ज्ञानवापी: हिन्दू-मुसलिम विवाद बनाने की कोशिश?

09:25 am May 23, 2022 | समी अहमद

ज्ञानवापी मस्जिद पर अदालती कार्रवाई की रिपोर्टिंग में धड़ल्ले से एक पक्ष को हिन्दू पक्ष और दूसरे को मुसलिम पक्ष लिखा-बताया जा रहा है। खैरियत है कि इसमें पक्ष जोड़ दिया गया है और सीधे हिन्दू-मुसलमान नहीं लिखा गया लेकिन जिस तरह से इसे हिन्दू और मुसलिम पक्ष का मामला बताया जा रहा है, वह हिन्दू-मुसलमान करने जैसा ही है।

ज्ञानवापी मस्जिद का मामला बाबरी मस्जिद जैसा ही बनता जा रहा है। दोनों मामलों में एक मस्जिद पक्ष था और है जबकि एक पक्ष मन्दिर का दावा करने वालों का है। 

क्या यह विवाद बतौर मुसलमान और हिन्दू समुदाय अदालत तक पहुंचा है? यह विवाद तो हिन्दुत्व की राजनीति करने वालों का एजेंडा है। और इस एजेंडे में अंतहीन मस्जिद और इमारतें हैं।

यहां यह बात सोचने की है कि क्या हम एक राजनीतिक एजेंडे को हिन्दू पक्ष कह सकते हैं? अधिक से अधिक मस्जिद पक्ष और मन्दिर पक्ष कहा जा सकता है। लेकिन मीडिया में रिपोर्टिंग करने वाले और उनके संपादकों की यह नीति समझ से परे है कि इसे हिन्दू और मुसलिम पक्ष के रूप में पेश किया जाए।हिन्दू या मुसलिम पक्ष तब लिखा जाना तो समझ में आता है जब कोई मामला कोर्ट में इसी रूप में जाए। यहां तो मंदिर का दावा करने वाले पक्ष की ओर से वादी हैं और जवाब में मस्जिद पक्ष के लोग हैं।

एक मस्जिद को मंदिर बताये जाने के दावे पर जब कोई मामला अदालत में पहुंचता है तो इसे मुसलिम पक्ष और हिन्दू पक्ष बताने का पहला प्रयास हिन्दुत्व की राजनीति करने वाले और उनके पक्षधरों का रहता है। इससे इस मुद्दे पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने में बहुत आसानी होती है।दिलचस्प बात यह है कि वैसे संपादक भी अपने यहां हिन्दू पक्ष और मुसलिम पक्ष लिखते हैं जो नफरत के मामलों में साम्पद्रायिक आधार पर सम्प्रदाय का नाम नहीं लिखने को बेहतर नीति बताते हैं।

नीमच का मामला

मध्य प्रदेश के नीमच में एक जैन व्यक्ति को उसके मुसलमान होने के शक में पीट-पीट कर मार दिया गया लेकिन कई जगहों पर इसकी रिपोर्टिंग में यह तथ्य गायब कर दिया गया। हालांकि वहां कारण स्पष्ट था। इस मामले में उनकी दलील रहती है कि इससे तनाव बढ़ेगा। 

लेकिन एक मस्जिद के मामले में हिन्दू पक्ष और मुसलिम पक्ष लिखने से जो तनाव बढ़ता है, उसका उन्हें क्यों ख्याल नहीं रहता। वास्तव में, संपादकों को सरकार की लाइन लेनी होती है लेकिन कहीं तो इस पर सवाल उठना चाहिए।

मीडिया की नीयत पर इसलिए भी शक जाता है कि मन्दिर का दावा करने वालों के शिवलिंग मिलने के दावे को उन्होंने उसी पक्षकार के तौर पर छापा। उन्होंने इसे दावे के तौर पर नहीं बल्कि अंतिम सत्य के रूप में छापा-बताया।

वास्तव में यह जनमानस तैयार करने की साजिश है जो संपादकों के जरिए हिन्दुत्ववादी तत्व करवा रहे हैं। कायदे से तो उन्हें कुछ ऐसा लिखना चाहिए था कि मंदिर पक्ष का दावा- शिवलिंग मिला, मस्जिद पक्ष कह रहा- फव्वारा। 

जब मामला अदालत में था, तो इस दावे को छापने-दिखाने का मकसद क्या था? इस मामले में साफ-साफ शिवलिंग मिलने की बात लिखने पर संपादकों को तनाव बढ़ने का खतरा नजर नहीं आया?

