अयोध्या में रामलला के प्राण प्रतिष्ठा समारोह के निमित्त देश और विदेश में जितना व्यापक उत्साह उत्पन्न किया गया है उतने ही बड़े प्रश्न भी खड़े हो रहे हैं। इन प्रश्नों का उत्तर दिया भी जा रहा है लेकिन कहीं उन्हें रागद्वेष के दायरे में ठेल कर दरकिनार किया जा रहा है तो कहीं पर यह दावा किया जा रहा है कि सब कुछ विधि विधान से हो रहा है और ठीक चल रहा है। लेकिन इस दौरान मंदिर निर्माण का प्रबंधन देख रही संस्था श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र जो जवाब दे रही है उससे पारदर्शिता बढ़ने की बजाय घटती जा रही है।
जाहिर है यह मौसम कोहरे और धुंध का है और मार्गों की दृश्यता कम है लेकिन जो लोग देश में रामराज्य ला रहे हैं उनका यह दायित्व बनता है कि वे इस दृश्यता को बढ़ाएं। घाटों और मार्गों पर दीए जलाने का रिकार्ड बनाने की बजाय अंतर्मन में दीए जलाएं ताकि विवेक पैदा हो।अयोध्या को सुरक्षा बलों की छावना बनाने की बजाय उसे सभ्य नागरिकों, संतों, त्यागियों और ज्ञानियों के प्रवास की नगरी बनाएं।
अयोध्या में राम लला की प्राण प्रतिष्ठा धर्म के विधान से नहीं हो रही है इस बारे में सर्वाधिक मुखर तरीके से सवाल उठाने वाले ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने अब यह सवाल भी उठा दिया है कि 22/23 दिसंबर 1949 की रात को बाबरी मस्जिद परिसर में रामलला की जो मूर्ति प्रकट हुई थी और जिसके निमित्त सारा संघर्ष और मुकदमा चला, इस प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में उस मूर्ति का क्या होगा।उन्होंने राममंदिर ट्रस्ट के अध्यक्ष महंत नृत्य गोपाल दास को पत्र लिखकर पूछा है, ``यदि नई मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा की जाएगी तो पुरानी मूर्ति का क्या होगा? विवादित ढांचे में अद्भुत चमत्कार के साथ प्रकट हुई रामलला की मूर्ति पहले से ही जन्मस्थान पर विराजमान है, ऐसे में नई मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा से, पहले से ही विराजमान भगवान राम की मूर्ति की उपेक्षा हो सकती है।......’’ हालांकि यह प्रश्न कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह भी पहले उठा चुके हैं।
इसी के साथ रामलला विराजमान के नाम से मुकदमा लड़ने वाले निर्वाणी अखाड़े के महंत धर्मदास ने भी कहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने जिस मूर्ति के पक्ष में फैसला दिया वही मूर्ति गर्भगृह में स्थापित होनी चाहिए। वरना वे मुकदमा दायर करेंगे। क्योंकि मुकदमा तो उसी मूर्ति ने जीता है।
अविमुक्तेश्वरानंद ने नृत्यगोपाल दास को लिखे पत्र में जो बिंदु उठाए हैं वे ध्यान देने लायक हैं। उनका कहना है कि मालूम हुआ है कि गर्भगृह में चार फिट की मूर्ति की स्थापना की योजना है। जबकि रामलला विराजमान वहां प्रकट हुए थे। वे स्वयंभू भगवान हैं। उन्होंने वहां, गर्मी, बारिश और जाड़ा झेला है। वे खुले आसमान के नीचे रहे हैं, टेंट में रहे हैं और फिर अस्थायी ढांचे में रहे हैं। उन्होंने खुद मुकदमा लड़ा और जीता है। हजारों लोगों ने इसके लिए बलिदान दिया और समर्पण किया। उनमें भूति नरेश राजा महताब सिंह, रानी जयराजराज कुंवर, पुरोहित देवीदीन पांडेय, हंसवार के राजा रणविजय सिंह, निर्मोही अखाड़े के रघुवर दास, राजा रामाचार्य, रामचंद्रदास, गोपाल सिंह विशारद, धर्मदास वगैरह शामिल हैं।
इन आपत्तियों के जवाब में ट्रस्ट के सचिव चंपत राय ने जो सफाई दी है वह भी देखी जानी चाहिए। उनका कहना है कि मंदिर में एक अचल मूर्ति होगी और दूसरी चल मूर्ति होगी। अचल मूर्ति चार फिट की काले पत्थर की वह मूर्ति होगी जिसे मैसूर के शिल्पकार अरुण योगिराज ने बनाया है। जबकि चल मूर्ति रामलला की वह मूर्ति होगी जो दिसंबर 1949 में प्रकट हुई थी और जिसने मुकदमा जीता है। यह मूर्ति आकार में बहुत छोटी है और इस चल मूर्ति के साथ शोभा यात्रा निकाली जाएगी। जबकि अचल मूर्ति को हटाया नहीं जाएगा। अचल मूर्ति के बड़े आकार की वजह यह बताई जा रही है कि चल मूर्ति या रामलला विराजमान की मूर्ति बहुत छोटी है जो भक्तों को दिखाई नहीं पड़ेगी। जबकि नई मूर्ति चार फिट की है और वह चार फिट के सिंहासन पर विराजमान होगी और दूर से दर्शनीय होगी।
