पाँच राज्यों में चुनाव पर पुनर्विचार: आयोग की विश्वसनीयता ही सबसे बड़ा संकट

10:01 pm Dec 31, 2021 | प्रेम कुमार

चुनाव आयोग की नींद वाक़ई खुल गयी है? आयोग ने केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव के साथ 27 दिसंबर को बैठक की। ओमिक्रॉन के ख़तरे को देखते हुए स्थिति की गंभीरता का अब आयोग आकलन करेगा और फिर उस आधार पर निर्णय लेगा कि पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव रोका जाना चाहिए या नहीं। मगर, फ़ैसला लेने में सबसे बड़ी बाधा खुद चुनाव आयोग की विश्वसनीयता है।

आयोग के फ़ैसले पर सबकी नज़र रहेगी। चुनाव आयोग चाहे जो फ़ैसला करे- उसका विरोध भी होना तय है। वजह है अविश्वास। यह अविश्वास इतना गहरा हो चुका है कि यह विश्वास कर पाना मुश्किल होगा कि लिया गया फ़ैसला सचमुच चुनाव आयोग का है।

पहली और तीसरी लहर से पूर्व की स्थिति

ओमिक्रॉन के मामलों की संख्या 500 से कम है जब चुनाव आयोग पांच राज्यों में चुनाव कराने के फ़ैसले की समीक्षा करने से पहले स्वास्थ्य विभाग के साथ बैठक करने जा रहा है। जब देश में लॉकडाउन हुआ था तब भी कोरोना संक्रमण की तादाद 550 से कम थी। मगर, तब और अब की स्थिति में बड़ा फर्क आ चुका है।

एक समय था जब यूपी में पंचायत चुनाव रोकने को इलाहाबाद हाईकोर्ट कह रहा था लेकिन कोई सुनने वाला नहीं था। पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार के दौरान खुली रैलियों और चुनाव आयोग की सुस्ती पर मद्रास हाईकोर्ट की टिप्पणी यादगार रहेगी-

“चुनाव आयोग के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज किया जाना चाहिए। सबसे ज़्यादा ग़ैर ज़िम्मेदार संस्था।”

यूपी पंचायत चुनाव में 2 हजार से ज्यादा मौत!

पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद दूसरी लहर देश ने देखी थी। पंचायत चुनाव की ड्यूटी करते दो हज़ार से ज़्यादा शिक्षक और कर्मचारी मौत के मुंह में समा गये। कभी चुनाव आयोग ने चुनाव रोकने को लेकर कोई बैठक या सलाह-मशविरा की ज़रूरत नहीं समझी। चुनाव आयोग इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज शेखर कुमार यादव की टिप्पणी को गंभीरता से ले रही है तो आयोग की यह सतर्कता भी सवालों से परे नहीं है। आखिर यही आयोग दूसरी लहर से पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट की टिप्पणियों पर सक्रिय नहीं हुई थी।

क्या चुनाव आयोग की सक्रियता या निष्क्रियता के पीछे सत्ताधारी दल बीजेपी रही है? अगर जवाब ‘हां’ में है तो निश्चित रूप से पांच राज्यों में चुनाव रोकने का फैसला तभी होगा जब बीजेपी के लिए चुनाव मैदान में उतरना बहुत मुफीद नहीं रह गया हो।

इसमें संदेह नहीं कि सभी पांच राज्यों में बीजेपी के लिए निश्चित जीत वाली स्थिति नहीं है। लगातार सामने आ रहे चुनाव पूर्व सर्वे बता रहे हैं कि विगत चुनावों के मुकाबले बीजेपी की स्थिति मतदाताओं के बीच बहुत अच्छी नहीं है। लेकिन, क्या चुनाव रोकने से बीजेपी को फायदा होगा?

