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राम मंदिर आंदोलन के बावजूद भाजपा के हाथ से कैसे निकली अयोध्या?

राम मंदिर आंदोलन के बावजूद भाजपा के हाथ से कैसे निकली अयोध्या?

राम मंदिर आंदोलन चलाने से लेकर रामलला की प्राण प्रतिष्ठा कराने के बावजूद बीजेपी अयोध्या से दूर कैसे हो गई? आख़िर किन वजहों से समाजवादी पार्टी के अवधेश प्रसाद ने जीत हासिल की?

जबसे भारतीय जनता पार्टी 2024 का लोकसभा चुनाव हारी है, तबसे देश भर में लोग यह सवाल कर रहे हैं कि आखिर भाजपा ‘अयोध्या’ (फैजाबाद लोकसभा सीट) से कैसे हार गई? जबकि भाजपा के लिए यह पहला अवसर नहीं है कि वह फैजाबाद की लोकसभा सीट हारी हो। भाजपा तो 2012 में अयोध्या विधानसभा सीट भी हारी है।

चुनाव के पहले जिस प्रकार से अयोध्या में नवनिर्मित राममंदिर के लोकार्पण और नयी बालक राम की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा के लिए तैयारियां चल रही थीं, राज्य सरकार और केन्द्र सरकार अयोध्या को ‘स्वर्ग’ बनाने में लगी थी, सड़क, सजावट, पार्किंग, पेंटिंग और अन्य कार्यों के लिए हजारों करोड़ की योजनाओं के लिए पैसा पानी की तरह से बहाया जा रहा था उससे लोगों को आश्चर्य ज़रूर हो रहा है कि इन सबके बावजूद भाजपा फैजाबाद लोकसभा से कैसे हार गई? 35 हजार करोड़ तो सिर्फ उत्तर प्रदेश सरकार की योजनाएं चल रही हैं। लोगों के दुःख तकलीफों की चिंता किए बगैर लोगों के घर-दुकानें तीन मार्गों के चौड़ीकरण और सौन्दर्यीकरण के लिए ढहायी जा चुकी थीं। भाजपा और विश्व हिन्दू परिषद की ओर से पूरे देश भर से श्रद्धालुओं को अयोध्या लाकर दर्शन कराने की योजना बनी थी। रेलगाड़ियां, बसों की संख्या कई गुना कर दी गई थी जिससे लोग आयें और स्मृतियां लेकर जायें। प्राण प्रतिष्ठा के बाद से बाहर से आने वालों का आकर्षण बहुत अधिक रहा। सम्भवतः इसी आकर्षण को ध्यान में रखकर 2023 के कई विधानसभा चुनाव में भी गृहमंत्री और भाजपा के कई नेताओं ने पहली जनवरी को अयोध्या आने का न्यौता बांट डाला था कि आपलोग अभी से अयोध्या के लिए रिजर्वेशन करा लें। वहीं राममंदिर के लिए श्री रामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट की ओर से बांटे गए न्यौते को लेकर भी भाजपा ने राजनीति करके विपक्ष को घेरने का काम किया।

9 नवम्बर 2029 को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद बाबरी मस्जिद के स्थान पर निर्मित अयोध्या के नवनिर्मित राममंदिर में बालक राम की प्राण-प्रतिष्ठा के लिए पूरे देश को भाजपा विश्व हिन्दू परिषद और उसके अन्य संगठनों ने राजनीतिक और धार्मिक तौर पर मथ डाला था। प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और डिजिटल मीडिया भी पूरी तौर पर राममय बना हुआ था। अयोध्या में पत्ता भी हिलता था तो वह मीडिया की सुर्खियां बन जाता था। 22 जनवरी को आखिर वह दिन भी आ गया जब नवनिर्मित राममंदिर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दक्षिण भारत के कलाकार द्वारा काले पत्थर पर बनी ‘बालक राम’ की प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा की। इस अवसर पर मुख्य अतिथि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और संघप्रमुख मोहन भागवत उस गर्भगृह में यजमानों और धार्मिक क्रिया को सम्पन्न कराने वाले पंडितों के साथ मौजूद थे।

इस वर्ष जनवरी के अन्तिम सप्ताह में प्राण प्रतिष्ठा के साथ ही बने धार्मिक माहौल के बाद भाजपा यह मान रही थी कि जिस प्रकार का माहौल है उसमें अब उसके कुछ खास करने की ज़रूरत नहीं हैं। उसे लगा कि इस बार राममंदिर ही उसकी नइया पार लगा देगा। भाजपा ने राजग के लिए अबकी बार 400 पार और भाजपा के लिए 370 का नारा दिया था। यह नारा जहां बहुत से लोगों के लिए छलावा लग रहा था वहीं भाजपा के लोगों के दिल में और मजबूती हो गई कि भाजपा के आगे विपक्ष कुछ भी नहीं है और अयोध्या की लोकसभा की फैजाबाद सीट तो भाजपा के लिए अजेय है। यहां तो उसे कोई हरा ही नहीं सकता है।

