पुलिस को निरंकुश शक्ति क्यों? सरकारों का यह नया शौक!

11:20 am Aug 18, 2024 | एन.के. सिंह

भारत के मुख्य न्यायाधीश यानी सीजेआई ने सार्वजानिक मंचों से और सुप्रीम कोर्ट की अनेक बेंचों ने अपने हालिया फ़ैसलों के ज़रिये एक बार फिर निचली अदालतों को जमानत देने में उदार रवैया अपनाने को कहा है। उनके अनुसार ट्रायल कोर्ट का अहम् मामलों में जमानत देने से बचने का बढ़ता रवैया इसलिए है कि वे जोखिम से बचना चाहते है। यहाँ प्रश्न यह है कि निचली अदालतों के जज बचना क्यों चाहते हैं यानी उन्हें किस चीज का डर है? 

यह सच है कि जमानत न देने वाले जज पर कोई आरोप नहीं लगा सकता। लेकिन क्या ऊपरी अदालतें जमानत से इनकार करने वाले ट्रायल कोर्ट से स्पष्टीकरण नहीं मांग सकतीं? आखिर एक नागरिक की संविधान-प्रदत्त सबसे बड़ी स्वतंत्रता –व्यक्तिगत आजादी-- का सवाल है। साथ ही जेल में डाले गए व्यक्ति के परिवार के भूखों मरने की स्थिति बन जाती है। पर शायद सीजेआई का समस्या की तह तक जाना संभव नहीं है क्योंकि मूल सवाल राज्य की संवेदनशीलता का है। आखिर पुलिस को ऐसी निरंकुश शक्ति दी ही क्यों गयी है? 

एनसीआरबी रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2022 में जहां आईपीसी के अपराधों में 32 लाख लोगों को गिरफ्तार किया गया था और विशेष कानूनों के तहत 21.60 लाख अन्य को, वहीं प्रक्रियात्मक कानूनों (सीआरपीसी) के तहत 80 लाख निरुद्ध हुए। ये वे लोग हैं जिन्होंने कोई गुनाह किया ही नहीं, लेकिन पुलिस को इनसे गुनाह का अंदेशा था। कैसी है भारतीय न्याय व्यवस्था जिसमें शक के आधार पर किसी व्यक्ति की हर किस्म की आजादी ख़त्म कर दी जाती है? कई नए अपराधों में आरोपी पर यह जिम्मेदारी डाल दी गयी है कि वह सिद्ध करे कि अपराध में उसकी संलिप्तता नहीं है। सामान्य अपराध न्यायशास्त्र का सिद्धांत है कि आरोप लगाने वाला यानी अभियोजन पक्ष को साबित करना होता है कि आरोपी पर दोष सही हैं। 

सत्ताधारी वर्ग को इस पुलिस शक्ति को और विस्तार देने का हाल में शौक इतना बढ़ा कि पीएमएलए जैसे सख्त कानून के तहत जजों को जमानत देने के पहले व्यक्ति की अपराध में संलिप्तता का न होना सुनिश्चित करने को बाध्य किया जा रहा है। संशोधित पीएमएलए के सेक्शन 45 के “दोहरे टेस्ट” (ट्विन टेस्ट) के सिद्धांत के तहत इस धारा में निरुद्ध व्यक्ति को जमानत देने के पहले जज को सुनिश्चित करना होगा कि- पहला, उसकी प्रथम दृष्टया अपराध संलिप्तता नहीं है और दूसरा, कि भविष्य में वह कोई अपराध नहीं करेगा। 

जरा सोचें। जब मामला ट्रायल में आया ही नहीं यानी केस के तथ्य सामने हैं ही नहीं और आरोपी का पक्ष पूर्णतः जाना ही नहीं गया तो जज कैसे सुनिश्चित करेगा कि प्रथम दृष्टया वह निर्दोष लगता है। फिर जज के पास कौन सी दिव्यदृष्टि है जिससे वह यह गारंटी लेगा कि आरोपी जमानत मिलने के बाद कोई अपराध नहीं करेगा।  

यूपी सरकार ने भी पिछले हफ्ते धर्म-परिवर्तन कानून में संशोधन करके जजों के लिए ऐसी ही बाध्यकारी शर्त रखी है। सोचें! इस देश में जेल में बंद हर चार कैदी में तीन विचाराधीन हैं। कौन देता है पुलिस को यह शक्ति?

क्या सरकार का सच अलग होता है?

सरकार के दो मंत्रियों ने संसद की दोनों सदनों में बताया कि पीएमएलए (धन-शोधन निरोधक) कानून में सजा-दर 93 प्रतिशत है। इसके ठीक अगले दिन त्रि-सदस्यीय एससी बेंच ने संसद में ऐसे आंकड़े देने पर सरकार को डांट लगाते हुए कहा कि संशोधन के बाद 5000 से ज्यादा केस रजिस्टर हुए लेकिन सजा मात्र 40 को (यानी सजा दर 0.8 प्रतिशत) मिली। कोर्ट ने सरकार, खासकर ईडी को, महज मौखिक गवाही के आधार पर केस चलाने की जगह वैज्ञानिक साक्ष्य एकत्रित करके अभियोजन की गुणवत्ता बढ़ाने को कहा। आखिर सरकार का 93 प्रतिशत बनाम सबसे बड़ी कोर्ट का 0.8 प्रतिशत” क्या है? 

यह सच है कि पिछले दस वर्षों में संस्था द्वारा दायर कुल मामलों में आधे से ज्यादा वर्ष 2021 से 2023 के बीच दायर हुए। इस काल में कुल 5297 केसे हुए जिनमें मात्र 43 में ट्रायल पूर्ण हो सका जिसके बाद 40 मामलों में सजा हुई। कोर्ट ने यही संख्या दिखा कर सरकार को असलियत बताई। ये आंकड़े बताते हैं कि संस्था केस शुरू कर संपत्ति जब्त करना, छापा मारना, गिरफ्तारी करना तो कर रही है लेकिन महीनों जेल में रखने के बावजूद अभियोग-पत्र दाखिल नहीं करती। यहाँ सरकार ने गलती यह की कि जिन मामलों में महीनों या वर्षों बाद ट्रायल हो सका उनका आंकड़ा लेकर सजा की दर 93 प्रतिशत होने का दावा करने लगी। 

हाल के वर्षों में ईडी पर आरोप लगते रहे हैं कि सरकार के इशारे पर संस्था अपने असाधारण अधिकारों का राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ इस्तेमाल कर रही है। दिल्ली के सीएम व मंत्रियों के खिलाफ चार साल बाद भी अतिरिक्त चार्जशीट फ़ाइल की जाती है जबकि कई नेता वर्षों से जेल में हैं। उधर संशोधन के जरिये पीएमएलए में धारा 45 को जजों के हाथ “दोहरे-परीक्षण” के सिद्धांत के तहत बाँध दिए गए हैं। जज को बेल देने के पूर्व सुनिश्चित करना है कि प्रथम-दृष्टया अभियुक्त पर कोई मामला नहीं बनता और आगे वह कोई कानून नहीं तोड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट इस धारा की वैधानिकता पर सुनवाई कर रही है।

(एनके सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के पूर्व महासचिव हैं।)