वो दिवाली कहाँ गयी जिसमें फसलों का उत्सव होता है!
पर्व-त्यौहारों की अपनी अहमियत है। साथ ही यहाँ देवी-देवताओं की महिमा भी इनसे जुड़ी है। वर्ष भर में कितने ही त्यौहार आते हैं लेकिन प्रमुख रूप से तो होली और दिवाली को ही माना और मनाया जाता है, यह मैं इसलिये कह रही हूँ कि इन त्यौहारों का रूप चाहे अलग-अलग तरीक़े का लगे लेकिन मामला उत्सवधर्मी ही रहता है। ये त्यौहार अपने मित्रों, संबंधियों और पड़ोसियों के प्रति सद्भावना दर्शाने के अवसर हैं, नहीं तो व्यक्ति अपने खाने-कमाने में ही उलझा रहता है। शुभकामना देने-लेने का भी मौक़ा नहीं मिल पाता।
एक बात हर जगह समान मिलेगी कि होली और दिवाली, दोनों ही पर्व खेती-किसानी से जुड़े हैं। ये फसलों की आमद के जश्न हुआ करते हैं। दिवाली पर किसानों के लिये ख़रीफ़ की फसल आती है, जैसे - नयी दालें, चावल और तमाम खाद्य पदार्थ और इसी फसल पर व्यापारियों का कारोबार चलता है। आप गाँव और शहर का कितना भी फ़र्क़ करिये दोनों की जिन्दगी का मूल तो अन्न से ही जुड़ा है। हर आदमी का त्यौहार घर के चूल्हे से शुरू होता है। बाज़ार तो बाद का जश्न है।
दिवाली को धार्मिक रूप से रामचन्द्र जी के वन से अयोध्या आगमन से जोड़ा जाता है। माना जाता है कि रामचन्द्र जी राक्षसों का संहार करने के बाद अयोध्या लौटे तो उनका स्वागत दीपमालिकाओं से किया गया। ऐसा माना गया कि यह अंधकार पर रौशनी की जीत है जो शाश्वत रूप में आज तक है।
दिवाली का दिन प्रेरणा देता है कि सज्जनों की रक्षा करना मनुष्य का धर्म है। कुकृत्यों के अंधेरों को दूर करना मानवता का लक्षण है या जो दलित, दमित और उपेक्षित हैं, सताये हुये हैं, उनके पक्ष में खड़े होकर लड़ना लाज़िमी है।
रामचन्द्र जी से जोड़ें या उनके अयोध्या आगमन से सूत्र निकालें, मामला अंधेरे को काटने और उजाले की ओर बढ़ते जाने का ही है। तभी तो इस समय से पहले सैकड़ों दीपक अपनी तेलभीगी बातियों के साथ रौशन-रौशन होकर जगमगाया करते थे। गाँवों के कुम्हार महीनों पहले से मिट्टी तैयार करने लगते थे और फिर गाँव-गाँव में चाक चलते थे। आंवां सुलगाये जाते थे। आंवां सुलगने की महक जैसे गाँव भर में फेरी देती थी और लोगों को दिया बनने की आहट से दिवाली के आने का शगुन सूझता था। तभी तो दीवारों पर कलई पोती जाती। दरवाजे और खिड़कियों पर तेल और वार्निश लगती। कंगूरों में रंग भरे जाते।
अमीर आदमी तरह-तरह से घर की सजावट करता तो मामूली लोग अपने घरों को लीप-पोतकर नया कर लेते। ख़ुशी बराबर रहती। आनन्द हर घर के द्वार आता। नये दीपक जब पानी में डाले जाते तो ऐसी सोंधी महक छोड़ते कि बच्चे एक एक दिबला सूंघ-सूंघ कर तेल भरते। और फिर सुनहरी लौ की पाँतें!!
