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राजनीति का 'बुलडोज़र काल'

राजनीति का 'बुलडोज़र काल'

योगी आदित्यनाथ को बुलडोज़र बाबा तो शिवराज सिंह चौहान को बुलडोज़र मामा की उपाधि क्यों दी गई है? ये नेता ऐसी उपाधियां क्यों लेना चाहते हैं?                                       

किसी सच्चे संत, महात्मा, त्यागी अथवा योगी को यदि 'बुलडोज़र बाबा' की उपाधि से नवाज़ा जाये तो मुझे नहीं लगता कि यह उपाधि उसे पसंद आयेगी या अच्छी लगेगी। क्योंकि निश्चित रूप से बुलडोज़र विध्वंस तोड़ फोड़ का ही प्रतीक है। और किसी संत योगी का विध्वंस से आख़िर क्या वास्ता हो सकता है। 

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ को भी जब टीवी व समाचारपत्रों में 'बुलडोज़र बाबा' के नाम से उद्घृत किया जाता था तो ऐसा ही लगता था कि शायद यह 'उपाधि’ उन्हें भी ठीक न लगती हो।

परन्तु पिछले दिनों जब योगी आदित्य नाथ को उनके मुख्यमंत्री पद की दूसरी बार शपथ ग्रहण करने से पूर्व गत 20 मार्च को ही उनके गोरखपुर प्रवास के दौरान कुछ व्यवसायियों द्वारा चांदी का बुलडोज़र भेंट किया गया और योगी जी प्रसन्नचित मुद्रा में चांदी के उस बुलडोज़र को स्वीकार करते हुये नज़र आये तो मेरी ग़लतफ़हमी दूर हो गयी।

यह समझने में देर नहीं लगी कि योगी जी को बुलडोज़र बाबा की उपाधि से कोई आपत्ति नहीं बल्कि शायद वे स्वयं को इस उपाधि से गौरवान्वित ही महसूस कर रहे हैं। और जब सूत्रों से यह पता चला कि योगी को चांदी का बुलडोज़र भेंट करने वाले व्यापारी भी गोरख पीठ से ही जुड़े हुए लोग हैं फिर इस निष्कर्ष पर पहुँचने में भी कोई हर्ज नहीं कि यह 'बुलडोज़र भेंट' भी प्रायोजित एवं नियोजित था।

                                     

बहरहाल 'बुलडोज़र’ की लोकप्रियता अब उत्तर प्रदेश से सटे राज्य मध्य प्रदेश में भी पहुँच चुकी है। उत्तर प्रदेश में 'बुलडोज़र बाबा' तो मध्य प्रदेश में 'बुलडोज़र मामा' के पोस्टर लगने शुरू हो चुके हैं। मामा के नाम से लोकप्रिय हो चुके मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी लगता है 'बुलडोज़र मामा’ की उपाधि से उतना ही ख़ुश हैं जितना कि उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्य नाथ 'बुलडोज़र बाबा ' की उपाधि से प्रसन्न नज़र आते हैं। 

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'बुलडोज़र मामा’ भी आए 

मध्य प्रदेश में कई स्थानों पर भाजपा कार्यकर्त्ता मुख्यमंत्री चौहान और बुलडोज़र छपे फ़्लेक्स लगाने में जुटे हैं। उधर 'बुलडोज़र मामा’   की उपाधि मिलते ही चौहान बुलडोज़र की तरह गरजने भी लगे हैं। मुख्यमंत्री के पद पर रहते हुये उनकी 'बुलडोज़री भाषा' पर भी ग़ौर कीजिये - मुख्यमंत्री चौहान फ़रमाते हैं कि-'मध्यप्रदेश में जितने गुंडे और अपराधी हैं, वो भी सुन लें। अगर ग़रीब कमज़ोर की तरफ़ हाथ उठे तो मकान को मैदान बना दूंगा। गुंडागर्दी करने वालों, मध्यप्रदेश की धरती से तुम्हारा अस्तित्व मिटा दिया जाएगा। सबको कुचल दिया जाएगा। मामा का बुलडोज़र चला है, जो अब रुकेगा नहीं, जब तक गुंडों-बदमाशों को दफ़न नहीं कर देगा। एमपी के सारे अपराधी सुन लो, किसी ग़रीब या कमज़ोर पर हाथ उठाया तो तुम्हारे घर उखाड़कर उसे मिट्टी में मिला दूंगा. तुम्हें यहां शांति से जीने नहीं दूंगा।' आदि आदि ....मुझे नहीं लगता कि इस तरह की शब्दावली का प्रयोग पहले भी राजनेताओं द्वारा किया गया हो।                                                                     