बीजेपी के लिए क्या ठीक है चुनावों का टलना?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और यूपी-उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री जिस तरीक़े से योजनाओं का शिलान्यास कर रहे हैं, हजारों करोड़ की योजनाओं की घोषणाएं हो रही हैं और सरकारी दौरों पर चुनावी रैलियाँ हो रही हैं, इन सब प्रयासों पर पानी फिर जाएगा अगर चुनाव टलते हैं। चुनाव टलने को ‘मैदान छोड़ने’ के तौर पर भी देखा जा सकता है। ‘रणछोड़’ की छाप अगर लग गयी तो आगे चुनाव में बीजेपी की मुश्किलें और भी बढ़ जाएंगी। इसलिए बीजेपी नेतृत्व चुनाव टालने वाले विकल्प पर बहुत खुशी के साथ अमल करना नहीं चाहेगी।

अगर चुनाव टलते हैं तो राज्यों में निश्चित अवधि के बाद मुख्यमंत्रियों को अपने-अपने पदों पर बने रहना मुश्किल हो जाएगा। राष्ट्रपति शासन लागू करना अनिवार्य हो जाएगा। यह स्थिति बीजेपी की राजनीतिक आकांक्षा को पूरा करने के हिसाब से मुफीद रहेगी। 

लेकिन, बीजेपी के लिए दिक्कत यह है कि यूपी जैसे प्रदेश में योगी आदित्यनाथ जैसे महत्वाकांक्षी नेता अपने नेतृत्व में चुनाव नहीं होने जैसी स्थिति को पार्टी में अपने ख़िलाफ़ षडयंत्र के रूप में देख सकते हैं।

चूँकि योगी आदित्यनाथ को पदमुक्त करने की अंदरूनी कोशिशें बीजेपी के भीतर परवान नहीं चढ़ सकी हैं इसलिए एक बार फिर यह कोशिश कामयाब होगी- इसकी उम्मीद बहुत कम है। जाहिर है कि चुनाव टालने की कोशिशों के सफल होने में यह वजह भी बड़ी वजह है।

कोविड प्रोटोकॉल के नाम पर होगा खेल?

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या चुनाव आयोग फिजूल की कवायदों में जुटा है? वास्तव में चुनाव आयोग स्थिति की गंभीरता देश के सामने लाएगा और उस आलोक में चुनावी प्रक्रिया को कोरोना से लड़ाई के अनुरूप बनाने की पहल करेगा। बीजेपी यही चाहती है। जाहिर है कि लोकतंत्र में ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाली कहावत पूरी तरह से चरितार्थ होता आया है।

चाहे बिहार में हुआ चुनाव हो या फिर बंगाल का चुनाव- चुनाव आयोग कभी सामान्य कोरोना नियम भी पालन नहीं करा पाया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक की रैली पर आयोग कभी सवाल उठा नहीं सका था। 

संसद तक में कोविड प्रोटोकॉल सत्ताधारी दल के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करता दिखा। चुनाव के दौरान भी कोविड प्रोटोकॉल का पालन सत्ताधारी दल और विपक्ष के लिए समान रूप से लागू होगा, कहा नहीं जा सकता। इसके अलावा वोट डालने की प्रक्रिया में भी नये नियम थोपे जा सकते हैं। यहां तक कि कई लोग ऑनलाइन वोटिंग की भी वकालत करने लग गये हैं। अगर कोई ऐसा नियम बनाने की कोशिश में आयोग जुटता है जिससे मतदान प्रक्रिया को प्रभावित करने का ख़तरा पैदा हो जाए तो इसका विरोध होगा। 

मगर, ऐसे कदम सत्ताधारी बीजेपी के लिए मनभावन होंगे। 

पांच राज्यों में होने वाले चुनाव में ओमिक्रॉन किसके लिए ख़तरा बनने वाला है और किसके लिए फायदेमंद- अभी कहना मुश्किल है। चुनाव आयोग की कवायद सत्ताधारी दल की इच्छा से कितना स्वतंत्र रह पाती है- यह महत्वपूर्ण बात है। मगर, इतना तय है कि चुनाव आयोग की विश्वसनीयता ऐसी नहीं है कि उसके फैसले को विपक्ष सच्चे मन से स्वीकार कर ले। उंगली तो उठेगी ही।