देश के डॉक्टरों ने हड़ताल कर दी है। किसान आंदोलन के बाद अब यह डॉक्टर आंदोलन शुरू हो गया है। इन दोनों आंदोलनों का आधार ग़लतफहमी है। इस ग़लतफहमी का कारण किसान और डॉक्टर नहीं है़। उसका कारण हमारी सरकार है। उसका अहंकार है। वह जो कुछ कर रही है, वह देश के भले के लिए कर रही है। लेकिन इसके पहले कि वह कोई क्रांतिकारी क़दम उठाए, वह उससे प्रभावित होनेवाले लोगों से बात करना ज़रूरी नहीं समझती। जो उसे ठीक लगता है या अफ़सर जो चाबी घुमाते हैं, सरकार आनन-फानन उसकी घोषणा कर देती है।
अब उसने घोषणा कर दी है कि आयुर्वेदिक अस्पतालों में भी शल्य-चिकित्सा होगी। यह ठीक है कि ऐसी दर्जनों छोटी-मोटी शल्य-क्रियाएँ हमारे वैद्यगण सदियों से करते चले आए हैं। उन्हें अभी सिर्फ़ नाक, कान, आँख, गले आदि की ही सर्जरी की अनुमति दी गई है। मष्तिष्क और दिल आदि की नहीं लेकिन हमारे डॉक्टर इस पर बहुत खफा हो गए हैं। उनकी हड़ताल का कारण मुझे समझ में नहीं आ रहा है। वे कह रहे हैं कि इस अनुमति से मरीज़ों की जान को ख़तरा हो जाएगा। उन्हें मरीजों की जान का ख़तरा है या उनका धंधा चौपट होने का ख़तरा है
एलोपैथी की सर्जरी काफ़ी सुरक्षित होती है लेकिन वह इतनी ख़र्चीली है कि देश का आम आदमी उसकी राशि सुनकर ही कांप उठता है। अब डॉक्टर इसलिए कांप रहे हैं कि यदि वही काम वैद्य करने लगेंगे तो उनका पाखंड ख़त्म हो जाएगा। देश के ग़रीब, ग्रामीण और पिछड़े लोगों को भी शल्य-चिकित्सा का लाभ मिलने लगेगा। आयुर्वेद में शल्य-चिकित्सा सदियों से चली आ रही है जबकि एलोपैथी को तो सवा सौ साल पहले तक मरीज को बेहोश करना भी नहीं आता था।
डॉक्टरों को सबसे बड़ा धक्का इस बात से लगा है कि अब ये वैद्य उनके बराबर हो जाएँगे। पश्चिमी एलोपैथी और अंग्रेजी माध्यम की श्रेष्ठता ग्रंथि ने उन्हें जकड़ रखा है।
इस दिमागी गुलामी से उबरने की बजाय वे इस नई पद्धति को ‘मिलावटीपैथी’ कह रहे हैं। मैं तो चाहता हूँ कि भारत में इलाज की सभी पैथियों को मिलाकर, सबका लाभ उठाकर, डॉक्टरी का एक नया पाठ्यक्रम बनाया जाए, जिसका अनुकरण सारी दुनिया करेगी। लेकिन वैद्यों और हकीमों को शल्य-चिकित्सा का अधिकार देने के पहले सरकार को चाहिए कि वह उन्हें मेडिकल सर्जनों से भी अधिक कठोर प्रशिक्षण दे। हड़बड़ी में कोई फ़ैसला न करे।
(डॉ. वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग www.drvaidik.in से साभार)