स्पष्ट है कि अयोध्या में जो कुछ हो रहा है उसमें अपूर्ण मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा करके एक ओर धर्म के विधान का उल्लंघन किया जा रहा है तो दूसरी ओर राम लला विराजमान की जगह पर नई मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा करके विधि के विधान का भी उल्लंघन हो रहा है। यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि जल्दी ही चुनाव आने वाला है और उससे पहले जो भी सामान्य सी मुहूर्त मिली उसी पर यह कार्यक्रम रख लिया गया।
अयोध्या में बनने वाले राम मंदिर के कारण अयोध्या एक अंतरराष्ट्रीय धार्मिक और पर्यटन नगरी बन गई है। इसमें कोई दो राय नहीं है। उसका सौदर्यीकरण हुआ है वहां साफ सफाई की व्यवस्था हुई है। लेकिन उसी के साथ इस आयोजन ने स्थानीय विवेक की बलि ली है और उसमें राम की मर्यादा और संविधान की मर्यादा की बलि भी शामिल है। राममंदिर ट्रस्ट में न तो रामलला का मुकदमा लड़ने वाले निर्वाणी अखाड़े के महंतों को शामिल किया गया है और न ही हनुमान गढ़ी के संतों महंतों को। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि अयोध्या के सौंदर्यीकरण के दौरान स्थानीय जनता को अपने ही हाथों से अपना घर तोड़ना पड़ा है। अगर वे वैसा न करते तो उनका घर बुलडोजर तोड़ता और उन्हें उसका हर्जाना देना पड़ता। होना यह चाहिए था कि जिनका भी घर टूटा है उन्हें पर्याप्त मुआवजा दिया जाता और वैकल्पिक रोजगार का साधन दिया जाता। लेकिन इस मामले में असली स्थानीय व्यापारी और दुकानदार तो घाटे में रहे ही हैं तमाम छोटे मोटे मंदिर जो तोड़े गए उनके भी पुजारी महंत लाचारी से सब कुछ सहते देखते हैं।
एक प्रकार से अयोध्या में अयोध्यावासियों और अयोध्यावादियों के बीच विभाजन देखा गया है। गिने चुने अयोध्यावासियों जिनमें राजपरिवार शामिल है उसे जरूर फायदा हुआ होगा लेकिन आम अयोध्यावासी को कष्ट और घाटा ही उठाना पड़ा है। अयोध्यावासी चाहते थे कि अयोध्या विवाद का समाधान स्थानीय स्तर पर शांति से हो जाए और उसके लिए न तो हिंसा हो और न ही राजनीतिक विवाद उत्पन्न हो। ऐसी स्थितियां कम से तीन बार पैदा भी हुईं लेकिन उन्हें विफल कर दिया गया। अयोध्या के वरिष्ठ पत्रकार शीतला सिंह ने अपनी पुस्तक `अयोध्या—रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद’ में इस बात को दर्ज किया है कि योगी आदित्यनाथ के गुरु महंत अवैद्यनाथ के प्रयास से एक बार पक्षकार समाधान के करीब पहुंच भी गए थे। अशोक सिंघल तैयार भी हो गए थे। लेकिन जब अशोक सिंघल ने RSS प्रमुख बाला साहब देवरस से की तो कहा गया कि हमें अयोध्या में मंदिर नहीं बनाना है बल्कि दिल्ली में सरकार बनानी है।
अयोध्या दिल्ली में सरकार बनाने के लिए बार बार इस्तेमाल होती रही है। आखिर में जब सरकार बन गई तो अब राममंदिर की प्राण प्रतिष्ठा का इस्तेमाल अगली बार की सरकार बनाने के लिए हो रहा है। जब यह मुद्दा चुक जाएगा तो मथुरा और काशी तो हैं ही और अगली बार उनका दोहन किया जाएगा। अयोध्या आंदोलन को राष्ट्रीय बनाने में संघ परिवार और भारतीय जनता पार्टी को जिस अनुपात में लाभ हुआ है उसकी तुलना में अयोध्या के लोगों को होने वाला लाभ अल्प है। वह लाभ एक किस्म का बाईप्रोडक्ट है। अगर अयोध्या शहर को सुंदर बनाने के लिए राम के आदर्शों की, संविधान के मूल्यों की और धर्म के विधान की इतनी बड़ी बलि ली जानी थी तो यह बलि बहुत ज्यादा है और प्राप्ति बहुत कम है।इतना किए बिना भी अयोध्या का सौंदर्यीकरण किया जा सकता था। विकास किया जा सकता था और वह हो भी रहा था। एक तरह से अयोध्यावासी हारे हैं और अयोध्यावादी जीते हैं।
