क्यों आइकन बनना आसान है, खरा उतरना मुश्किल? 

07:18 am Nov 26, 2020 | एन.के. सिंह - सत्य हिन्दी

आइकन (प्रतिमान) बनाना हर समाज में एक अपरिहार्य प्रक्रिया है। आइकन इसलिये बनाये जाते हैं कि समाज उनके द्वारा स्थापित मूल्यों को जीवन में उतारे। ये उस खूंटे की मानिंद होते हैं जिन्हें अपने फिसलन के दौरान समाज पकड़ लेता है और अवनति से बच जाता है। लेकिन इसकी दो शर्तें हैं- प्रतिमान बनाने में समाज को बेहद सतर्कता की ज़रूरत होती है और दूसरा, आइकन बनने का शौक हर व्यक्ति में होता है पर उससे अपेक्षा होती है कि वह नैतिक या प्रोफ़ेशनल मूल्यों पर आदर्श प्रस्तुत करे क्योंकि समाज उसकी ओर ही निहारता है।

कोई राजनीतिक व्यक्ति या कोई फ़िल्मी सितारा या क्रिकेट का खिलाड़ी यह कह कर नहीं बच सकता कि यह उसका ‘निजी’ मामला है। राजनेता जब सत्ता में होता है तो उसके भरोसे 30 लाख करोड़ रुपये का बजट और 139 करोड़ लोगों का भाग्य होता है। लिहाज़ा विवाहेत्तर किसी महिला से उसके अन्तरंग सम्बन्ध के कई ख़तरे होते हैं। और भले ही वह ऐसा न करे फिर भी समाज को शंका रहती है कि उस महिला के प्रभाव में ग़लत या जनहित के ख़िलाफ़ फ़ैसले न ले ले। 

एक आर्मी ऑफिसर की किसी महिला के साथ मित्रता भी शंका के इसी वर्ग में आती है। खिलाड़ी रात में अगर ड्रग्स लेता है तो हमारे देश के करोड़ों बच्चों पर यह असर डालेगा और बच्चा यह समझेगा कि ड्रग्स खेल में सफलता की कुंजी है क्योंकि वह खिलाड़ी उसका आइकन है।

आइकन बने व्यक्ति की ओर से दिया गया तर्क कि ‘मैंने आइकन बनाने के लिए आवेदन थोड़े ही दिया था’, भी एक कुतर्क है। जब यही आइकन एअरपोर्ट से बाहर निकलता है और उसे हज़ारों ‘फैन्स’ घेर लेते हैं और उसके चेहरे पर ख़ुशी साफ़ दिखाई देती है तो यह आइकन स्टेटस की स्वीकार्यता होती है। किसी लोकप्रिय खेल के ज़रिये करोड़ों की संपत्ति का मालिक बनना या किसी फ़िल्मी हीरो का विज्ञापन के ज़रिये अरबों कमाना उसी स्वीकार्यता की तस्दीक है।

दुर्भाग्य से भारत में ग़लत आइकन बनाये जाते रहे हैं। इसके दो कारण हैं। पहला, सिस्टम में ब्लैकमनी के प्रभाव से फ़िल्मी दुनिया के लोग अन्य प्रोफ़ेशनों के मुक़ाबले कम स्किल, कम क्षमता और कम मेहनत के बावजूद आइकन बन जाते हैं और दूसरा, जनता की ग़लत पसंद से हम ग़लत लोगों को आइकन चुनते हैं।

फ़िल्मी हस्तियों या क्रिकेटरों को अक्सर यह बताते हुए सुना जा सकता है कि ‘हमारे करोड़ों फैन्स हमें बधाई देते हैं या सड़क पर फैन्स की वजह से निकलना या सामान्य जीवन जीना मुश्किल है’। उनके इस कथन में दंभ-मिश्रित सफलता का मुजाहरा होता है।

इनकी ‘फैन-फॉलोइंग’ का कारण अगर एक मात्र इनकी अनूठी प्रतिभा होती तो तबला-वादक गुदई महाराज वाराणसी की अंधेरी गलियों में मुफलिसी की हालत में गुमनाम मौत न मरते या फुटबॉल के अंतरराष्ट्रीय/राष्ट्रीय खिलाड़ी बरेली के अविनाश शर्मा और जलपाईगुड़ी की कल्पना रॉय सड़क के किनारे चाय न बेचते।

