कर्नाटक की हार बीजेपी के गले में कुछ इस तरह फंस गई है कि चुनाव नतीजों के हफ्ते भर बाद भी निकलने का नाम नहीं ले रही। तब भी नहीं निकली, जब उसके निवर्तमान मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने नये मुख्यमंत्री के चयन में कांग्रेस द्वारा की जा रही ‘देरी’ पर अनावश्यक टिप्पणी की और तब भी नहीं, जब पार्टी नेतृत्व ने राज्य के कार्यकर्ताओं को ढाढ़स बंधाते हुए कहा कि वे निराश न हों। इन दोनों ही मौक़ों पर बीजेपी नेता पार्टी की ‘प्रचंड’ हार के कारणों की ईमानदार स्वीकारोक्ति में हकलात नजर आये।
विडम्बना देखिये: एक ओर भाजपा की हालत ऐसी खस्ता है और दूसरी ओर उसके समर्थक मीडिया की कतारों में कई महानुभाव अवध की ‘मुद्दई सुस्त, गवाह चुस्त’ वाली कहावत चरितार्थ करने पर उतर आये हैं। वे प्राण-प्रण से यह ‘सिद्ध’ करने में लग गये हैं कि कोई कुछ भी कहे, कर्नाटक में यह ‘अनर्थ’ वहां के मुस्लिम मतदाताओं के एकतरफा तौर पर कांग्रेस के पक्ष में ध्रुवीकृत हो जाने की एकमात्र वजह से हुआ है और कुशासन व भ्रष्टाचार आदि के कारण उसके हारने की जो चर्चाएँ चल रही हैं, वे ‘महज कांग्रेस का दुष्प्रचार’ हैं।
इनमें कई महानुभाव पूछ रहे हैं कि क्या भारत का मुस्लिम मतदाता फिर उसी सोच की तरफ़ बढ़ रहा है, जैसा भारतीय राजनीति में कांग्रेसी वर्चस्व के दिनों में था? साथ ही बता रहे हैं कि कर्नाटक में कांग्रेस की जीत में सबसे बड़ा योगदान मुस्लिम मतदाताओं का है, जिनके क़रीब 82 फीसदी ने थोक के भाव उसे वोट दिया। वे याद दिला रहे हैं कि भले ही आज कांग्रेस पहले की तरह सांप्रदायिकता के विरोध में झंडा नहीं उठाती और उसके अगुआ मठों में घूमते, जनेऊ धारण करते और पूजा करते हैं, लेकिन मुस्लिम तुष्टिकरण की बातें वे कहीं ज्यादा आक्रामक ढंग से करते हैं। क्योंकि उन्हें लगता है कि मुस्लिम वोट थोक में मिल जाएं तो देर-सवेर दूसरे तबकों का भी समर्थन मिलने लगेगा।
कहने की ज़रूरत नहीं कि ये महानुभाव डरे हुए हैं कि कहीं कर्नाटक की यह हार देश भर में फैले भाजपा के हिन्दू वोट बैंक के बिखराव की शुरुआत न सिद्ध हो। इसलिए वे यह बात उसके दिलोदिमाग में निर्णायक तौर पर भर देना चाहते हैं कि उसके एकमात्र ‘खलनायक’ मुसलमान ही हैं और जवाबी हिन्दू ध्रुवीकरण ही उसका एकमात्र जवाब है। इसके उलट हिन्दू वोट बैंक बिखरा तो वह स्थिति फिर लौट आयेगी, जिसमें मुसलमान कांग्रेस की छत्र छाया में मौज मनाते और हिन्दू अनाथ महसूस किया करते थे। हैरत होती है कि इसे सिद्ध करने के लिए इन महानुभावों ने एक से बढ़कर एक ‘तर्क’ जुटा लिये हैं।
एक ने मुसलमानों पर ‘महाभियोग’ लगाया है कि भाजपा के बार-बार दोस्ती का हाथ बढ़ाने के बावजूद वे उसे वोट नहीं देते। कर्नाटक में भी उन्होंने नहीं ही दिया।
लेकिन कर्नाटक के मुसलमान भाजपा को वोट देते भी तो भला लोकतंत्र के किस तकाजे से देते?
