हमारी सरकार अब 'न्यूज' को ‘क्लिक' करना सीख गयी है। सरकार को हर न्यूज में दिलचस्पी रहती है क्योंकि हर न्यूज सरकार का बल्ब फ्यूज करने का काम करती है। इस बार सरकार के निशाने पर सचमुच में 'न्यूज क्लिक' ही है।
सरकार यानी दिल्ली पुलिस ने ‘न्यूज़क्लिक’ के सौ से ज्यादा ठिकानों पर छापेमारी की और न्यूज के तमाम स्रोतों से जुड़ी सामग्री को अपने कब्जे में ले लिये। इतना ही नहीं, ऐसा करने के बाद न्यूज़क्लिक करने वाले उर्मिलेश और अभिसार को भी पूछताछ के लिए अपना मेहमान बना लिया। न्यूज़क्लिक पर बड़ा संगीन आरोप है कि उसने हमारी संप्रभु सरकार के ख़िलाफ़ काम करने के लिए चीन से 38 करोड़ रुपया हासिल किया। पुलिस की इस कार्रवाई को पूरा मीडिया जगत अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला मान कर चल रहा है लेकिन मुझे लगता है कि इस कार्रवाई का मक़सद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्तेमाल करने वाले तमाम लोगों को हड़काने भर की है क्योंकि पांच राज्यों के चुनाव सिर पर हैं और कुछ ही महीने बाद आम चुनाव भी होना है।
‘न्यूज़क्लिक’ के बारे में कुछ बताने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि बीते 24 घंटे में मीडिया में दिलचस्पी रखने वाले अधिकांश लोग सर्च इंजिनों के ज़रिये न्यूज़क्लिक को खंगाल चुके हैं। न्यूज़क्लिक में जाहिर है कि केवल और केवल न्यूज़ बनती है, और बेची जाती है। न्यूज़क्लिक पर जो आरोप हैं वे एकदम ताजा नहीं हैं। दो साल पुराने हैं। पुलिस चाहती तो दो साल में इस मामले को दाखिल दफ्तर कर सकती थी या जो कार्रवाई उसने मंगलवार को की उसे पहले ही अंजाम दे सकती थी। दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल को ऐसे ही संगीन मामले कार्रवाई के लिए सौंपे जाते हैं। दिल्ली पुलिस की तारीफ़ करना चाहिए कि उसे जो टास्क दिया जाता है उसे वो प्राणपण से पूरा करने की कोशिश करती है।
दिल्ली पुलिस को मीडिया की अभिव्यक्ति की आजादी-वाजादी से कुछ लेना-देना नहीं है। उसे तो अपने आकाओं के हुक्म को तामील करना है। दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने राजधानी दिल्ली और उससे सटे एनसीआर में न्यूज़क्लिक वेबसाइट के पत्रकारों के ठिकानों पर रेड डाली व न्यूज़क्लिक का दफ्तर सील कर दिया। यह कार्रवाई फॉरेन फंडिंग के मामले में यूएपीए के तहत की जा रही है। देश में मीडिया को विदेशी पूँजी निवेश की छूट है। ये छूट भी सरकार ने दी है। आप 26 फीसदी विदेशी निवेश ले सकते हैं लेकिन सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए इस निवेश का इस्तेमाल करेंगे तो पकड़े जायेंगे।
