इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में हमेशा से यही पढ़ाया जाता रहा है कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति की शुरुआत मेरठ से हुई थी। इतिहासकारों तथा राजकीय स्वतंत्रता संग्रहालय में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित जानकारियों के मुताबिक़ दस मई 1857 को शाम पांच बजे जब गिरिजाघर का घंटा बजा, तब लोग घरों से निकलकर सड़कों पर एकत्रित होने लगे थे। मेरठ के सदर बाज़ार क्षेत्र में अंग्रेज़ों की सेना पर क्रांतिकारियों की भीड़ ने हमला बोल दिया। उसी समय 11वीं व 20वीं पैदल सेना के भारतीय सैनिकों ने परेड ग्राउंड में इकट्ठा होकर अंग्रेज़ सैन्य अधिकारियों व गोरे सिपाहियों पर भी धावा बोल दिया था।
इसके एक दिन पहले यानी 9 मई को चर्बीयुक्त विवादित कारतूसों को प्रयोग करने से इंकार करने वाले जिन 85 सैनिकों का कोर्ट मार्शल किया गया था और उन्हें विक्टोरिया पार्क स्थित नई जेल में बेड़ियों और ज़ंजीरों से जकड़कर क़ैद कर रखा गया था, भारतीय क्रांतिकारियों द्वारा दस मई की शाम को ही इस जेल को तोड़कर उन सभी 85 सैनिकों को आज़ाद करा दिया गया था। इनमें से कुछ सैनिक तो दस मई की रात में ही दिल्ली पहुँच गए थे और कुछ भारतीय सैनिक ग्यारह मई की सुबह मेरठ से दिल्ली के लिए रवाना हुए। इन्हीं क्रांतिकारियों ने 14 मई को दिल्ली पर हमला कर वहां क़ब्ज़ा कर लिया था। इस विद्रोह से जुड़े तमाम साक्ष्य व दस्तावेज़ आज भी मेरठ स्थित राजकीय स्वतंत्रता संग्रहालय में मौजूद भी हैं।
परन्तु पिछले दिनों हरियाणा के अंबाला में राज्य के गृह एवं स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज द्वारा इतिहासकार एवं पंजाब सरकार में पूर्व अधिकारी रहे तेजिंदर सिंह वालिया द्वारा लिखित पुस्तक 'अम्बाला की दास्ताँ -1857' का विमोचन किया गया। चूँकि इस पुस्तक की प्रस्तावना मेरे द्वारा लिखी गयी है, इसलिये मुझे प्रकाशन से पूर्व इस पुस्तक का अध्य्यन करने का भी मौक़ा मिला। इस पुस्तक में आलेख, शोध पत्र, दस्तावेज़ी सुबूतों, टेलीग्राम, पत्राचार के प्रमाण आदि के माध्यम से 1857 ईसवी के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में हरियाणा, विशेषकर अंबाला के स्वतंत्रता सेनानियों व क्रांतिकारियों के योगदान का बख़ूबी ज़िक्र किया गया है। पुस्तक 'अंबाला की दास्ताँ-1857' में अंबाला की इसी वीरभूमि के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के उन्हीं तथ्यों को प्रमाणित करने का प्रयास किया गया है कि किस प्रकार और किन परिस्थितियों में 10 मई 1857 को प्रातः 9 बजे अंबाला से क्रांति की शुरुआत हुई जो बाद में पूरे देश में फैल गयी।
इस बात के पुख़्ता प्रमाण इस पुस्तक में पेश करने के प्रयास किये गये हैं कि किस तरह प्रथम स्वाधीनता संग्राम 1857 में अंबाला की धरती हमारे वीर क्रांतिकारियों व अंग्रेज़ी सेना से विद्रोह करने वाले वीर सपूतों के लहू से रक्तरंजित हुई थी। पुस्तक में जुटाये गये तथ्यों के मुताबिक़ मेरठ में हुई क्रांति से भी लगभग नौ घंटे पहले अंबाला में क्रांति शुरू हो गई थी जबकि अंग्रेज़ी सेना में शामिल भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर दिया था।
उसी समय अंबाला में ही जेल में बंदी सैनिकों ने भी संघर्ष किया था। उसके पश्चात् ही स्वतंत्रता के लिए पहले पूरे प्रदेश फिर पूरे भारत में अंग्रेज़ी हुकूमत के विरुद्ध विद्रोह फूट पड़ा था। इसी दौरान क्रांतिकारियों ने अनेक क्षेत्रों को अंग्रेज़ी हुकूमत से मुक्त करा दिया था।