वह भी जब उसने ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ जैसे नारों को भोथरा और दिखावे का बना दिया था और उसके राज्य के ईश्वरप्पा जैसे बड़े नेता खुल्लमखुल्ला एलान कर रहे थे कि उन्हें मुसलमानों के वोट चाहिए ही नहीं। तिस पर मुसलमानों के प्रति पार्टी के सौतेलेपन का आलम यह था कि राज्य की 224 विधानसभा सीटों के उसके प्रत्याशियों में एक भी मुस्लिम नहीं था। मुसलमानों को मिले चार प्रतिशत के बहुचर्चित आरक्षण के पीछे तो वह अरसे से हाथ धोकर पड़ी हुई थी। गृहमंत्री अमित शाह तक उसे ख़त्म कर देने की घोषणा कर आये थे। तिस पर भाजपा का मुस्लिमविरोधी एजेंडा कभी हिजाब विवाद के बहाने सामने आता था, कभी लव जिहाद, कभी टीपू सुल्तान और कभी हलाल फूड के बहाने।
भाजपा के ‘चुस्त गवाह’ शायद ही स्वीकारें, लेकिन सच्चाई यही है कि उनके निष्कर्षो के विपरीत भाजपा कर्नाटक में इसलिए हारी कि वहां के मुसलमानों ने खुद को उलझाये रखने के उसके एजेंडे में उलझने से परहेज रखा। बैंगलुरु में पत्रकारों को अनेक ऐसे मुसलमान मिले, जिन्होंने उनसे निवेदन किया कि ‘प्लीज, पॉलिटिक्स पर बात ही न करें।’ एक मुस्लिम मतदाता ने तो ‘मुस्लिम-मुस्लिम’ कर रहे पत्रकार से यह तक पूछ लिया कि क्या सड़कों के खराब होने, गरीबी व बेरोजगारी बढ़ने और भ्रष्टाचार के अपरिहार्य हो जाने के मुद्दे लोगों पर उनके धर्म के अनुसार असर डालते हैं?
गौरतलब है कि 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य में मुसलमानों की जनसंख्या 12.92 प्रतिशत है। सत्तारूढ़ भाजपा चाहती तो उनके प्रति अपना झुकाव प्रदर्शित करने के लिए उनके हित में कुछ नई योजनाओं का एलान कर सकती थी। इससे उसकी सरकार के प्रति नाराज़गी कुछ तो जरूर कम होती। लेकिन ‘मुस्लिम वोटों के बगैर सरकार बना लेने के मंसूबे’ से पीड़ित होकर वह अपनी मुस्लिम दुश्मनी को ही आगे बढ़ाती रही। ऐसे में मुसलमानों का इतना ‘कुसूर’ तो है कि उन्होंने अपने मतों के कांग्रेस व जनता दल {सेकुलर} में विभाजन की भाजपा की ‘बड़ी उम्मीद’ पूरी नहीं होने दी। लेकिन सवाल है कि क्या ऐसा करना उनका लोकतांत्रिक अधिकार नहीं था? अगर इससे राज्य से भाजपा की बेदखली की राह हमवार हो गई तो वे क्या करें? क्या उन पर ऐसी कोई बंदिश थी कि वे अपने मतों का उसकी बेदखली के लिए इस्तेमाल नहीं करेंगे?
