जय श्रीराम आज की तारीख़ में एक राजनीतिक नारा भर नहीं है, वह अपने वर्चस्व का दंभ भरा उद्घोष भी है। इसे किसी इमारत को तोड़ते हुए, कोई दंगा करते हुए, कहीं आग लगाते हुए, किसी के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करते हुए- कहीं भी इस्तेमाल किया जा सकता है। यह उद्घोष किस तरह जाने-अनजाने एक नया अवचेतन बना रहा है, यह बीते दिनों ग़ाज़ियबाद के एक स्कूल में नज़र आया। एक बच्चे को पता नहीं क्या सूझी कि उसने अपनी डेस्क पर लिख दिया- जय श्रीराम।
बच्चे शरारतें करते हैं। शिक्षक ही उनके इम्तिहान नहीं लेते, वे भी कई बार शिक्षकों के धीरज का इम्तिहान ले लेते हैं। वे बोर्ड और बेंच पर भी तरह-तरह के अक्षर और चित्र उकेर दिया करते हैं। कभी वे बच निकलते हैं और कभी इसकी सज़ा पाते हैं। गाज़ियाबाद के स्कूल में डेस्क पर जय श्रीराम लिखने वाला बच्चा बच नहीं पाया। उसे शिक्षिका ने सज़ा दी- शायद कुछ सख़्त सज़ा।
कायदे से कहानी यहीं ख़त्म हो जानी चाहिए थी। लेकिन हुई नहीं। बच्चे ने घर जाकर अपने परिवारवालों को यह बात बताई और परिवारवालों ने बजरंग दल वालों को। इसके बाद हिंदूवादी संगठन स्कूल के बाहर प्रदर्शन करने पहुंच गए। नौबत यह आई कि शिक्षिका को स्कूल से निकाल दिया गया। इसके बाद शांति है।
अच्छा होता, शिक्षिका ने बच्चे को सज़ा न दी होती। उसे समझाया होता कि पढ़ाई के समय ध्यान पढ़ाई पर होना चाहिए, ऐसी बातों पर नहीं। लेकिन बच्चों को सज़ा नहीं दी जानी चाहिए- इस बात पर लगभग वैचारिक सर्वानुमति के बावजूद स्कूलों में बच्चों को सज़ा दी जाती है। गाजियाबाद के स्कूल की शिक्षिका ने बस इस परिपाटी का पालन किया। उनको शायद यह एहसास नहीं रहा होगा कि उनकी सख़्ती ख़ुद उन्हें भारी पड़ेगी।
लेकिन उन्हें किस बात की सज़ा मिली? बच्चे को सज़ा देने की? या डेस्क पर जय श्रीराम लिखने को ग़लत मानने की? शुक्र है कि वह किसी और धार्मिक समुदाय की शिक्षिका नहीं थी वरना जो सांप्रदायिक मनोवृत्ति हमने इन दिनों विकसित की है, उसकी चपेट में यह मामला भी आ जाता। लेकिन इसका चिंताजनक पहलू दूसरा है। इस पूरे प्रसंग में बजरंग दल की उपस्थिति इसे एक अलग रंग देती है। इससे लगता है कि बच्चा क्लास में कोई धार्मिक कृत्य कर रहा था और किसी अधार्मिक शिक्षक ने उसे रोकने की कोशिश की।
इसका अगला संदेश यह है कि आगे भी बच्चे अगर जय श्रीराम या इससे मिलते-जुलते नारे बेंच या बोर्ड पर लिखें तो शिक्षक उनसे आंखें मूंद लें। इसका एक छुपा हुआ निहितार्थ यह भी है कि जय श्रीराम कहना या लिखना अपने लिए सुरक्षा की गारंटी है।
मान कर चलना चाहिए कि जिस बच्चे ने जय श्रीराम लिखा होगा, वह कहीं से सांप्रदायिक नहीं होगा। उसे इसमें कोई गंभीर बात नहीं लगी होगी। लेकिन इसके बाद का जो घटनाक्रम है- सज़ा से लेकर हिंदूवादी संगठनों के प्रदर्शन और शिक्षक के निकाले जाने तक- उसने बच्चे के दिमाग में जय श्रीराम को लेकर एक अलग भाव ज़रूर पैदा किया होगा। संभव है, उसे लगा हो कि यह तो वाकई रामबाण है- इसके बाद शिक्षक डांटना-पीटना छोड़ देते हैं। आने वाले दिनों में वह इसके अन्य अर्थ और उपयोग भी सीखता चलेगा और मौजूदा सांप्रदायिक माहौल का एक उपयोगी पुर्जा बन जाएगा।
