हाथरस के निर्भया कांड को लेकर मचे कोहराम को देखते हुए योगी-मोदी सरकार के बचाव में केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने कमर कस ली है। इनका पहला ‘रहस्योद्घाटन’ है कि काँग्रेस और राहुल-प्रियंका हाथरस मामले में सियासी नाटकबाज़ी कर रहे हैं।
ज़ाहिर है कि सीबीआई जाँच का एलान, एसआईटी का गठन, पुलिस के अफ़सरों का निलम्बन, निर्भया की लाश को ज़बरन जलाने का प्रसंग, उसके साथ हुई जातिगत बर्बरता और चिकित्सीय उपेक्षाओं की कहानी तो राजनीतिक नाटक नहीं हो सकता। इलाहाबाद हाईकोर्ट का स्वतः संज्ञान लेना और प्रदेश के आला अफ़सरों का हाथरस में पीड़िता के गाँव में जाना भी प्रशासनिक दायित्वों के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता।
संवैधानिक पदों पर बैठे स्मृति ईरानी और योगी सरकार के मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह झूठ तो बोलेंगे नहीं। बाक़ी जन्मजात बेवकूफ़ तो वे भारतवासी ही हैं जो 1947 से अभी तक राजनीति के मायने ही नहीं समझ पाये। इसीलिए, इन महानुभावों को आये दिन भोली-भाली जनता को ज्ञान देने का बोझ उठाना पड़ता है।
उमा भारती अभी बीजेपी में तो हैं इसलिए उनकी सलाह भी राजनीति से प्रेरित क्यों नहीं हो सकती बहरहाल, ये तो बातें हैं। होती ही रहेंगी। सब जानते हैं कि जनता ने ही हमेशा देश की राजनीति की धार और धारा दोनों तय की है। शायद, आगे भी वही करेगी।
राजनीति के अपराधीकरण को रोका जाए
राजनीति के अपराधीकरण को मिटाये बग़ैर हम सामाजिक अपराधों पर काबू पाने का लक्ष्य कभी हासिल नहीं कर सकते। ख़ासकर, ‘बेटी बचाओ’ का तो कभी नहीं। क्योंकि ऐसा हो नहीं सकता कि हमारे राजनीतिक कर्णधार तो अपराधी हों, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हों और समाज में चप्पे-चप्पे पर मौजूद उनके गुर्गे सदाचारी हों। सारी दुनिया में यही सिद्धान्त लागू है कि अपराध की जड़ पर हमला किये बग़ैर उसे मिटाया नहीं जा सकता।
भारत में राजनीति के अपराधीकरण के लिए सबसे ज़्यादा कसूरवार नेहरू वाली काँग्रेस है। हालाँकि, अपराधीकरण के मोर्चों पर बाक़ी पार्टियाँ, दशकों पहले काँग्रेस को पटखनी दे चुकी हैं। पुलिस या न्यायिक सुधारों को लेकर देश या राज्यों में काँग्रेसी सरकारों ने अतीत में जैसी लापरवाही दिखायी, उसी का दंश मौजूदा काँग्रेसियों को ख़ून के आँसू रोकर भोगना पड़ रहा है।
उत्तर भारत के अपराध-बहुल प्रदेशों में काँग्रेस की दशकों से क़ायम बेहद पतली हालत के लिए ऐतिहासिक ग़रीबी, पिछड़ापन, मनुवादी और सामन्तवादी व्यवस्थाओं से भी कहीं अधिक ज़िम्मेदार इन प्रदेशों का चरमरा चुका पुलिस और न्याय-तंत्र है।
पुलिस, अदालतों का पतन बढ़ा
महिलाओं की सुरक्षा या कथित जंगलराज के लिहाज़ से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब जैसे राज्यों के हालात में सिर्फ़ उन्नीस-बीस का ही फ़र्क़ है। इन सभी राज्यों में काँग्रेसी सत्ता के दौरान पुलिस और अदालत का जो पतन हुआ वो अन्य पार्टियों की हुक़ूमत के दौरान सिर्फ़ कई गुना बढ़ा ही है, घटा कभी नहीं।
दमन और उत्पीड़न विरोधी क़ानूनों को संसद और विधानसभा में बनाने के बावजूद ज़मीनी हालात में अपेक्षित बदलाव इसीलिए नहीं हुआ क्योंकि वहाँ बदलते दौर की चुनौतियों से निपटने वाला पारदर्शी और जवाबदेह तंत्र मौजूद नहीं रहा। यही वजह है कि पुलिस वालों के निलम्बन या तबादलों और यहाँ तक कि सरकारों के बदलने से भी पुलिस और कोर्ट के दस्तूर में कोई सुधार नज़र नहीं आया।
जब मुख्यमंत्री बनते ही कोई ख़ुद के ख़िलाफ़ दर्ज़ गम्भीर अपराधों के मुक़दमों को पलक झपकते ख़त्म कर देगा तो पुलिस और अदालतों में इंसाफ़ क्या ख़ाक़ होगा!
