साल के आख़िरी महीना यानी दिसंबर में एक बड़ा तमाशा हुआ। संसद की बैठक से 146 अर्थात क़रीब पूरे विपक्ष को लोकसभा और राज्यसभा की करवाई से बाहर निकाल दिया गया। देश की आज़ादी के बाद ये पहला मौक़ा था जब संसद लगभग विपक्ष विहीन हो गया। आइए समझते हैं कि विवाद किस मुद्दे पर था।
13 दिसंबर को दोनों सदनों की कार्रवाई अपेक्षाकृत तौर पर शांति पूर्वक शुरू हुई। सबसे पहले संसद पर 2001 में हुए आतंकवादी हमले में शहीद सुरक्षा कर्मियों को दोनों सदनों में श्रद्धांजलि दी गयी। दोपहर एक बजे से कुछ ही पहले लोकसभा के दर्शक दीर्घा से दो युवक सदन के भीतर कूद गए और रंगीन गैस छोड़ना शुरू किया। दोनों को सांसदों ने ही पकड़ कर सुरक्षा कर्मियों के हवाले कर दिया। जाहिर है कि ये संसद की सुरक्षा में एक बड़ी चूक थी। बाद में विपक्षी सांसदों ने इस घटना पर सदन में प्रधानमंत्री और गृह मंत्री से बयान की मांग की। उनकी मांग नहीं मानी गयी। दोनों सदनों में हंगामा चलता रहा। धीरे धीरे करके 146 विपक्षी सदस्य दोनों सदनों से निकाल दिए गए। ये अभूतपूर्व घटना थी।
सरकार ने इस पर बयान क्यों नहीं दिया। क्या इसलिए कि सदन में कूदने वाले दोनों युवकों को सत्तारुढ़ बीजेपी की सिफ़ारिश पर दर्शक दीर्घा में जाने दिया गया था। क्या ये कोई प्रायोजित घटना थी। अब तक इस बात का कोई सबूत सामने नहीं आया है कि दोनों युवक और उनके साथी किसी आतंकवादी गुट के सदस्य थे। सिर्फ़ ये पता चला है कि ये लोग बेरोज़गारी, महंगाई और मणिपुर हिंसा पर सरकार का ध्यान खींचना चाहते थे। सरकार ने विपक्ष की मांग मानने की जगह बड़ी संख्या में विपक्षी सदस्यों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया से दूर रखना उचित समझा।
लोकतंत्र बनाम तानाशाही
क्या ये घटना बहुदलीय लोकतंत्र की जगह एक दलीय तानाशाही की दिशा में एक और क़दम है। भारत के संविधान के निर्माताओं ने बहुत विचार-विमर्श के बाद देश को बहुदलीय लोकतंत्र बनाने का फ़ैसला किया था। आज़ादी के समय कांग्रेस का बोलबाला था। लेकिन पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने भी विपक्ष का सामना करना स्वीकार किया। इतिहास में सिर्फ़ एक ही मौक़ा आया जब 1975 में इमर्जेंसी के दौरान लगभग पूरे विपक्ष को जेल भेज कर लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधा डालने की कोशिश की गयी। देश ने उसका मुक़ाबला किया। कांग्रेस का सफ़ाया हो गया। इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर कर दी गयीं। लोकतंत्र की वापसी हुई।
पिछले सालों में सत्ता का नया दांव सामने आया है। एक-एक करके विपक्ष को निपटाओ। दिसंबर में ही तृणमूल कांग्रेस की सदस्य महुआ मोइत्रा को नैतिकता और विशेषाधिकार उल्लंघन के आरोप में लोकसभा से बाहर कर दिया गया। इसके लिए जो तर्क दिया गया उससे सामान्य नागरिक संतुष्ट नहीं हो सकता है। विपक्ष की ग़ैर मौजूदगी में ही अपराधों से संबंधित तीन क़ानून पास करा लिए गए। ठीक वैसे ही जैसे कृषि से संबंधित तीन क़ानून विपक्ष के विरोध और हंगामा के बीच पास घोषित कर दिए गए थे। ये सब हमारी संसदीय परंपरा के ख़िलाफ़ है। यहाँ सबसे सटीक उदाहरण 2001 में संसद पर हमले के बाद का उस समय की अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार का हो सकता है। 13 दिसंबर को संसद पर हमला के बाद 18 दिसंबर को गृह मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने संसद में बयान दिया। सदन में चर्चा हुई। 19 दिसंबर को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी सदन का सामना किया।
आख़िर मोदी और शाह ने अटल और आडवाणी की परंपरा का निर्वाह क्यों नहीं किया? क्या ये लोकतंत्र पर असन्न किसी ख़तरे का संकेत है?