जहां तक साम्प्रदायिक या धार्मिक ध्रुवीकरण की बात है, उसकी राह तो पूरे प्रचार अभियान के दौरान भाजपा ही हमवार करती रही।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी इससे परहेज नहीं किया, जो सारे देशवासियों के पदेन अभिभावक माने जाते हैं। उन्होंने खुद चाहा कि जैसे ही सम्भव हो, यह ध्रुवीकरण हो और इस हद तक हो कि दूसरे चुनावी मुद्दों की छाती पर मूंग दल डाले।
सोचिए जरा, राज्य के मतदाता उनके कहे मुताबिक बजरंग दल व बजरंग बली को एक मान लेते, बजरंग दल पर प्रतिबंध के कांग्रेस के वादे को बजरंग बली पर प्रतिबंध समझ लेते, बजरंग बली की जय बोलकर भाजपा के चुनाव निशान वाला बटन दबा आते और उसकी झोली में प्रचंड हार के बजाय प्रचंड जीत डाल देते तो मीडिया के उसके समर्थक उसे हिन्दू ध्रुवीकरण की जीत और बहुसंख्यकों की साम्प्रदायिकता से जुड़ी होने के कारण अपेक्षाकृत ज्यादा खतरनाक बताकर देशवासियों को उससे आगाह करते या उसकी ओर से चुनाव आयोग की तरह ही आंखें मूंद लेते? यहां तो यह मानने के भी कई कारण हैं कि तब वे प्रधानमंत्री के पराक्रम के बहाने उसका महिमामंडन ही करते।
अफसोस कि मतदाताओं ने उन्हें ऐसे महिमामंडन से वंचित कर दिया तो भी वे उससे सबक लेने या सुधरने को तैयार नहीं हैं। मतदाताओं के फैसले के पीछे ‘चालीस प्रतिशत कमीशन वाली सरकार’, ‘पेसीएम’ और ‘क्राईपीएम’ आदि की कोई भूमिका स्वीकार नहीं कर रहे। भले ही ‘चालीस प्रतिशत’ की शिकायतकर्ता कांग्रेस नहीं, उसके कुछ पीड़ित थे, जिन्होंने उसे लेकर प्रधानमंत्री को पत्र लिखा था।
हद तो यह कि इन महानुभावों के मुताबिक कांग्रेस की पांच गारंटियों-गृहज्योति, गृहलक्ष्मी, अन्नभाग्य, युवानिधि और शक्ति (यानी मुफ्त बिजली, न्यूनतम आमदनी की गारंटी, बेरोजगारी बीमा, मुफ्त भोजन और महिलाओं को मुफ्त बस पास)- ने भी चुनाव में कोई गुल नहीं खिलाया! तब जाने क्यों इन गारंटियों पर बिफरते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था कि कांग्रेस की तो वारंटी ही खत्म हो गई है! तब कई भाजपा नेता उसकी गारंटियों को सामाजिक सुरक्षा से जोड़ने तक को तैयार नहीं थे और रेवड़ियां कहकर उनकी आलोचना कर रहे थे। सवाल है कि क्या कांग्रेस की ये रेवड़ियां भी उसके किसी काम नहीं आईं, एक मुस्लिम ध्रुवीकरण ही आया? उसके कन्नड़ गौरव और नन्दिनी-अमूल के मुद्दे भी एकदम नहीं चले?
सवाल है कि आबादी के अनुरूप हिस्सेदारी और दलितों, पिछड़ों व वंचितों को सामाजिक न्याय की घोषणाओं के साथ सामाजिक समीकरणों को अनुकूल बनाकर साधने की उसकी सोशल इंजीनियरिंग भी बेवजह थी क्योंकि वह 12.92 प्रतिशत मुसलमानों के बूते ही जीत गई?
याद कीजिए, कांग्रेस ने 2014 के लोकसभा चुनाव में अपनी हार के कारणों की पड़ताल के लिए एंटनी कमेटी बनाई तो उसने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि वह इस कारण हारी क्योंकि उसकी छवि मुसलमानों की पार्टी की बना दी गई थी। ऐसा था तो अब उसको सचेत हो जाना चाहिए कि उसकी कर्नाटक की जीत को मुस्लिम ध्रुवीकरण के बूते हुई बताकर फिर उसकी वही छवि बनाई जा रही है। बनाने वाले यह भी कह रहे हैं कि उसने बजरंग दल पर प्रतिबंध का वायदा मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण के लिए ही किया। वे चाहते हैं कि भाजपा जो ‘हिन्दू-मुस्लिम’ कर्नाटक के चुनाव में नहीं कर पाई, आगे के चुनावों में उसकी संभावनाओं में कोई कमी न आने पाये-कांग्रेस मुसलमानों की पार्टी बनी रहे और कर्नाटक से आया यह सबक अनसुना रह जाये कि विपक्षी एकता न होने पर भी मतदाता ऐसी समझदारी दिखा सकते हैं, जिससे भाजपाविरोधी वोटों का कम से कम विभाजन हो और भाजपा उसकी बिना पर अपनी बेदखली न टाल सके।
भाजपा और उसके समर्थक मीडिया मुगलों की चिंता का असली सबब फिलहाल यही है।