अयोध्या के राममंदिर को लेकर विश्व हिन्दू परिषद के आंदोलन को देखा जाये तो इसकी शुरुआत 1984 से ही रामजानकी रथयात्रा के साथ हो गई थी। जिसे पूरे प्रदेश में घुमाते हुए दिल्ली ले जाया जाना था लेकिन यह रथ प्रदेश भर में दिल्ली पहुंचता इसके पहले ही इंदिरा गांधी की हत्या हो गई जिसके कारण कुछ दिनों तक यह मामला शांत रहा। लेकिन 1984-85 के चुनाव में जब भारतीय जनता पार्टी के हाथ में सिर्फ दो लोकसभा सीटें आयीं तो यह मामला तेजी से आगे बढ़ा। यह ताला खोलो, शाहबानो केस, शिलान्यास, कारसेवा और बाबरी मस्जिद विध्वंस तक पहुंच गया। अयोध्या राममंदिर आंदोलन में पहले भाजपा पर्दे के पीछे रही लेकिन पालमपुर प्रस्ताव के बाद 1989 में वह खुलकर सामने आ गई। 

1989 का चुनाव भारतीय राजनीति का टर्निंग प्वाइंट था जब अयोध्या राजनीति के केन्द्रबिन्दु में आ गया। तबसे देश की राजनीति इसके इर्द-गिर्द घूमा करती है।

1989 में भाजपा ने फैजाबाद लोकसभा सीट से अपना कोई प्रत्याशी नहीं उतारा था, उसकी जनता दल के साथ अंडरस्टैंडिंग थी। तब अयोध्या-फैजाबाद में स्थानीय तौर पर ‘लल्लू’ और ‘पंजू’ का नारा लग रहा था यानी विधानसभा में भाजपा और लोकसभा में कांग्रेस को वोट देना है। लेकिन जब चुनाव परिणाम आये तो विधानसभा में जनता दल के जयशंकर पाण्डे जीते और लोकसभा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के मित्रसेन यादव। इसके बाद हुए 1991 और 1996 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के विनय कटियार, 1998 के चुनाव में समाजवादी पार्टी से मित्रसेन यादव को जीत हासिल हुई थी। 1999 के लोकसभा चुनाव में भाजपा से विनय कटियार फिर जीते। लेकिन 2004 के चुनाव में मित्रसेन यादव बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर जीते। 2009 में फैजाबाद लोकसभा की यह सीट कई चुनावों के बाद एक बार फिर कांग्रेस के खाते में आ गई और कांग्रेस के निर्मल खत्री सांसद बने। 2014 में राजनीति में मोदी युग के साथ ही लल्लू सिंह पहली बार सांसद बने थे और 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने दोबारा जीत हासिल की। इस प्रकार कहा जा सकता है कि फैजाबाद लोकसभा सीट किसी भी पार्टी के लिए अजेय नहीं है। वह चाहे भारतीय जनता पार्टी ही क्यों न हो? भाजपा को जीत दिलाने में अयोध्या विधानसभा की बड़ी भूमिका रहती आयी है। लेकिन इस बार के लोकसभा चुनाव में अयोध्या विधानसभा से भाजपा को सिर्फ चार हजार वोटों की ही बढ़त हासिल हुई, अन्य चारों विधानसभाओं में उसकी हार हुई। यही कारण रहा कि भाजपा यह चुनाव हार गई।

फैजाबाद लोकसभा सीट की पांच में से चार विधानसभा अयोध्या, बीकापुर, रूदौली, दरियाबाद सीटों पर भारतीय जनता पार्टी के विधायक हैं। 2022 के विधानसभा चुनाव में माहौल बनाकर भी समाजवादी पार्टी भाजपा से इन सीटों को नहीं छीन पायी थी। इसके बावजूद 2024 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के अवधेश प्रसाद ने भाजपा को 56 हजार से भी अधिक मतों से भाजपा को हराया जबकि सिर्फ मिल्कीपुर सीट ही समाजवादी पार्टी के पास थी, जहां से अवधेश प्रसाद विधायक रहे। आने वाले समय में असली चुनौती अब समाजवादी पार्टी के पास यह है कि अवधेश प्रसाद द्वारा सांसद बनने के फलस्वरूप छोड़ी गई मिल्कीपुर विधानसभा सीट पर होने वाले उपचुनाव में क्या सपा फिर से जीत हासिल करने में सफल हो पाती है? यहां उसकी प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है।