विचित्र फ़ैसले
कांग्रेस के प्रमुख नेता राहुल गांधी ने 30 जनवरी 2023 को श्रीनगर में अपनी भारत जोड़ो यात्रा पूरी की तो उनका राजनीतिक क़द अचानक बढ़ने लगा। इसके तुरंत बाद 23 मार्च को उनकी लोकसभा की सदस्यता रद्द कर दी गयी। इसके पहले मोदी उप नाम पर एक सभा में टिप्पणी के पुराने मामले में गुजरात की एक अदालत ने उन्हें दो साल की सज़ा सुना दी थी। लोकसभा ने उन्हें ऊपरी अदालतों में जाने का मौक़ा दिए बिना लोकसभा से निकाल दिया। राजनीतिक विश्लेषकों और क़ानून के जानकारों को अदालत और लोकसभा दोनों का फ़ैसला समझ में नहीं आया। बहरहाल अगस्त में सुप्रीम कोर्ट ने राहुल की सज़ा पर रोक लगा दी। लोकसभा को राहुल की सदस्यता फिर बहाल क़रनी पड़ी। लेकिन ये सवाल अब भी हवा में है कि क्या गुजरात की अदालत का फ़ैसला न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप था। लोकसभा से उनकी सदस्यता ख़त्म करने में जिस तरह की जल्दीबाज़ी की गयी क्या वो सरकार के डर के कारण था।
भारत जोड़ो यात्रा से राहुल का ग्राफ़ बढ़ा लेकिन वो अबतक इसे चुनावी जीत में परिवर्तित करने में असफल साबित हुए हैं। साल के अंत में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की हार साबित करता है कि अभी भी मोदी का जादू क़ायम है। तेलंगाना में जीत से कांग्रेस की इज़्ज़त तो बच गयी लेकिन वहाँ लड़ाई में बीजेपी थी ही नहीं। मार्च में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को सरकार के चंगुल से निकालने के लिए एक ऐतिहासिक फ़ैसला दिया जिसमें चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश द्वारा नियुक्त एक समिति के ज़रिए की जाएगी। लेकिन सरकार ने एक नया क़ानून बना कर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को चयन समिति से बाहर कर दिया। यानी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सरकार की मनमानी चलती रहेगी।
मणिपुर का दंश
मणिपुर में मई 2023 में जो जातीय संघर्ष छिड़ा, उसकी आग आज भी सुलग रही है। इसकी शुरुआत भी स्थानीय अदालत के एक फ़ैसले से हुई। अदालत ने मैतेयी जाति को आदिवासी में शामिल करने के एक पुराने मुक़दमे में फ़ैसला सुनाया। मैतेयी को आदिवासी माने जाने के फ़ैसले से कुकी और अन्य आदिवासी जातियाँ भड़क गयीं। उनका आरोप था कि पहले से ही समृद्ध मैतेयी जाति के लोग उनकी ज़मीन पर भी क़ब्ज़ा कर लेंगे। तह में एक मुद्दा और भी था। मैतेयी हिंदू हैं जबकि ज़्यादातर अन्य आदिवासी ईसाई हैं। मणिपुर की राजनीति पर मैतेयी समुदाय का क़ब्ज़ा है। अदालत के फ़ैसले के बाद भयानक दंगे शुरू हो गए। सरकारी तंत्र और पुलिस पर दंगाइयों का समर्थन करने का आरोप लगा। राज्य सरकार दंगा पर क़ाबू पाने में असफल रही। केंद्र सरकार ने भी चुप्पी साध ली। संसद में इस मामले पर विपक्ष ने हंगामा किया। इस फ़साद को रोकने में केंद्र विफलता को लेकर प्रधानमंत्री तक को निशाना बनाया गया लेकिन प्रधानमंत्री ने चुप रहना ही उचित समझा।
जय हो सरकार
सरकार को अपनी पीठ थपथपाने का एक और मौक़ा मिला जब सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की धारा 370 को ख़त्म करने वाले सरकार के संविधान संशोधन क़ानून को सही ठहरा दिया। जम्मू कश्मीर और लद्दाख़ को विशेष दर्जा देने वाले इस क़ानून को ख़त्म किया जाना उचित है या नहीं, सवाल ये नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के सामने सवाल तो ये था कि क्या राज्य की चुनी हुई सरकार की जगह राज्यपाल की सिफ़ारिश पर किसी राज्य को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है या नहीं। आज़ादी के बाद कई राज्यों का बँटवारा हुआ। महाराष्ट्र या मुंबई से गुजरात अलग हुआ। उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड निकला। सबसे ताज़ा उदाहरण आंध्र प्रदेश और तेलंगाना का बँटवारा है। ये सारे विभाजन राज्यों की चुनी हुई विधायिकाओं की सिफ़ारिश पर की गयी। पहली बार राज्यपाल की सिफ़ारिश पर जम्मू कश्मीर और लद्दाख़ को विभाजित करके दो केंद्र शासित राज्य बना दिया गया। सवाल ये था कि क्या राज्यपाल चुनी हुई विधायिका का स्थान ले सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे को नज़रंदाज कर दिया। केंद्र सरकार अगर निरंकुश होने लगे तब उम्मीद की जाती है कि न्यायपालिका उस पर लगाम लगा सकती है। वैसे, न्यायपालिकाएँ कई बार असफल साबित हो चुकी हैं। 1975 की इमर्जेंसी को भी सुप्रीम कोर्ट ख़त्म नहीं कर पाया था। तब जनता ने अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ी थी और 1977 के चुनावों में कांग्रेस को धूल चटा दिया था। तब बीजेपी (पुराना नाम जनसंघ) विपक्ष में थी और अब नए बीजेपी से कांग्रेस लड़ रही है। अंततः फ़ैसला तो जनता को ही करना होगा।