कैसे मिलेगा इंसाफ़
जब सैकड़ों-हज़ारों लोगों के क़त्ल के साज़िशकर्ता राजनीतिक सत्ता के शीर्ष पर होंगे, जब दिनदहाड़े और डंके की चोट पर हुए अपराधों के क़िरदार अदालत से बाइज़्ज़त बरी हो जाएँगे, जब सुप्रीम कोर्ट जैसे न्याय के सर्वोच्च मन्दिर में क़ानून के मुताबिक़ नहीं बल्कि जनभावनाओं के अनुसार इंसाफ़ बाँटा जाएगा तो ये उम्मीद बेमानी है कि देश के गाँवों और शहरों में हमारी-आपकी बहन-बेटियाँ सुरक्षित रहेंगी।
सभी के राज में जंगलराज
बेक़ाबू अपराधों की समस्या किसी एक पार्टी से जुड़ी नहीं है। सभी का राज, जंगलराज जैसा ही है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़े सिर्फ़ पत्रकारों और विपक्ष के लोगों का दिल दहलाते हैं। सत्ता प्रतिष्ठान का नहीं। क्योंकि उसे मालूम है कि सच तो आंकड़ों से भी कहीं ज़्यादा भयावह है। कभी-कभार ‘राजनीति’ की नौबत आ जाती है, वर्ना सबको अपनी सत्ता में ‘सब चंगा सी’ वाला मंत्र ही सटीक लगता है। इसीलिए, भारतीय राजनीति को समझना होगा कि रोज़ाना के ‘निर्भया कांडों’ की रोकथाम तब तक असम्भव है जब तक पुलिस और अदालतों के दस्तूर में आमूलचूल बदलाव नहीं आएगा। राजनीति का अपराधीकरण, इस बदलाव की पहली और सबसे बड़ी बाधा है क्योंकि लोकतंत्र में हम जैसे लोगों को चुनते हैं, हमें वैसी ही सरकार मिलती है।
जब तक हमारे राजनीतिक दल राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करने और पुलिस तथा अदालती रिफ़ॉर्म यानी सुधार लाने के मुद्दे पर चुनाव नहीं लड़ेंगे तब तक हम किसी भी पार्टी की सरकार बनाते रहें, हमारे दिन नहीं फिरने वाले। क्योंकि ‘जुमलेबाज़ी का ढोंग’ भारतीय समाज की सनातन परम्परा रही है।
यहाँ बातें तो होंगी ‘वसुधैव कुटम्बकम्’ और ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’ की, लेकिन दुनिया को कुटुम्ब मानने का उपदेश देने वालों को न तो अल्पसंख्यक मुसलमान और मिशनरी बर्दाश्त होंगे और ना ही दलित समाज के लोग।
‘बेटी बचाओ’ ढोंग है
इसी तरह, ये मानना निपट ढोंग और पाखंड है कि ‘जहाँ नारी पूज्यनीय होगी वहीं देवता रहेंगे’। नारियों को पूज्यनीय बताने वाले वैदिक जुमलों का ही आधुनिक संस्करण है ‘बेटी बचाओ’। जिस परम्परा में देवी अहिल्या का सतीत्व हरने वाला सदियों से देवराज के आसन पर विराजमान हो, जहाँ नदियों को माता बताकर उनकी अस्मत तार-तार की जा रही हो, वहाँ ‘बेटी बचाओ’ से बड़ा ढोंग और क्या हो सकता है इसीलिए आज भारत में छह महीने से लेकर छियासी साल तक की नारियाँ भी महफ़ूज़ नहीं रहीं।
माना कि इन अपराधों को चन्द वहशी अंज़ाम देते हैं, लेकिन नदियों की दुर्दशा तो सारा का सारा समाज कर रहा है। इसके लिए भी क्या हम अँग्रेज़ों और तथाकथित विदेशी आक्रान्ताओं को ज़िम्मेदार ठहरा सकते हैं अँग्रेज़ तो हमारी नदियों को ऐसा जहरीला नहीं बना गये, जैसी वो आज हैं। मुग़ल, तुग़लक, ख़िलज़ी वग़ैरह ने भी हमारी नदियों, जंगलों और पर्यावरण का सत्यानाश नहीं किया तो फिर आज़ादी के बाद हमने पूरी ताक़त से अपने पर्यावरण को लूटने-खसोटने का रास्ता क्यों चुना
एक पार्टी की नीतियों ने यदि सारा सत्यानाश किया तो दूसरी पार्टी की सत्ता ने सुधार क्यों नहीं किया आज देश में कौन सी ऐसी अहम पार्टी है जिसने सत्ता-सुख नहीं भोगा है
दरअसल, बुर्ज़ुआ समाज ये साबित कर चुका है कि युगों के बदलने से भी सिर्फ़ हमारे जुमले बदलते हैं, हमारी उपमाओं का रस-भाव और अलंकार नहीं बदलता। शाश्वत ही बना रहता है।