अयोध्या में फैजाबाद की लोकसभा सीट से भाजपा की हार को दूर बैठे लोग इसलिए आश्चर्य से देखते हैं क्योंकि वह अयोध्या की तासीर से वाकिफ नहीं होते हैं। इसलिए वह यह सोच ही नहीं सकते हैं कि अयोध्या से कभी भाजपा हार भी सकती है। अयोध्या-फैजाबाद की साझा गंगा-जमुनी संस्कृति रही है कि सारा आंदोलन अयोध्या में और अयोध्या के नाम पर लड़ा गया लेकिन अयोध्या की साझा संस्कृति अभी भी विद्यमान है।

लोकसभा 2024 के चुनाव में फैजाबाद लोकसभा सीट से भाजपा की हार का एक बड़ा कारण ओबीसी वर्ग का जो भाजपा के साथ 2014 से तेजी से जुड़ गया था उसका लगभग 60 फीसदी भाजपा का साथ छोड़ गया। जिसका परिणाम रहा कि सामान्य सीट होने के बावजूद अनुसूचित जाति के पासी समाज से आये अवधेश प्रसाद के पक्ष में दलित और ओबीसी अल्पसंख्यक एकजुट हुए, जिन्होंने भाजपा प्रत्याशी लल्लू सिंह को अगडे़- पिछडे़ की गोलबंदी से किनारे लगा दिया। जबकि पिछले लोकसभा चुनाव से ज्यादा वोट भाजपा के लल्लू सिंह को इस लोकसभा चुनाव में मिले। बहुजन समाज पार्टी की दयनीय स्थिति और संविधान पर ख़तरे को लेकर बनी एकजुटता ने मतों का ध्रुवीकरण दो पाटों में बांट दिया जिसमें भाजपा या भाजपा के खिलाफ ही लोगों को वोट करने का विकल्प था। कांग्रेस के साथ समाजवादी पार्टी के समझौते का सन्देश समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के 2019 के समझौते से अलग रहा। प्रदेश में कांग्रेस का वोट और संगठन भले ही कमजोर रहा लेकिन जनता में यह सन्देश गया कि उनके सामने राष्ट्रीय स्तर का विकल्प चुनने का अवसर है।

फैजाबाद की लोकसभा सीट में पांच विधानसभाएं आती हैं, जिनमें अयोध्या की विधानसभा सीट भी शामिल है। इस सीट से भी भाजपा 2012 में विधानसभा चुनाव में हार चुकी है।

अयोध्या विधानसभा सीट से लल्लू सिंह को समाजवादी पार्टी के विधायक तेजनारायण पाण्डे ने हराया था। वहीं, 1989 में फैजाबाद लोकसभा सीट से कम्युनिस्ट पार्टी के नेता मित्रसेन यादव ऐसे समय चुनाव जीते थे जब अयोध्या में विश्व हिन्दू परिषद द्वारा किए जाने वाले राममंदिर शिलान्यास के एक सप्ताह पहले प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने फैजाबाद से अपने लोकसभा चुनाव अभियान की शुरुआत ‘रामराज्य की स्थापना’ के संकल्प से की थी। उस समय राज्य और केन्द्र दोनों ही जगह कांग्रेस का शासन था और लोकसभा और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव साथ-साथ हुए थे।