तबले पर घंटों रियाज किसी भी एक्टिंग से कम मेहनत वाला नहीं होता और न ही फुटबॉल का खिलाड़ी किसी गुगली फेंकने वाले बॉलर से कम स्किल रखता है। लेकिन सब्जी बेचने वाले का लड़का दुनिया की कठिनतम परीक्षाओं में से एक आईआईटी में दाखिले के लिए जेईई की परीक्षा में दसवाँ स्थान पाने पर भी मुहल्ले का हीरो नहीं बन पाता लेकिन मास मीडिया का कमाल है कि डांस इंडिया में किशोरी जब टीवी एक्सपोज़र के बाद अपने शहर जाती है तो लाखों लोग पलक-पाँवड़े बिछा कर स्वागत करते हैं।

स्टैंडअप कॉमेडियन भारती सिंह और उसके पति को गांजा रखने और पीने के आरोप में नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने गिरफ्तार किया। इसके पहले दीपिका पदुकोण सहित फ़िल्मी दुनिया की कई बड़ी युवा हस्तियाँ नशे के उपभोग या व्यापर में ब्यूरो के राडार पर हैं। ये वे लोग हैं जिनके जिनके परदे पर दिखाए गए शौर्य, हाज़िरजवाबी, आदर्शवादिता से आम जनता इतनी मुतास्सिर होती है कि इन्हें अपना आइकन मानने लगती है।

परदे या टीवी स्क्रीन पर आने से बच्चे इनसे बेहद प्रभावित रहते हैं। सोचें, अगर समाज ग़लत आइकन (प्रतिमान) बनाता है तो उसका असर भी आम व्यक्ति, खासकर कम उम्र के बच्चों पर ख़राब पड़ता है।

दरअसल, प्रतिमान बनाना हर समाज और हर काल में एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इससे समाज उनके मूल्यों को आदर्श मान कर अपने को उसी के अनुरूप काम करने को प्रेरित करता है। मास-मीडिया जैसे फ़िल्म, टीवी, अख़बार और आजकल सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म इसमें बड़ी भूमिका निभाते हैं। दुर्भाग्य यह होता है कि सब्जी बेचने वाले का बेटा आईआईटी में प्रवेश की कठिन परीक्षा पास करता है तो मोहल्ले वाले भी नहीं जानते क्योंकि मास मीडिया एक वर्ग, किस हीरो की दोस्ती आजकल किस हेरोइन से चल रही है, बता कर उसे आइकन स्टेटस दिलाने में ज़्यादा दिलचस्पी लेता है।

लिहाज़ा बाल-मस्तिष्क पर इन बड़े और छोटे परदे पर दिखने वालों का तत्काल प्रभाव पड़ता है और वह समझता है कि उसे ऐसा ही बनना है।

जब यही प्रतिमान ड्रग्स लेता पाया जाता है या रात के नशे में फुटपाथ पर सोये कुछ लोगों को गाड़ी से कुचल देता है तो बच्चों के मन पर उस प्रतिमान को ख़ारिज करने का भाव नहीं बल्कि शराब की अपरिहार्यता और नशे में गाड़ी चलाने का ‘शौर्य’ ज़्यादा प्रबल हो जाता है। और तब वह ‘शाम को पढ़ने का दबाव’ डालने वाले अभिभावक को हिकारत-जनित उदासीनता से देखता है। उसे लगता है कि जहाँ डांस करने, गाना गाने, बॉडी बना कर एक्टिंग करने से रातों-रात प्रतिमान का दर्जा मिल रहा है वहाँ हमारा ‘अज्ञानी पिता’ आर्किमिडीज का सिद्धांत पढ़ने, ऐकिक नियम के सवाल लगाने या पानीपत का दूसरा युद्ध जानने को कह रहा है जिससे कोई आइकन बनता उसे नहीं दिखाई देता। नतीजतन युवा वर्ग ग़लत प्रतिमान के पीछे भागता है और उनकी ग़लत आदतों को भी सफलता का सोपान समझने लगता है। 

समाज को देखना होगा कि आइकन वही बने जिसके प्रयासों का तुलनात्मक विश्लेषण हो सके और ब्लैक-मनी के प्रभाव से जन संचार मीडिया जैसे सिनेमा या टीवी के ज़रिये उसका महिमा-मंडन न हो। यह भारत में टीवी के न्यूज़ एंकरों पर भी लागू होता है।