ये अयोध्यावादी अब मथुरावादी और काशीवादी बनकर देश में सक्रिय हैं। वे वास्तव में हिंदुत्ववादी हैं जो सावरकर का हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। वे पूंजीवादी हैं जो देश में गरीबों को मुफ्त का राशन देकर गरीबी उन्मूलन का दावा करते हैं और पूंजीपतियों को सारे सार्वजनिक उपक्रम सौंपकर रामराज्य का समाजवाद लाने का दावा करते हैं।
उसी योजना के तहत राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ हिंदू धर्म की सभी संस्थाओं पर अपने लोगों को बिठाना और अधिपत्य कायम करना चाहता है। वह जानता है कि इन संस्थाओं में अपार धन है, साख है और उनका समाज में प्रभाव है। लेकिन वह यह भी जानता है कि इनमें एक प्रकार की स्वायत्तता है जो कभी कभी उन्हें चुनौती देती है। इसी चुनौती से वे परेशान होते हैं। वे एक आज्ञाकारी समाज बनाकर उस चुनौती को समाप्त करना चाहते हैं।यह चुनौती आज शंकराचार्यों के रूप में आ रही है कल को दक्षिण भारत के मंदिरों से उठेगी और परसों किसी और रूप में आएगी। इसी चुनौती से हिंदू धार्मिक संस्थाओं की लोकतांत्रिक संरचना का आभास हो रहा है जिसे न तो संघ चाहता है न भाजपा चाहती है और न ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी।
विडंबना देखिए कि जिन आधुनिक संवैधानिक संस्थाओं से हमें लोकतांत्रिक चुनौती और विवेक की आशा थी उन्होंने राजसत्ता(कार्यपालिका) के आगे समर्पण कर दिया है। न तो विपक्ष कोई चुनौती दे पा रहा है, न न्यायपालिका और न ही मीडिया और न ही देश का बौद्धिक वर्ग। यह चुनौती उन संस्थाओं से आ रही है जिन्हें आधुनिक लोग प्रतिगामी और प्रतिक्रियावादी मानते हैं। जाहिर सी बात है कि शंकराचार्य नामक संस्था ने सनातन हिंदू धर्म को बहाल करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और बौद्धों और जैनियों से संघर्ष के लिए ही अखाड़े बने और शंकराचार्य ने देश के चार कोनों पर चार मठों की स्थापना की। उन्होंने बौद्ध धर्म को भारत से भगाया इसीलिए उनकी वाहवाही होती है। विडंबना देखिए कि जिस बौद्ध धर्म को डा भीमराव आंबेडकर ने हिंदू धर्म की जाति व्यवस्था और अतार्किकता से मुक्ति के लिए अपनाया और जिसकी प्रज्ञा, करुणा, मैत्री और समता को वे संवैधानिक लोकतंत्र का आधार बता रहे थे उसी को परास्त करने वाली संस्थाएं आज लोकतंत्र का सवाल उठा रही हैं।
यह बहस अयोध्यावासी बनाम अयोध्यावादी की तो है ही, यह बहस हिंदू बनाम हिंदू की भी है। एक ओर उदार हिंदू हैं तो दूसरी ओर कट्टर हिंदू। यह विभाजन एक मात्र हिंदू धर्म बनाम धार्मिक बहुलता की भी बहस है।लेकिन यह विभाजन भी कई बार एक दूसरे पर ओवरलैप करता है। असली सवाल राजनीति और धर्म के रिश्तों के बारे में है। जब संविधान के अनुसार भारतीय राज्य ने सभी धर्मों से समान दूरी का सिद्धांत अपनाया था तो राज्य का मुखिया किसी एक धर्म का होकर क्यों रह गया है। यह बहुसंख्यकवाद है और इसी से इस देश को खतरा है और इस देश के संविधान को भी खतरा है। जब भारत की आधुनिक संस्थाएं पछाड़ खाकर ध्वस्त खड़ी हों तो क्या प्राचीन और मध्ययुगीन संस्थाएं राज्य और धर्म के बीच एक मर्यादित संबंध कायम करने की पहल करेंगी?
आधुनिक भारत के तीन बड़े मनीषियों महात्मा गांधी, डा आंबेडकर और डा राममनोहर लोहिया ने न तो धर्म की समाप्ति की बात की और न ही राज्य की। वे मानते थे कि राज्य भी चाहिए और धर्म भी। लेकिन दोनों को अपनी मर्यादा में रहना चाहिए। डा लोहिया का साफ कहना था कि राजनीति और धर्म के अविवेकी मिलन से दोनों भ्रष्ट हो जाते हैं। दोनों के बीच संवाद का रिश्ता टूटना नहीं चाहिए लेकिन किसी एक धर्म को किसी एक राजनीति से कभी नहीं मिलाना चाहिए। आज विवेकपूर्ण नहीं अविवेकी मिलन हो चुका है। इससे दोनों ओर भ्रष्ट होने की स्थितियां हैं। इसलिए आवश्कता है दोनों को अपने अपने दायरे में रखे जाने की। हमें राजनीति की कल्याणकारी और धर्म की मुक्तिकामी भूमिकाएं चाहिए। मौजूदा बहस अगर उस दिशा में जाती है तो यह देश, समाज और लोकतंत्र का बड़ा हित साधेगी।