जहांगीरपुरी में बुलडोजर चले। सुप्रीम कोर्ट का स्टे आया, फिर भी बुलडोजर रुका नहीं। तब तक चलता रहा जब तक सुप्रीम कोर्ट का आदेश ‘ऊपर’ से ‘नीचे’ तक पहुंच नहीं गया। टीवी पर दो तस्वीरें एक साथ चलती दिखीं। सुप्रीम कोर्ट का स्टे और स्टे के बावजूद अवैध बताकर निर्माणों का तोड़ा जाना।
बहरहाल, जहांगीरपुरी में अवैध निर्माणों पर हुई कार्रवाई पर सुप्रीम कोर्ट अगले दिन विचार करेगा। पीड़ित गरीब और अल्पसंख्यक वर्ग ही नहीं पूरे देश की नज़र इस पर टिकी है।
बुल़डोजर यानी जेसीबी को बीजेपी नेता जेएल नरसिम्हा ने ‘जिहाद कंट्रोल बोर्ड’ नाम दिया है। एक स्पष्ट संदेश है कि अवैध निर्माण तोड़े जा रहे हैं लेकिन वास्तव में यह कथित जिहाद को कंट्रोल करने की कार्रवाई है। पूरी कार्रवाई जहांगीरपुरी के उस इलाके में हुई जहां मस्जिद है और जहां हनुमान जयंती की शोभायात्रा के गुजरते वक्त तनाव पैदा हुआ था।
नफ़रत का बुलडोजर
मध्यप्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा के उस कुख्यात बयान को याद करना भी जरूरी है, “जिस घर से भी पत्थर आए हैं, उस घर को हम पत्थर बना देंगे”। यह बयान खरगोन हिंसा के संदर्भ में था। मगर, इस बयान का संदेश सिर्फ खरगोन तक सीमित नहीं था और न ही यह बीजेपी सरकार के एक मंत्री भर का बयान होकर रह गया। यह बयान नीति बनकर सामने है। और, यह नीति है ‘नफरत का बुलडोजर’ जिसे जेएल नरसिम्हा ने ‘जिहाद कंट्रोल बोर्ड’ नाम दिया है।
दिल्ली में 2014 तक बनीं लगभग दो हजार अवैध बस्तियां हैं जिन्हें वैध किए गये हैं या 2023 तक वैध कर दिया जाना है। 1.35 करोड़ लोग इन अवैध बस्तियों में रहते हैं। ये वोट बैंक भी हैं। लिहाजा इन पर अवैध निर्माण का इल्जाम लगाने कोई सामने नहीं आता, बल्कि उन्हें वैध करने की राजनीतिक दलों में होड़ मची रहती है।
दिल्ली में सिर्फ जहांगीरपुरी ही नहीं है जहां अवैध निर्माण हैं। मगर, कार्रवाई सिर्फ यहीं हुई है। सुप्रीम कोर्ट जब इस विषय पर विचार करेगा तो देखना यह दिलचस्प रहेगा कि वस्तुगत आधार पर अवैध निर्माण गिराने की कार्रवाई सही ठहरायी जाती है या फिर सम्यक दृष्टि के साथ इस मामले को सुप्रीम कोर्ट देखने वाला है।
अपराध कुछ हो ‘सज़ा’ बुलडोजर देगा!