फिलहाल इस आशंका को भी छोड़ देते हैं। यह देखते हैं कि इस घटना के बाद स्कूल पर या स्कूलों पर क्या असर पड़ेगा। हमारे स्कूलों में बहुत सारी अराजकताएं हैं। शिक्षा नीति नई हो या पुरानी- उस पर अमल के पूरे साधन तक नहीं हैं। सरकारी स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक नहीं हैं तो निजी स्कूलों में कम पैसे पर काम कराने के लिए आधी-अधूरी समझ वाले शिक्षक भरे पड़े हैं। इसके अलावा शिक्षकों पर पढ़ाई कराने से ज्यादा दूसरे कामकाज का दायित्व है। इन सबके बावजूद बच्चे किसी तरह पढ़ ले रहे हैं और आधुनिक ज्ञान विज्ञान का दरवाज़ा खोलने की कोशिश में हैं तो इसका श्रेय उस पूरे माहौल को जाना चाहिए जिसमें स्कूल नए ज्ञान-विज्ञान का, नई शिक्षा का केंद्र माने जाते हैं और अंततः शिक्षक कुछ सिखाते हैं और बच्चे कुछ सीखते हैं।
मगर जब कोई धार्मिक या सांप्रदायिक संगठन स्कूलों मे आकर हस्तक्षेप करे और स्कूल पदाधिकारियों में यह साहस न रहे कि वे उसका प्रतिरोध करें तो स्थिति कुछ विषम हो जाती है। आज जय श्रीराम का नाम लिखने का मामला है। कल जय श्रीराम को पढ़ाने का सवाल उठ सकता है। इसके बाद धार्मिक मान्यताओं को वैज्ञानिक साबित करने का जो अधकचरा शास्त्र हमने विकसित किया है, वह वास्तविक प्रयोगों की जगह ले सकता है।
इस धर्म में थोड़ा राष्ट्र-गौरव का मसाला शामिल कर लें तो न्यूटन-आइंस्टीन पश्चिमी सभ्यता की देन बताए जा सकते हैं। डार्विन की पढ़ाई बंद की जा सकती है क्योंकि वह सभ्यता के विकास की सारी मान्यताओं को पलट देता है।
यह बहुत दूर की कौड़ी नहीं है। कई देशों में डार्विन को नहीं पढ़ाया जाता। कई देशों में उसे कुछ व्यंग्य के साथ प्रस्तुत किया जाता है। बस 25 दिन पहले पाकिस्तान के ख़ैबर पख़्तूनख्वा के एक पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज के शिक्षक को डार्विन को पढ़ाने पर माफ़ी मांगनी पड़ी। यही नहीं, वहां एक सरकारी सर्कुलर जारी हुआ है जिसमें फेमिनिज़्म की पढ़ाई पर भी चिंता जताई गई है।
भारत के स्कूल-कॉलेजों में भी यह करना बहुत मुश्किल काम नहीं होगा। शिक्षकों और छात्र-परिवारों की बहुत बड़ी तादाद है जो ज्ञान-विज्ञान-चिकित्सा और इतिहास के नाम पर बहुत सारी अवैज्ञानिक क़िस्म की धारणाओं को बिल्कुल गले लगाए बैठी है और एक इशारा मिलते उसे राष्ट्रीय गौरव से जोड़ कर पाठ्यक्रम का हिस्सा बना सकती है। कुल मिलाकर ऐसा माहौल बनता जा रहा है जिसमें लोग नई सोच, नए शोध, नई पद्धतियों और नई खोजों के लिए काम करने में डरें।
एक स्कूल के भीतर जय श्रीराम लिखने के साथ पैदा हुआ विवाद इसी माहौल की देन है। यह एक इशारा है कि हमारी शिक्षा पर किस तरह का वर्चस्ववाद हावी हो रहा है। अगर हम इस प्रवृत्ति के विरुद्ध साहसपूर्वक खड़े नहीं हुए तो आने वाले दिनों में हमें कहीं और बेतुके फ़ैसले झेलने होंगे, कई बेमानी सज़ाएं भुगतनी होंगी।