गुमराह करने की कोशिश

इसके साथ ही अभी से ज्ञानवापी मस्जिद को ज्ञानवापी परिसर लिखा-बताया जाने लगा है जबकि कानूनी तौर पर वह अब भी ज्ञानवापी मस्जिद है। यही हथकंडा बाबरी मस्जिद के मामले में अपनाया गया था। उसे बाबरी मस्जिद से बाबरी ढांचा बताकर आम हिन्दुओं को गुमराह करने में मीडिया के एक बड़े वर्ग ने हिन्दुत्ववादी राजनैतिक संगठनों के कंधे से कंधा मिलाया। 

बाबरी मस्जिद विवाद

बाबरी मस्जिद में भी पहले धोखे से मूर्तियाँ रखी गयीं और बाद में और निर्माण कराये गये और फिर यह दावा किया जाने लगा कि वहां तो नमाज हो ही नहीं रही थी। इसीलिए, ज्ञानवापी मस्जिद को भी हिन्दू पक्ष और मुसलिम पक्ष का मामला बनाया जा रहा है जबकि यह  अदालत में मन्दिर का दावा करने वाले और मस्जिद पक्ष के लोगों के विवाद के तौर पर दर्ज किया गया है।

बाबरी मस्जिद के वक्त भी यह राय आयी थी कि इसे स्थानीय तौर पर सुलझाया जाए लेकिन हिन्दुत्व के एजेंडे को यह बात स्वीकार नहीं थी। इसके जवाब में मुसलिम संगठनों ने भी जो कदम उठाये, उसने इसकी स्थानीयता खत्म कर दी और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं खासकर लाल कृष्ण आडवाणी के लिए यह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण वोट पाने का सबसे बड़ा जरिया बन गया।

वास्तव में अभी इसे हिन्दू पक्ष और मुसलिम पक्ष बताया जा रहा है लेकिन समय गुजरने के साथ मुखर रूप से इसे हिन्दू अस्मिता और धार्मिक आस्था का विषय बनाए जाने की साजिश है, जिसे पहले से भी कहा जाता रहा है।

बयानबाज़ी से बचने की सलाह 

इस बीच जमीयतुल उलेमा ने भी इस मामले में बयानबाजी से बचने और सार्वजनिक प्रदर्शन न करने की अपील जारी की है। शायद इस बार उन्हें इस बात का अंदाजा है कि ज्ञानवापी मस्जिद के मुद्दे को हिन्दू-मुसलिम मुद्दा बनाने की पूरी साजिश तैयार है।

ज्ञानवापी मस्जिद के मामले के साथ साथ मथुरा की ईदगाह का मामला भी अदालत पहुंच चुका है। हालांकि 1991 का पूजा स्थल अधिनियम मोटे तौर पर यह कहता है कि 1947 में जिस धर्मस्थल का जो स्वरूप था, उसे बिल्कुल नहीं छेड़ा जाएगा। इसके बावजूद यह सिलसिला जारी है और हैरतअंगेज तौर पर निचली अदालतें इस कानून के रहते मस्जिदों पर हिन्दुत्ववादी तत्वों के दावों को सुनवाई के लिए स्वीकार कर रही हैं।

जो बात कानून के मामूली जानकारों को मालूम है, वह न्यायधीशों को नहीं मालूम, ऐसा तो नहीं हो सकता लेकिन ऐसी याचिकाओं को स्वीकार करना उनकी योग्यता और नीयत दोनों पर प्रश्न चिह्न है।

सुप्रीम कोर्ट ने ज्ञानवापी मस्जिद के मामले की सुनवाई के दौरान संतुलन की बात कही है। क्या यह उचित नहीं होगा कि उसकी ओर से यह स्पष्ट निर्देश दिया जाए कि ज्ञानवापी मस्जिद मामले में दोनों पक्षों को हिन्दू और मुसलिम पक्ष न लिखा जाए बल्कि सिर्फ मस्जिद और मंदिर पक्ष बताया जाए।