पुलिस और न्यायतंत्र बेहतर होने ज़रूरी
बेहतर होता कि हम प्राणीजगत के अन्य जीवों की तरह नास्तिक ही रहते। कम से कम इंसान को इंसान तो समझते। हम देख चुके हैं कि मज़हबों ने इंसान को और क्रूर तथा वीभत्स ही बनाया है। राजनीति का अपराधीकरण भी इसी मानसिकता का अन्तिम संस्करण है। इससे उबरने के लिए ही ‘सभ्य समाज’ तथा ‘संविधान और क़ानून का राज’ की परिकल्पना की गयी थी। प्रमाणिक पुलिस और न्यायतंत्र इसी की अनिवार्य शर्त है। वर्ना, सब कुछ ‘एक्ट ऑफ़ गॉड’ ही बना रहेगा।
प्राचीन काल में सत्ता प्रतिष्ठान के शीर्ष का प्रतीक राजा या बादशाह, भेष बदलकर जनता का हाल जानने जाता था। क्योंकि मक़सद सच्चाई को जानने का था। आज बीजेपी को हाथरस में किसी का जाना पसन्द नहीं तो बंगाल में ममता को बीजेपी के खेल बर्दाश्त नहीं। अज़ब दस्तूर है! एक की ज़बरदस्ती नैतिक और लोकतांत्रिक तो दूसरे की अनैतिक और तानाशाहीपूर्ण। जब राजनीति ऐसे खोखले ढर्रों पर टिकी होगी तो नतीज़े भी खोखले ही मिलेंगे।
‘अन्धेर नगरी चौपट राजा’ वाली व्यवस्था में न्याय के लिए गले के अनुसार फन्दा नहीं बनाया जाता बल्कि फन्दे के साइज़ के मुताबिक़ गले को ढूँढा जाता है। न्याय के लिए सज़ा ज़रूरी है। लेकिन साफ़ दिख रहा है कि आधुनिक न्याय व्यवस्था में इसकी ज़रूरत ही नहीं रही।
‘एक्ट ऑफ़ गॉड’
अपराध हुआ। जाँच हुई। गिरफ़्तारी हुई। ज़मानत मिली। मुक़दमा चला। सभी ससम्मान बरी किये गये। फिर फ़रमान जारी हुआ कि इसे ही न्याय कहो। न्याय समझो। चीख़-चीख़कर दुनिया को बताओ कि यही है असली ‘एक्ट ऑफ़ गॉड’। अब ये आपकी मर्ज़ी है कि आप चाहें तो इस ‘गॉड’ को निराकार ‘ऊपरवाला’ समझें या फिर साकार ‘प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री’। दोनों रास्ते एक ही ‘गॉड’ पर जाकर ख़त्म होते हैं।
मीडिया की भूमिका को लेकर देखिए, वरिष्ठ पत्रकारों की चर्चा-
पहले ‘क़ानून का राज’ आए
एक देश के रूप में, एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में यदि हमें ‘भयमुक्त रामराज्य’ की कल्पना को साकार करना है तो सुपर हाईवे, हर घर में बिजली, शौचालय, 24 घंटा पानी, बुलेट ट्रेन, एयरपोर्ट, टनल, राफ़ेल और आत्मनिर्भर बनने जैसे तमाम आधुनिक और विश्वस्तरीय सुविधाओं वाले ‘विकास’ से पहले हमें ‘क़ानून के राज’ को स्थापित करके दिखाना होगा।
पुलिस और अदालत को सर्वोच्च प्राथमिकता देकर, इसमें सबसे अधिक निवेश करके और आमूलचूल सुधार लाकर ही हम समाज को जीने लायक और तरक्की करने के क़ाबिल बना पाएँगे। ये तभी सम्भव है कि जब हम ऐसी राजनीतिक पार्टी को सत्ता सौंपें जिसका सबसे पहला एजेंडा या चुनावी घोषणापत्र ‘पुलिस और न्यायिक क्रान्ति’ लाने का हो।
राजनीति से गंदगी साफ हो
हम देख चुके हैं कि राम मन्दिर, अनुच्छेद 370, नागरिकता संशोधन क़ानून, तीन तलाक़, मनरेगा, सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार जैसे क्रान्तिकारी परिवर्तनों की बुनियाद पार्टियों के चुनावी घोषणापत्रों से ही आयी है। इन बदलावों को लेकर मतान्तर होना स्वाभाविक है। लेकिन लोकतंत्र तो बहुमत से ही चलेगा। अलबत्ता, ज़रूरी नहीं कि बहुमत ‘नैतिक रूप से सही’ भी हो। इसीलिए यदि हमें ‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से खाये’ वाली दुर्दशा से बचना है तो राजनीति की बारीकियों को समझना ही होगा, इसकी गंदगी को साफ़ करना ही पड़ेगा।