आज तो मामला ही अलग है। कुम्हारों के आंवां ठंडे पड़े हैं। उनका रोज़गार ठप हो गया। अब कौन पूछता है मिट्टी के दीपक को, कौन जलाता है बाती में ज्योति? यह सब कुछ पुराना हुआ, आउट ऑफ फ़ैशन हुआ। अब तो बिजली से ऑन होने वाली असंख्य लड़ियाँ हैं नीली-हरी-लाल-गुलाबी, चाहे जितने रंग।
अगर कुछ नहीं है तो आज रौशनी में असली रंग नहीं हैं। होगा कहाँ से रंगीनियों की खेप तो चीन से आ रही है। दिवाली चीन का त्यौहार नहीं है, उस देश का कारोबार है, व्यापार है। यह व्यापार ही तो हमारे किसानों और कुम्हारों के त्यौहार को निगल रहा है। माना कि दिवाली का त्यौहार लक्ष्मी पूजन से जुड़ा है, धन-धान्य से संबंधित है। गणेश जी का महात्म्य अलग से है। ये सारे देवता मिलकर अपनी दिवाली को अपनी तरह से मनाने का आह्वान करते हैं क्योंकि ये जितने सेठ-साहूकारों के हैं उतने ही किसान और मज़दूरों के हैं बल्कि किसान मज़दूरों के ज़्यादा निकट हैं क्योंकि देवताओं का भोग तो किसान के खेत और मज़दूरों की मेहनत से कमाये अन्न-गुड़ से ही बनता है भले वह किसी भी रूप में दिखे।
दिवाली की किसको हौंस है? कौन इस त्योहार पर फूला नहीं समा रहा है? बहुत लोग खुश हैं। तमाम लोग फूले नहीं समा रहे क्योंकि उनका काला व्यापार तो इन्हीं दिनों फलता-फूलता है। मिलावटी मिठाइयों से बाज़ार पटा पड़ा है। खोया पनीर से लेकर तेल घी अपने जहरीलेपन में एक दूसरे से बाज़ी मार रहे हैं।
जो जनता रामचन्द्र जी के शुभागमन की ख़ुशी में दिवाली का त्यौहार मना रही है उसी जनता को व्यापारी ज़हर देने पर तुले हैं। लापरवाही कहाँ है? प्रशासन लापरवाह है क्योंकि जगह-जगह पैसे का खेल चालू है। यह दीपक ये तले अंधेरा नहीं, चमकदार रंग-बिरंगी लड़ियों तले अंधेरा है। यह दिवाली के विरुद्ध बिछाया गया जाल है या दिवाली की ओट में होने वाले कुकर्म हैं?
त्यौहार-पर्वों की ऐसी सूरत उस दिवाली से मेल नहीं खा रही जो फसलों का उत्सव होता है। जब नये अन्न का स्वागत होता है। इस त्यौहार में वे कहाँ शामिल हैं जो रौशनी के दावेदार रहे हैं, जिन्होंने धान के खील और खाँड़ के बताशे बाँटे हैं। आज तो हर कोई ज़हरीली मिठाई और पुराने सड़े मेवे लेकर मित्रों के घर की और दौड़ रहा है क्योंकि खील खाते हुये अब लोग अपने आप को मॉडर्न की सीढ़ी से नहीं गिराना चाहते। और वैसे भी लोग अब नाज़ुक मिज़ाज हैं कि उनके होंठ ही छिल जायेंगे खील-बताशों से। वे यह सब रूखापन बर्दाश्त नहीं कर सकते। फ़ूड पॉयजनिंग की तो ख़ैर आदत पड़ चुकी है हमारे समाज को।
हे दिवाली मइया! हम तुम्हारा जस मानेंगे कि तुम अपने प्रताप से हमारे तथाकथित आधुनिक होते जाते समाज को त्यौहारों की सीधी पटरी पर ले आओ। नहीं तो लोग यह देश छोड़कर विदेशी दिवाली मनाने के तमाम बहाने ले आयेंगे।