आख़िर केंद्र राज्यों की क्यों नहीं सुनता?

07:16 am May 23, 2021 | विजय त्रिवेदी - सत्य हिन्दी

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने राजधानी में 18 साल से 45 साल तक के लोगों के लिए वैक्सीन लगाने के कार्यक्रम को फ़िलहाल स्थगित कर दिया है। उनका कहना है कि अभी सरकार के पास पर्याप्त स्टॉक नहीं है। यानी इसका राजनीतिक मायने यह है कि केन्द्र सरकार वैक्सीन देने में नाकाम रही है। माने एक बार फिर केन्द्र और दिल्ली सरकार आमने-सामने हैं।

कोरोना पर काबू पाने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राज्यों के मुख्यमंत्रियों के बीच बातचीत किसी नतीजे पर पहुँचने के बजाय आपसी राजनीति और विवादों का हिस्सा बनती जा रही है। आमतौर पर कहा जाता है कि एक और एक मिल कर जब ग्यारह हो जाते हैं तो किसी भी लड़ाई को जीता जा सकता है, लेकिन यहाँ उलट हो रहा है, होने को तो 11 हैं लेकिन आपसी  राजनीतिक झगड़ों से टूट कर, बिखर कर अलग-अलग एक-एक हो गए हैं यानी कोरोना के ख़िलाफ़ मज़बूती से लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। इससे पहले प्रधानमंत्री मोदी की झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की फ़ोन पर बातचीत का मसला और फिर ज़िलाधिकारियों के साथ पीएम की बैठक में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को बोलने नहीं देने का आरोप सामने आया था।

दरअसल, मसला सिर्फ़ इतना भर नहीं है कि प्रधानमंत्री अकेले बोल रहे हैं या फिर मुख्यमंत्रियों को अपनी बात कहने का मौक़ा नहीं मिल रहा, बल्कि मुद्दा बड़ा है। मुद्दा है केन्द्र और राज्यों के बीच अधिकारों का संघर्ष। ज़्यादातर राज्यों, खासतौर से, ग़ैर-बीजेपी शासित राज्यों को लगने लगा है कि उनकी ताक़त लगातार कम करने की कोशिश हो रही है और उन्हें हर ज़रूरी चीज़ के लिए केन्द्र के सामने हाथ पसारना पड़ता है, चाहे वो भले ही उनके अधिकार क्षेत्र का मामला हो।

वैसे यह कोई पहला मौक़ा नहीं है जब केन्द्र और राज्य सरकारें आमने-सामने हों, दरअसल यह चिंता तो संविधान बनते वक़्त संविधान निर्माताओं के सामने भी थी और संविधान सभा में भी इस मसले पर लंबी बहस हुई, लेकिन तब ज़्यादातर लोगों ने देश को मज़बूत और एक बनाए रखने के लिए मज़बूत केन्द्र पर ज़ोर दिया, इस राय को रखने वालों में पंडित जवाहर लाल नेहरू और डॉ. भीमराव आंबेडकर भी शामिल थे। 

साढ़े पांच सौ से ज़्यादा रियासतों को एकसाथ लेकर बने आज़ाद मुल्क में उसे एकजुट रखने की चिंता ज़्यादा रही होगी। डॉ. आंबेडकर का मानना था कि देश के नागरिकों की निष्ठा केन्द्र के साथ होनी चाहिए, खासतौर से आपातकाल या संकटकाल के वक़्त न कि राज्यों के प्रति और एक मज़बूत केन्द्र ही देश को एकजुट रख सकता है। 

लेकिन डॉ. आंबेडकर ने स्पष्ट किया था कि केन्द्र और राज्यों की तुलना करना ठीक नहीं, दोनों ही संविधान के अनुरूप बने हैं और उसी से उन्हें अधिकार मिले हैं।

आज़ादी के बाद के बीस साल यानी 1967 तक इस व्यवस्था से ज़्यादा परेशानी नहीं हुई क्योंकि केन्द्र और ज़्यादातर राज्यों में एक ही पार्टी कांग्रेस की सरकारें थीं, इसलिए विचारों में फर्क नहीं था और केन्द्रीय नेता ही उनके असली बॉस थे। लेकिन आज 28 राज्यों और 9 केन्द्र शासित प्रदेशों में 40 से ज़्यादा राजनीतिक दलों की सरकारें काम कर रही हैं। हालाँकि उस वक़्त भी ग़ैर-कांग्रेसी राज्य सरकारों में इस बात को लेकर विरोध बढ़ने लगा था और कमोबेश उसी का नतीजा था नए भारत में भाषाई आधार पर नए राज्यों का गठन और फिर दक्षिण भारत में खासतौर से तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन।