यह पुस्तक जहाँ उन ज्ञात-अज्ञात शहीद सेनानियों, क्रांतिकारियों व देशवासियों को समर्पित है जिन्होंने देश की स्वाधीनता के लिये तत्कालीन क्रूर अंग्रेज़ी हुकूमत के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद की थी। वहीं गहन शोध पर आधारित इस पुस्तक में यह प्रमाणित करने का प्रयास किया गया है कि किस प्रकार अंबाला से '1857' के ब्रिटिश विरोधी विद्रोह की शुरुआत हुई और किस प्रकार से '1857' के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंबाला की अग्रणी भूमिका रही। पुस्तक में एक तत्कालीन टेलीग्राम के आधार पर यह साबित करने की कोशिश की गयी है कि 10 मई 1857 को सुबह 9 बजे अंबाला स्थित 5वीं व 60वीं नेटिव रेजिमेंट के भारतीय मूल के सैनिकों द्वारा ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध विद्रोह किया गया था।
इस पुस्तक में केवल अंबाला की 'विद्रोह' संबंधित अनेक घटनाओं का ही नहीं, बल्कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय अंबाला विद्रोह से संबंधित दिल्ली, शिमला, मेरठ, पटियाला, जगाधरी, नालागढ़, रोपड़, लुधियाना, करनाल, जींद, थानेसर तथा पानीपत में घटी तमाम क्रन्तिकारी गतिविधियों, घटनाओं, ब्रिटिश सैन्य गतिविधियों, क्रांतिकारियों की कारगुज़ारियों तथा तत्कालीन राजघरानों से जुड़ी अनेक घटनाओं का भी बख़ूबी ज़िक्र किया गया है। अंबाला विद्रोह से संबंधित तथा उस दौर के अनेक अहम दस्तावेज़ों का उल्लेख भी इस पुस्तक में किया गया है। आज़ाद हिंद फ़ौज में भी इसी अंबाला की सरज़मीन के अनेक वीर सपूत शामिल रहे थे।
विगत दो दशकों से अंबाला से छः बार विधायक रहे तथा हरियाणा के वर्तमान गृह एवं स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज तथा इतिहासकार तेजिंदर वालिया सहित अंबाला के और भी कई इतिहासकार व शोध परक पत्रकारिता करने वाले खोजी पत्रकारों द्वारा अनेक दस्तावेज़ी सुबूतों के साथ इस बात को पूरे ज़ोर-शोर से उठाया जाता रहा है कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति की पहली चिंगारी मेरठ में हुये विद्रोह से भी 9 घण्टे पहले अंबाला में फूट चुकी थी।
अंबाला शताब्दियों से संतों, सिख गुरुओं व अनेक फ़क़ीरों की भी कर्मस्थली रही है। कई सिख गुरुओं का आवागमन भी इस पावन भूमि पर होता रहा है। अनेक स्वतंत्रता सेनानियों की जन्म व कर्म भूमि होने के साथ-साथ आज़ादी के लिए संघर्ष के दौरान महात्मा गांधी ने भी इसी अंबाला की धरती पर आकर क्रांतिकारियों को उत्साहित किया था। अंबाला का स्वर्णिम इतिहास लिखने का सिलसिला 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय भी चला जबकि अंबाला की चौथी सैन्य बटालियन में कंपनी क्वार्टर मास्टर हवलदार के रूप में तैनात रह चुके अब्दुल हमीद ने अपनी वीरता व अदम्य साहस का परिचय देते हुये 10 सितंबर 1965 को पंजाब प्रांत के खेमकरन सेक्टर में पाकिस्तान के सात पैटन टैंक्स ध्वस्त कर दिए थे। इसी युद्ध में शहादत हासिल करने के बाद वीर अब्दुल हमीद को सेना के सर्वोच्च सम्मान 'परम वीर चक्र' से नवाज़ा गया था। अतः अंबाला की मिट्टी से क्रांति की पहली चिंगारी का फूटना कोई अतिशियोक्ति नहीं लगती।
जहाँ तक मेरठ का सवाल है तो दिल्ली से मेरठ की दूरी मात्र सौ किलोमीटर है जबकि अंबाला से दिल्ली की दूरी इससे ठीक दो गुनी यानी दो सौ किलोमीटर है। लिहाज़ा संभव है कि मेरठ क्रांति की सूचना दिल्ली में बैठे ब्रिटिश शासकों को पहले मिल गयी हो।
और अंबाला की क्रांति की सूचना कुछ देर बाद पहुंची हो। शायद तभी तत्कालीन इतिहासकारों व अंग्रेज़ अधिकारियों द्वारा मेरठ को ही स्वतंत्रता संग्राम की पहली क्रांति का केंद्र घोषित कर दिया गया हो।
बहरहाल, वृहद राष्ट्रीय सन्दर्भ में यदि हम देखें तो क्रांति की शुरुआत चाहे मेरठ से हुई हो या अंबाला से, दोनों ही शहर भारत भूमि की उस पवित्र भूमि पर बसे हैं जो हमारे वीर सपूतों व क्रांतिकारियों के लहू से रक्तरंजित हुई थीं। इसलिये दोनों ही जगह पावन व सम्मान योग्य हैं।