सोशल मीडिया पर एक तसवीर बहुत ज़्यादा चलाई जा रही है- इसमें आंदोलन कर रहे किसानों के हाथों में भीमा कोरेगाँव, शाहीनबाग़ और दिल्ली दंगों के लिए गिरफ्तार किए गए लोगों के पोस्टर हैं। इसके साथ ही पूछा जा रहा है कि संसद में पास किए गए तीन कृषि बिलों का इन गिरफ्तार नेताओं से क्या लेना देना। जाहिर है कि इस तसवीर से बीजेपी और उससे जुड़े संगठनों को आंदोलन के ख़िलाफ़ बोलने का एक और तर्क मिल गया है। अभी तक इस आंदोलन को एक साज़िश की तरह बताने की बहुत सी कोशिशें की गई हैं और उसके लिए यह तसवीर अब सबूत की तरह पेश की जा रही है।
यह सच है कि इन गिरफ्तार नेताओं का तीनों बिलों या किसान आंदोलन से सीधा कोई लेना देना भले ही न हो पर यह ज़रूर सोचा जा सकता है कि अगर ये नेता आज जेल में न होते तो आज दिल्ली के सिंघु बॉर्डर या टीकरी बॉर्डर पर आंदोलनकारी किसानों के साथ खड़े होते। एक दूसरा नाता यह भी है कि ये सभी नेता या कार्यकर्ता मुख्यधारा की राजनीति से अलग जिस तरह के सक्रिय समूहों का हिस्सा हैं, इस समय देश भर में चल रहा किसान आंदोलन भी काफ़ी कुछ उसी तरह का है। यह बात अलग है कि पीछे जाकर देखें तो न तो दोनों की वैचारिक पृष्ठभूमि आपस में कहीं जुड़ती दिखाई देती है और न ही कोई ऐसी सांगठनिक धाराएँ हैं जो एक-दूसरे को जोड़ती हैं।
गिरफ्तार नेताओं के जिन पोस्टरों पर आपत्ति व्यक्त की जा रही है वे आंदोलन के 14 दिन के बाद दिखाई दिए हैं। ये पोस्टर आंदोलन और किसानों के नज़रिये में आ रहे बदलाव के बारे में क्या कहते हैं इसे ठीक से समझने के लिए हमें 1974 के गुजरात में जाना होगा।
उस साल वहाँ एक छात्र आंदोलन हुआ था। आंदोलन की शुरुआत एक छोटी सी बात से हुई थी। मामला सिर्फ़ इतना था कि वहाँ हॉस्टल में मेस फ़ीस बढ़ा दी गई और छात्र इसका विरोध कर रहे थे। यह विरोध जब बढ़ा और लगातार बना रहा तो उसमें नई माँगें जुड़ती गईं।
कई संगठन और दूसरे काॅलेज-विश्वविद्यालय भी जुड़ते गए। फिर उस पूरे आंदोलन ने जो रूप लिया उसे हम संपूर्ण क्रांति आंदोलन के नाम से जानते हैं।
दुनिया में ऐसे कई आंदोलन
ऐसा इतिहास में कई बार और दुनिया में बहुत सी जगहों पर हुआ है। कई बार आंदोलन बहुत छोटी सी माँग और यहाँ तक कि बहुत छोटे से स्वार्थ से शुरू होते हैं लेकिन जब वे अपना अस्तित्व लंबे समय तक बनाए रखते हैं तो उनका नज़रिया बदलता है और वे व्यापक हितों से जुड़ते जाते हैं। समाजशास्त्र की भाषा में इसे ‘पर्सनल विल’ से ‘जनरल विल’ की ओर जाना भी कहा जा सकता है। यह भी कहा जाता है कि ऐसे आंदोलन समाज को राजनीतिक परिपक्वता भी देते हैं और उसे लोकतांत्रिक परंपराओं में भी बांधते हैं। इसका सबसे बढ़िया उदाहरण देश का स्वतंत्रता आंदोलन है। देश भर में चल रहा किसान आंदोलन भी इस समय कुछ-कुछ इसी दिशा में बढ़ता दिखाई दे रहा है।
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अगर किसानों की माँगें पहले ही दिन मान ली गई होतीं या किसी तरह के समझौते के बाद उनके ग़ुस्से को शांत करते हुए उन्हें वापस भेज दिया गया होता तो शायद यह सब नहीं हो पाता। आंदोलन लंबा खिंचने से आंदोलनकारियों की सोच की ज़मीन और उम्मीदों के आसमान को नया विस्तार मिल गया है।
जब यह आंदोलन शुरू हुआ तो उसके नायकों में गदर पार्टी के नेता, भगत सिंह और उधम सिंह जैसे स्वतंत्रता संग्राम के शहीद थे, लेकिन अब नायकों की यह फेहरिस्त लगातार लंबी हो रही है।
अभी हमें पता नहीं है कि यह आंदोलन कितना लंबा चलेगा। सरकारें आमतौर पर ऐसे आंदोलनों को थका कर ख़त्म करने की कोशिश भी करती हैं। कितनी माँगें मानी जाएँगी और कितनी नहीं, यह भी अभी नहीं कहा जा सकता। लेकिन एक बात तय है कि दिल्ली की सीमाओं पर डटे ये किसान जब अपने खेतों पर लौटेंगे तो व्यवस्था और संगठित होने की अपनी क्षमताओं के बारे में उनका नज़रिया बदला हुआ होगा। अगर हम इसे सरकार और प्रशासन के नज़रिये से न देखें तो लोकतंत्र के हिसाब से यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है।