न्यूज़क्लिक पर आरोप है कि उसने बजरिये अमेरिका चीन से 38 करोड़ रुपये लेकर अपनी बेवसाइट के ज़रिये देश में सरकार विरोधी माहौल बनाना शुरू किया। अब भला कोई भी सरकार ये कैसे बर्दाश्त कर सकती है। कांग्रेस की सरकार भी होती तो वो भी यही सब करती जो भाजपा की सरकार यानी उसकी पुलिस कर रही है। देश में इससे पहले भी पुलिस इसी तरह के मामलो में कार्रवाई कर चुकी है। मुझे याद नहीं आता कि किसी को भी फांसी पर चढ़ाया गया हो। सरकार सिर्फ धमकाती है, आँखें दिखाती है और सब कुछ भूल जाती है।
न्यूज़क्लिक के प्रबीर पुलकायस्थ को भी फांसी पर नहीं चढ़ाया जायेगा। लेकिन तब तक देश के मीडिया को ये सन्देश दे दिया जाएगा कि कृपया सरकार के पक्ष में वातावरण नहीं बना सकते तो खिलाफ में भी मत बनाइये। और मुझे लगता है कि सरकार का मक़सद पूरा हो चुका है।
सरकार की कार्रवाई के विरोध में जिन्हें बोलना था वो बोल रहे हैं और जिन्हें खामोशी अख्तियार करनी थी वो ख़ामोशी की चादर ओढ़ चुके हैं, उनसे बोलने की अपेक्षा भी नहीं की जाना चाहिए। देश को यदि न्यूज़क्लिक के ख़िलाफ़ की जा रही कार्रवाई आपातकाल की आहट लगती है तो उसे सावधान हो जाना चाहिए और नहीं लगती तो मौज करना चाहिए।
पिछले एक दशक में देश का मीडिया जिस तरीक़े से वात्सल्य भाव से काम कर रहा है वो किसी से छिपा ही नहीं है। ऐसे में न्यूज़क्लिक जैसी संस्थाओं की सक्रियता को ये देश आखिर कैसे बर्दाश्त कर सकता है? अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षक तमाम संस्थाओं को पहचानने का ये सही समय है। इस समय जो मौन है और जो मुखर है, पहचाना जाएगा। शर्त एक ही है कि साधन और साध्य की पवित्रता का ख्याल मीडिया खुद रखे। अपनी वेबसाइट चलाने के लिए फंडिंग के लिए चीन जाने की क्या ज़रूरत है, अमेरिका से पैसे लेने की क्या ज़रूरत है। अपने ही देश की जनता के पास इतना पैसा है कि आपका काम चल जाएग। मेरा तो चल रहा है। मैं अपने पाठकों से रोजाना केवल एक रुपया लेता हूँ। जिनके पास नहीं है उन्हें अपनी सामग्री मुफ्त भी देता हूँ। इसके बावजूद मुझे भी पुलिस जिस दिन आका का हुक्म होगा उस दिन उर्मिलेश और अभिसार की तरह उठा लेगी। पुलिस को अपना काम करने दीजिये। आप यानी मीडिया अपना काम करे।
क़ानून अपना काम करता ही है। क़ानून का दखल न होता तो न्यूज़क्लिक की पूरी टीम पहले ही गिरफ्तार की जा चुकी होती। कुछ समय पहले क़ानून ने ही इस मामले में गिरफ्तारी पर रोक लगाई थी। देश में पिछले दरवाजे से आपातकाल आज नहीं आ रहा, उसे आये एक दशक होने को है। वो तो गनीमत है कि सरकार उदार है अन्यथा इंदिरा गाँधी की तरह आज के माहौल में कभी का आपातकाल लगा चुकी होती। देश के वैकल्पिक मीडिया की हर न्यूज़ जब क्लिक होती है तब-तब सरकार की एक न एक ईंट कमजोर होती है इसलिए ये संघर्ष भी सनातन ही समझिये। सरकार को अपना काम करने दीजिये, आप अपना काम कीजिये। सरकार की अक्ल अपने आप ठिकाने लग जाएगी। आखिर सरकार है तो पूर्णत: स्वदेशी। उसे तो किसी दूसरे देश की सरकार या जनता ने तो फंडिंग नहीं की। सरकार की सारी फंडिंग अडानी और अम्बानी जैसे स्वदेशी लोग करते हैं। अमेरिका के नेविल राय सिंघम नहीं।
(राकेश अचल के फ़ेसबुक पेज से साभार)