                                

किसी भी अपराधी या बलात्कारी के विरुद्ध प्रशासन को निश्चित रूप से सख़्त व न्यायसंगत कार्रवाई ज़रूर करनी चाहिये। ऐसा करते समय न तो किसी का धर्म या जाति देखकर किसी तरह का पक्षपात करना चाहिये न ही किसी का रुतबा अथवा पद देखना चाहिये। 'राम राज' लाने का दावा करने वाले शासन को सबके लिये एक समान न्याय सुनिश्चित करना चाहिये। किसी शासक को अपनी छवि किसी आक्रामक या दबंग नेता के बजाये एक सौम्य, विवेकपूर्ण, लोक सेवक तथा मृदुभाषी नेता के रूप में स्थापित करनी चाहिये। जहाँ तक किसी अपराधी का घर ढहाने का प्रश्न है तो इस बात को भी मद्देनज़र रखना चाहिये कि जिस मकान पर सिर्फ़ इसलिये बुलडोज़र चलाया जा रहा है कि इस मकान में कोई अपराधी रहता है,तो इससे पहले यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि आरोपी उस मकान का मालिक है भी अथवा नहीं ? 

इस मानवीय पक्ष को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि किसी आरोपी के बुज़ुर्ग माता पिता और भाई बहन का क्या दोष जिन्हें उनकी नालायक़ औलाद के चलते घर से बेघर किया जाये ? देश की अदालतें भी किसी के जघन्य अपराधी साबित होने के बावजूद किसी के मकान पर बुलडोज़र चलाने का आदेश नहीं देतीं। क्योंकि वह न्यायालय है जहाँ इंसाफ़ मिलता है। अपराध करने वाले को सज़ा मिलती है न कि उसका मकान ढहा कर उसके बूढ़े मां बाप और परिजनों को भी बेघर व बेसहारा कर दिया जाये ?

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राजनीतिक दलों में अपराधी

आज सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष तक के अधिकांश राजनैतिक दलों में अपराधी भरे पड़े हैं। अभी ज़्यादा समय नहीं बीता है जबकि सिंगापुर के प्रधानमंत्री ने अपने देश की संसद में भारतीय राजनीतिज्ञों का 'काला चिट्ठा' खोला था। भारतीय मीडिया की रिपोर्ट्स के हवाले से ही उन्होंने यह आंकड़े रखे थे कि किन किन आरोपों में संलिप्त कितने 'महामहिम’ इस समय भारतीय संसद की रौनक़ बढ़ा रहे हैं। क्या 'सरकार का बुलडोज़र' कभी इन 'महामहिम' के मकानों की तरफ़ भी गया ? 

उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश में कई ऐसी इमारतों को भी बुलडोज़र से धराशायी करने की ख़बरें मिलीं जिन्हें या तो सरकारी ज़मीन पर क़ब्ज़ा बताया गया या अवैध निर्माण बताकर गिराई गयीं। बेशक सरकार व प्रशासन के पास निर्धारित नोटिस दिये जाने के बाद इस तरह के अवैध निर्माण गिराये जाने का प्रावधान है। परन्तु इस बात की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इस तरह के अवैध निर्माणों में स्थानीय सम्बद्ध विभाग के कर्मचारियों व अधिकारियों की भी मिलीभगत होती है। प्रशासन के लोग आख़िर इस तरह के अवैध निर्माणाधीन भवन को आंखे मूँद कर क्यों देखते रहते हैं ? अवैध निर्माणों को प्रोत्साहन देने वाले भ्रष्टाचारी लोग भी क्या सज़ा के हक़दार नहीं?

लगता है राजनीति का सौम्य-शिष्ट व उदार काल अब समाप्त हो चुका है। अब ठोक दो, बक्कल उतार दो, गर्मी उतार दो, मकान को मैदान बना डालो, कुचल दो जैसे 'आक्रामक संवाद भाषा' का दौर शुरू चुका है।

जिस देश में पंडित नेहरू की पहचान 'गुलाब के फूल' से होती थी उसी देश में अब 'बुलडोज़र बाबा' और 'बुलडोज़र मामा' की उपाधि पाकर राजनेता प्रफुल्लित महसूस कर रहे हैं। राजनीति के इस विषम दौर को राजनीति का 'बुलडोज़र काल' कहना ग़लत नहीं होगा।

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