कोरोना वैक्सीन पर लहूलुहान है ‘इंडिया फर्स्ट’!

12:35 pm Apr 09, 2021 | प्रेम कुमार - सत्य हिन्दी

दुनिया का सबसे बड़ा वैक्सीन निर्माता देश है भारत। दुनिया के देश कम से कम भारत में वैक्सीन की कमी होने की कल्पना नहीं कर सकते थे। मगर, फ़िलहाल कम से कम 10 भारतीय प्रदेश वैक्सीन का स्टॉक कम पड़ जाने की आशंका के बीच वैक्सीनेशन की रफ्तार धीमी हो जाने के संकट का सामना कर रहे हैं। सवाल है- ऐसा क्यों? जवाब है कि नरेंद्र मोदी की सरकार ने अपनी ही बहुप्रचारित ‘इंडिया फर्स्ट’ की नीति को वैक्सीन के मामले में तरजीह नहीं दी।

कारोबार और कारोबारी हितों ने देशवासियों और देश की ज़रूरत को पीछे कर दिया। 

आँकड़े कहते हैं कि 2 अप्रैल 2021 तक भारत में 7 करोड़ 30 लाख 54 हजार 295 लोगों को वैक्सीन दी जा चुकी थी। भारतीय विदेश मंत्रालय की 2 अप्रैल की ब्रीफिंग के मुताबिक़ 6 करोड़ 44 लाख वैक्सीन की डोज विश्व समुदाय को भेजी जा चुकी थी। इसका मतलब यह है कि ‘इंडिया फ़र्स्ट’ की नीति के पैरोकार मोदी सरकार में जब 113 भारतीय वैक्सीन की डोज ले रहे थे तो यही सरकार दुनिया के 100 लोगों को भी वैक्सीन की डोज उपलब्ध करा रही थी।

वैक्सीनेशन पर हाहाकार

मानवता और पड़ोसी देशों के प्रति ज़िम्मेदारी जैसे महत्वपूर्ण तर्क वैक्सीन को लेकर लहूलुहान ‘इंडिया फ़र्स्ट’ की नीति के लिए ढाल तो हो सकते हैं लेकिन आँकड़ों के आईने में यह तर्क भी कुतर्क ही कहलाएँगे। इसे समझने के लिए थोड़ा इंतज़ार करें।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने ग़रीब देशों के लिए ‘कोवैक्स’ नामक अभियान शुरू किया है जिसके तहत उन देशों को 2 अरब वैक्सीन की डोज उपलब्ध करायी जानी है जो अपने दम पर वैक्सीन निर्माताओं से समझौते नहीं कर सकते। यह मानवीय क़दम है और इसमें भारत की भागीदारी होनी ही चाहिए। कोवैक्स के लिए 1.82 करोड़ वैक्सीन यूएन को दिया जाना बिल्कुल मुफीद है। यह कोवैक्स अभियान में तकरीबन 10 फ़ीसदी भारतीय हिस्सेदारी है।

7.3 करोड़ देशवासियों के लिए वैक्सीन के मुक़ाबले ग़रीब देशों के लिए 1.82 करोड़ वैक्सीन देने का मतलब यह है कि जब 365 भारतीयों को वैक्सीन का डोज मिलता है तो बाक़ी ज़रूरतमंद देशों के 100 लोगों को भारत वैक्सीन की डोज उपलब्ध कराता है। 36 और 10 का यह अनुपात इंडिया फ़र्स्ट की नीति के मुफीद लगता है।

प्रधानमंत्री ने कोरोना टीके की दूसरी खुराक लगवाई।फ़ोटो साभार: ट्विटर/नरेंद्र मोदी

‘इंडिया फ़र्स्ट’ पर हावी हो गया कारोबारी हित? 

चर्चा उन 4 करोड़ 51 लाख वैक्सीन के डोज पर ज़रूरी है जो ‘इंडिया फ़र्स्ट’ के सिद्धांत की धज्जियाँ उड़ा रहा है। इनमें से 1 करोड़ 4 लाख की डोज अनुदान के तौर पर विभिन्न देशों को दी गयी। अंतरराष्ट्रीय सद्भाव के लिए यह भी हिन्दुस्तानी सह सकते हैं। ‘विश्वगुरु’ बनने के लिए इतना त्याग तो करना ही पड़ेगा। मगर, 3 करोड़ 57 लाख वैक्सीन की डोज कारोबारी आधार पर निर्यात किए गये हैं तो यह किस प्राथमिकता के तहत आता है?