1967 के बाद जब राज्यों में ग़ैर-कांग्रेसी सरकारें बनने लगीं तो राजनीतिक मतभेदों से केन्द्र और राज्यों के बीच संघर्ष बढ़ने लगे। फिर इंदिरा गांधी के 1977 तक के शासन में भी ज़्यादा परेशानियाँ नहीं हुईं। उस वक़्त सबसे बड़ा मुद्दा था विपक्षी पार्टियों की राज्य सरकारों को बर्खास्त करना। वैसे, सबसे पहली बार नेहरू ने पंजाब में 1951 में राष्ट्रपति शासन लगाया था, उसका कारण कांग्रेस में फूट। फिर 1959 में केरल में वामपंथी ई एम एस नंबूदरीपाद सरकार को बर्खास्त किया गया। देश में अब तक 132 बार राष्ट्रपति शासन लगाया जा चुका है इसमें सबसे ज़्यादा 51 बार इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री काल में राष्ट्रपति शासन लगाया गया। फिर जनता पार्टी के तीन साल के राज में 21 बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने अब तक दस बार राष्ट्रपति शासन लगाया है। हर बार केन्द्र पर राजनीतिक दुर्भावना से राज्यपाल के अधिकारों का दुरुपयोग कर चुनी हुई सरकारों को बर्ख़ास्त करने का आरोप लगता है। हर बार इस पर बहस शुरू होती है लेकिन होता कुछ नहीं।

सुप्रीम कोर्ट में इसको लेकर कई बार फ़ैसले किए गए, उसमें सबसे महत्वपूर्ण फ़ैसला बोम्मई केस को माना जाता है। इसके साथ ही केन्द्र ने दो महत्वपूर्ण आयोग गठित किए थे साल 1983 में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस आर एस सरकारिया और फिर 2007 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस एम एम पुंछी की अध्यक्षता में। लेकिन इन दोनों आयोगों की रिपोर्टों पर कोई महत्वपूर्ण काम नहीं हुआ और मसला जस का तस बना हुआ है।

हर बार राज्यपाल को केंद्र के एजेंट के तौर पर आरोपित किया जाता है। अभी पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ को लेकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का ग़ुस्सा आए दिन दिखाई देता है।

केन्द्र और राज्यों के बीच रिश्तों में राज्यपाल के अलावा एक और महत्वपूर्ण एजेंसी सीबीआई हमेशा विवादों के घेरे में रहती है। आरोप लगता है कि  सीबीआई अक्सर केन्द्र के इशारों पर राज्य सरकारों और विपक्षी दलों के नेताओं को परेशान करने और फँसाने के लिए काम में ली जाती रही है। एक ज़माने में सुप्रीम कोर्ट में सीबीआई को केन्द्र के पिंज़रे में बंद तोता कहा गया था, उस वक़्त केन्द्र में यूपीए की सरकार थी। अभी पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के चार नेताओं की गिरफ़्तारी को लेकर भी काफी हो हल्ला हुआ। राज्य सरकार के किसी मंत्री के ख़िलाफ़ जांच करने के लिए सीबीआई को उस सरकर से पहले मंज़ूरी लेनी होती है। इसमें आठ राज्यों  पंजाब, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, झारखंड, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, केरल और मिजोरम की सरकारों ने एजेंसी को मंजूरी देने से इंकार कर दिया है, इन सभी राज्यों में ग़ैर-बीजेपी सरकारें हैं। इसके अलावा केन्द्र के किसानों से जुड़े तीन बिलों को पंजाब, राजस्थान और छत्तीसगढ़ सरकारों ने बदलाव करके पास कर दिया, यहां तीनों ही जगह कांग्रेस की सरकारें हैं।

केन्द्र और राज्यों के बीच विवाद फंड के बँटवारे और योजनाओं के क्रियान्वयन को लेकर भी चलता रहता है। योजना आयोग के वक़्त भी विपक्षी पार्टियों की सरकारें उनके राज्यों की अनदेखी करने का आरोप लगाती रहती थीं। जीएसटी कानून के लागू होने के बाद भी केन्द्र से पैसे के बँटवारे का झगड़ा ख़त्म नहीं हुआ है। ताजा हालात में आपदा प्रबंधन कानून लागू होने के बाद केन्द्र के पास ज़्यादा ताक़त है और वो कोरोना से निपटने के लिए भले ही ऑक्सीजन बँटवारे, दवाओं और चिकित्सा व्यवस्था, वेंटिलेटर भेजने के साथ वैक्सीन बँटवारे का काम हो, ज़्यादातर ग़ैर बीजेपी सरकारें केन्द्र पर हमला बोल रही हैं। 

पिछले साल मार्च में जब केन्द्र सरकार ने पहली बार देश भर में लॉकडाउन लगाया था तब उसकी यह कह कर खासी आलोचना हुई थी कि उसने इस मसले पर राज्य सरकारों को विश्वास में नहीं लिया। अब इस बार यह ज़िम्मेदारी जब राज्यों पर सौंप दी गई है तो कहा जा रहा है कि केन्द्र को इस पर फ़ैसला करना चाहिए। यह मसला एकतरफ़ा नहीं है, दोनों ही तरफ़ कुछ कुछ सच्चाई है, लेकिन इतने बड़े राष्ट्रीय संकट के वक़्त भी हमारे राजनीतिक दल एक साथ खड़े होने के बजाय अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंक रहे हैं। यह भी सच है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकारों से सवाल पूछना हमारा अधिकार है, ऐसे में केन्द्र विपक्षी पार्टियों और नेताओं के सवालों को सिर्फ़ राजनीति करने या राजद्रोह कह कर खारिज़ नहीं कर सकता। वैसे केन्द्र -राज्य संबंधों की कहानी हरिकथा जैसी है- हरि अनंत, हरि कथा अनंता...।