिरा गांधी के प्रगतिशील और वाम समर्थकों ने भी संजय गांधी से किनाराकशी इसी के बाद शुरू की थी।
कैथरिन फ्रैंक ने इन्दिरा गांधी की जीवनी 'Indira' में लिखा है कि संजय गांधी को उचित ही आपातकाल के खलनायक के रूप में चिन्हित किया गया है। यह जानना भी दिलचस्प है कि कांग्रेस में रहते हुए और इंदिरा गांधी का बेटा होते हुए भी वह कांग्रेस और इंदिरा गांधी की नीतियों का कितना कट्टर विरोधी थे। यहाँ तक कि आपातकाल में जो इंदिरा गांधी के समर्थक थे संजय उनका भी विरोधी और निंदक थे। कैथेरीन फ्रैंक के शब्द हैं–
"Sanjay was remarkably indiscreet, exposing himself as hostile to many of his mother's policies and most of her political allies. He denounced nationalization, praised big business and multinational corporations and said he favored removing all economic controls.....He was pro-capitalist, conservative and authoritarian".
इतिहास की विडंबना देखिये कि आज तब के इंदिरा विरोधी बिना आपातकाल के वही कर रहे हैं जो संजय गांधी की घोषणाएं थीं। हाँ ये जरूर है कि इस बार संजय के वारिस मेनका और वरुण भी उनके साथ हैं।
तब इंदिरा गांधी के अपने अख़बार नेशनल हेराल्ड में भी लखनऊ के तत्कालीन स्थानीय संपादक सी एन चित्तरंजन ने संजय गांधी के फोटो और समाचारों के प्रकाशन पर रोक लगा दी थी। आज उसी 'नेशनल हेराल्ड' की घेराबंदी वर्तमान सत्तातंत्र द्वारा की जा रही है। दिल्ली से प्रकाशित वामपंथी दैनिक पैट्रियट ने भी संजय गांधी के समाचारों को प्रतिबंधित कर दिया था। 'मेनस्ट्रीम' के संपादक निखिल चक्रवर्ती, जो लंदन में इन्दिरा गांधी के सहपाठी और गहरे मित्र रहे थे, तो पहले दिन से ही आपातकाल का विरोध कर रहे थे।
इन्हीं दिनों एक दिन लखनऊ के ब्लिट्ज के ब्यूरो चीफ बिशन कपूर जी मुझे ढूंढते हुए मेरे कार्यालय आए और ‘From Maruti to Mafia’ शीर्षक वाली अंग्रेजी की पुस्तिका दी, जिसमें संजय गांधी का संपूर्ण कच्चा चिट्ठा खोला गया था। उन्होंने मुझसे उसका हिंदी अनुवाद कराकर बुकलेट के रूप में प्रकाशित किया और संजय गांधी के विरुद्ध प्रचार सामग्री के रूप में वितरित कराया। मुझे इसका तब पचास रुपए अनुवाद का पारिश्रमिक भी बिशन कपूर जी ने दिया था। आज बिशन कपूर जी नहीं हैं लेकिन संभवतः वह पुस्तिका उनके पत्रकार बेटे प्रदीप कपूर को बिशन कपूर जी के पुराने कागजातों में मिल जाय।
तो क़िस्सा कोताह यह कि आपातकाल को काले सफेद में ही नहीं बहुत कुछ ग्रे में भी देखने की ज़रूरत है।
(वीरेंद्र यादव के फ़ेसबुक पेज से साभार)