राजनीति में जिस तरह से ‘बुलडोजर’ का प्रवेश हुआ है उससे पता चलता है कि अपराध चाहे कुछ भी हो, सज़ा बुलडोजर देगा। लेकिन, यह भेदभाव भी करेगा। अगर अपराधी की भक्ति है उस राजनीतिक दल के साथ, जिसके इशारे पर पुलिस या स्थानीय प्रशासन काम करता है तो बुलडोजर उस ओर रुख नहीं करेगा। इसका मतलब यह है कि ‘बुलडोजर’की कार्रवाई या बख्श देने वाला रुख अनुकूल निष्ठा देखकर ही हो रही है।
सांप्रदायिक तनाव की घटना हो तो इसमें शामिल लोगों को सिर्फ उस गुनाह के लिए सज़ा नहीं मिलेगी जो उसने तत्काल किए हैं। बल्कि, उन गुनाहों के लिए भी उन पर ‘बुलडोजर’ चलेंगे जो उन्होंने अतीत में कर रखे होंगे। संभव है कि उसने कोई गुनाह न भी किए हों। फिर भी ‘बुलडोजर’उनकी निष्ठा को धर्म या राजनीतिक विचारों के आधार पर परखेगा।
नफ़रत के बुलडोजर की नज़ीर है वसीम शेख
खरगौन का वसीम शेख उदाहरण है। उसके दोनों हाथ किसी हादसे में 2005 में कट गये थे। फिर भी स्थानीय पुलिस ने चाहा तो उसे ‘पत्थरबाज’ बताकर उस पर एफआईआर कर बैठी। स्थानीय प्रशासन ने उसकी गुमटी गिरा दी। ऐसे कई उदाहरण हैं। जेल में बंद युवकों पर भी एफआईआर हो सकती है कि उसने पत्थर चलाए।
ये सभी धर्म के आधार पर ‘बुलडोजर के निशाने’ हैं। खुले तौर पर ‘अपराधियों को सबक सिखाने’ का एलान हो रहा है और इसका एक समर्थक वर्ग भी पैदा हो चुका है जो यह समझने में नाकाम है कि सरकारें तो बदलती रहती हैं लेकिन जब सरकार खुद कानून को हाथ में लेने लगे तो निशाने पर कोई भी आ सकता है। अलग-अलग प्रांतों की सरकारें अलग-अलग तरीके से अपने विरोधियों के लिए इस सोच का इस्तेमाल कर सकती है।
पंजाब पुलिस की कार्रवाई
पंजाब पुलिस जो नोटिस लेकर इन दिनों आम आदमी पार्टी के राजनीतिक विरोधियों के घर पहुंच रही है वह भी ‘अपराधियों को सबक सिखाने’ की सोच का ही हिस्सा है। डॉ कुमार विश्वास, अलका लांबा, तेजिंदर सिंह बग्गा, हरीश खुराना, राम प्रवेश वर्मा जैसे नेता अचानक पंजाब पुलिस की नज़र में गुनहगार हो गये है।
पंजाब चुनाव के दौरान अगर इनके बयान गलत थे तो सवाल यह है कि उस दौरान क्या आम आदमी पार्टी के नेताओं के मुंह से फूल बरस रहे थे? पंजाब पुलिस को आम आदमी पार्टी के एक भी नेता ऐसे नहीं मिले जिन्हें वे नोटिस दे सकते थे। जाहिर है फैसला राजनीतिक है और राजनीतिक विद्वेष के लिए पंजाब पुलिस इस्तेमाल हो रही है।
जब शुरू हुआ था ‘संविधान पर बुलडोजर’ चलना
जब पहली बार दिल्ली में “गद्दारों को गोली मारो...” जैसे नारे लगे थे तो वास्तव में संविधान पर बुलडोजर चलाने की शुरुआत उसी समय हो गयी थी। तब तर्क दिया गया था कि शरीफ लोगों को गोली मारने की बात नहीं की गयी है और जो लोग इस बयान के विरोधी हैं वे गद्दारों के साथ हैं। यही सिलसिला आगे भी बढ़ता रहा है। जो लोग अवैध निर्माण गिराने को लेकर संविधान और कानून की बात करेंगे, उन्हें अपराधियों का बचाव करने वाला करार दिया जाएगा।
राजनीतिक विरोधियों को आत्मसमर्पण कराने के हथकंडे के तौर पर भी प्रशासनिक कार्रवाई का इस्तेमाल हो रहा है। लखीमपुर खीरी केस में किसान जेलों में बंद हैं। अगर वे अपना रुख बदल लें तो उन पर कार्रवाई ढीली हो सकती है और अगर वे ऐसा नहीं करेंगे तो उन पर कई अन्य धाराएं भी थोपी जा सकती है। इसी केस में नियमों को ताक पर रखकर मुख्य अभियुक्त को ज़मानत भी मिल जाती है और सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना भी पड़ जाता है।
‘संविधान पर बुलडोजर’ की स्थिति देशभर में मजबूत हो रही है। हर क्षेत्र में कानून को हाथ में लेकर चीजों को ‘ठीक कर देने’ की प्रवृत्ति परवान चढ़ रही है।
अगर इसका उचित प्रतिकार बौद्धिक वर्ग या राजनीतिक वर्ग नहीं कर पाता है तो आने वाले समय में इसके भयावह परिणाम देखने को मिल सकते हैं। अकेले न्यायपालिका के भरोसे उम्मीद नहीं की जा सकती कि स्थिति संभल जाएगी। नमूना हम देख चुके हैं कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद अवैध निर्माण तोड़ने का काम मनमुताबिक समय तक चलता रहा।