भारतीय हित से बड़ा हित कारोबारी हित कैसे हो सकता है? देश के हित पर मैन्युफैक्चरर का हित भारी कैसे हो जाता है? क्यों हिन्दुस्तान की प्राथमिकता नज़रअंदाज़ कर दी गयी?

यह बहुत चिंता की बात है कि हम अपने देशवासियों को वैक्सीन की 7.3 करोड़ डोज दे पा रहे हैं और उसके आधे से ज़्यादा दुनिया को बेच रहे हैं। ऐसा नहीं है कि कारोबारी ज़रूरत को बिल्कुल नज़रअंदाज़ कर दिया जाना चाहिए। क़ारोबार का भी मानवीय रिश्ता होता है। अगर संकट की घड़ी में जो क़ारोबार अपने ग्राहकों के काम न आए, तो वह अपनी प्रासंगिकता खो देता है। मगर, इस ज़रूरत और देश की ज़रूरत के बीच एक संतुलन होता है। इसे देखते हुए यह अनुपात 16:1 या 10:1 रखा जा सकता था। किसी भी स्थिति में वैक्सीन के डोज का कारोबारी निर्यात 40 लाख या 64 लाख से अधिक नहीं होना चाहिए था।

यह तथ्य खास तौर से इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वैक्सीन की 7.3 करोड़ डोज देने के बावजूद दुनिया में एक्टिव केस सबसे ज़्यादा भारत में हैं। मौत के मामले में भारत महज तीन देशों से पीछे है। यूरोप का हर देश जो कभी कोरोना से मौत के मामले में हम से बदतर हालात में था, आज बेहतर है। अगर हम 40 लाख या 64 लाख वैक्सीन बेचने की मर्यादा में रहते तो आज 3 करोड़ वैक्सीन की अतिरिक्त डोज हमारे पास होती और हम जिस कमी और खौफ का सामना कर रहे हैं, उससे बच सकते थे।

तो क्यों मदद मांगते अदार पूनावाला?

सीरम इंस्टीट्यूट के अदार पूनावाला को भारत सरकार से 3 हज़ार करोड़ रुपये की आर्थिक मदद मांगने का अधिकार तब होता जब वे कारोबारी हित से अधिक देश हित को प्राथमिकता देते। उनकी प्राथमिकता में लगातार विदेश से किए हुए कॉन्ट्रैक्ट ही प्रमुख रहे हैं। मगर, इसके लिए हम किसी इंस्टीट्यूट और उसके सीईओ को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकते। इसके लिए ज़िम्मेदार होती है देश की नीति।

अगर ‘इंडिया फ़र्स्ट’ प्राथमिकता पर होता तो अदार पूनावाला को आर्थिक सहयोग मांगने की ज़रूरत क्यों पड़ती? सरकार खुद उसके सहयोग में खड़ी रहती।

वैक्सीन की कमी का संकट ऐसे समय में सामने आया है जब अप्रैल के पहले 7 दिन में क़रीब 7 लाख कोरोना के नये मरीज बढ़े हैं। इन्हीं 7 दिनों में 3932 लोगों की मौत हुई है। यह भी सच है कि ढाई करोड़ लोगों को वैक्सीन भी इसी एक हफ्ते में दी गयी है। यह आँकड़ा छोटा नहीं है। मगर, एक दिन में 42 लाख वैक्सीन की खुराक का जो स्तर 2 अप्रैल हम पा चुके थे उसे घटना क़तई नहीं चाहिए था। ऊपर-नीचे होता हुआ यह 3 अप्रैल को 30 लाख डोज से भी नीचे चला गया। यह स्थिति क्यों हुई? हर तरफ़ से स्टॉक ख़त्म होने की आवाज़ें आने लग गयीं। वैक्सीनेशन सेंटर से लोगों का उल्टे पाँव लौटना शुरू हो गया।

आँकड़े बताते हैं कि कोविड संक्रमण पर ब्रेक नहीं लगा लेकिन वैक्सीन की रफ्तार पर ब्रेक लग गया। असली वजह वह 3 करोड़ अतिरिक्त वैक्सीन का पास में नहीं होना है जो क़ारोबारी हित की भेंट चढ़ गयी। और, इसके लिए असली वजह है ‘इंडिया फ़र्स्ट’ की पॉलिसी को अंगूठा दिखाया जाना। इसी मायने में केंद्र और राज्य की सरकारों को वैक्सीनेशन पर टोपी-ट्रांसफर करते हुए देखकर कहना ज़रूरी हो जाता है कि सियासत की भेंट चढ़ चुकी है वैक्सीनेशन पर ‘इंडिया फ़र्स्ट’ की पॉलिसी।