फैजाबाद की सीट से भाजपा का लोकसभा चुनाव हारना अयोध्या-फैजााबद के लोगों के लिए बहुत बड़ा नहीं लगा जितना कि अयोध्या के बाहर लोगों ने महसूस किया और अयोध्या को भला-बुरा कहा। लेकिन अयोध्या-फैजाबाद के लोग हमेशा से यही समझते रहे हैं कि अयोध्या किसी के लिए भी अजेय नहीं है। 22/23 दिसम्बर 1049 को बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखी गई थी। इसे कुछ लोग इसके पूर्व हुए अयोध्या विधानसभा के उपचुनाव की परिणति मानते हैं। क्योंकि उस चुनाव में बहुत ही साम्प्रदायिक माहौल बन गया था तब भाजपा का अस्तित्व ही नहीं था। इस भूमिका में कांग्रेस थी। कांग्रेस में शामिल सोशलिस्ट पार्टी के विधायकों ने इस्तीफा दे दिया था। सोशलिस्ट विचारक आचार्य नरेन्द्रदेव इस्तीफा देकर इस सीट से चुनाव लड़े थे। इस चुनाव में ऐसी साम्प्रदायिकता का बोलबाला रहा कि आचार्य नरेन्द्रदेव को ‘नास्तिक’ और ‘रावण’ की संज्ञा देकर कांग्रेस के लोग चुनाव में प्रचार करते थे। अंततः आचार्य नरेन्द्रदेव चुनाव हार गए और कांग्रेस के प्रत्याशी बाबा राघवदास, जिन्हें पार्टी देवरिया से लायी थी, चुनाव जीत गए। इसके बाद ही अयोध्या में मूर्ति रखे जाने की घटना हुई और मूर्ति रखे जाने के बाद हिन्दू महासभा के बैनर तले आयोजित रामलला की बरही समारोह में आये कांग्रेस के नवनिर्वाचित विधायक बाबा राघवदास ने अपना मार्मिक भाषण दिया और एक लाख पचास हजार श्रीरामचरित मानस पाठ कराने की अपील की थी (अयोध्या के साप्ताहिक समाचार पत्र ‘विरक्त’ में छपा) इससे हम कह सकते हैं कि राजनीति से अयोध्या के इस मामले का सम्बन्ध पहले से ही रहा है। यह चुनाव देश के आजाद होने के बाद और संविधान लागू होने के पहले हुए थे। इस चुनाव में वयस्क मताधिकार नहीं था यानी सभी को मत देने का अधिकार नहीं था और विधानसभा क्षेत्र ही कई जिलों में फैला था।

लोकसभा चुनाव की तैयारियों के सिलसिले में जब समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने मिल्कीपुर के विधायक अवधेश प्रसाद को फैजाबाद लोकसभा का प्रभारी बनाया था। तब ऐसा लग रहा था कि चुनाव शायद कोई और लडे़गा और वह भी भाजपा का प्रत्याशी कौन आता है इस पर निर्भर करेगा। क्योंकि अयोध्या को जिस प्रकार से तैयार किया जा रहा था उससे यही लगता था कि भाजपा का कोई बड़ा नेता ही यहां से चुनाव लडे़गा। यही कारण है कि सांसद अवधेश प्रसाद कहते हैं- भाजपा ने दो बार सर्वे कराया जब लगा कि वह हार जायेगी तो बड़ा नेता नहीं आया। वे बार-बार कहते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी लड़ते तो वे भी हार जाते। जिस प्रकार पंचतंत्र में कछुआ खरगोश की कहानी हम लोग पढ़ते आये हैं, इस सीट पर भी कुछ ऐसा ही हुआ। अवधेश प्रसाद अपनी उम्र और शैली से बहुत तेज भागने वाले नहीं रहे। लेकिन वह गांव-गांव जाकर लोगों से मिलते रहे, अपनी बात कहते रहे। लोग अवधेश प्रसाद को ‘मंत्री जी’ के नाम से ज्यादा सम्बोधित करते हैं क्योंकि वह कई बार कैबिनेट मंत्री रहे हैं। चुनाव के दौरान जब एक यू ट्यूबर ने उनसे उनकी जीत के बारे में सवाल किया तो उनका जवाब था ‘सीट तो जीती हुई है।’ अवधेश प्रसाद ने यू ट्यूबर को चुनौती दे दी कि आपको न विश्वास हो तो “हम गाड़ी दे दे रहे हैं, ‘भेली’ (गुड़) रखवा दे रहे हैं, गर्मी का दिन है- गांव-गांव जाओ और किसी भी गांव में चले जाओ। यदि वहां सौ लोग हैं तो उसमें से सत्तर लोग अवघेश को वोट देने को कहेंगे।” यानी उनका आत्मविश्वास चुनाव के दौरान ही था। जब उनके नेता अखिलेश यादव ने पहली चुनावी सभा में यह कह दिया ‘ भीड़ बताती है कि अयोध्या अवधेश की हो गई है।’ ऐसे में अवधेश प्रसाद का सीना चौड़ा होना ही था। लेकिन जब दूसरी चुनावी सभा, जो मिल्कीपुर में ही आयोजित हुई जहां से अवधेश प्रसाद विधायक रहे हैं, प्रचंड गर्मी में चारों ओर भीड़ ही भीड़ देखकर सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव अपने सम्बोधन में अवधेश प्रसाद को पूर्व विधायक बोल गए तो अवधेश प्रसाद ने हाथ जोड़कर कहा ‘मान्यवर मैं अभी विधायक हूं।’ अन्ततः अखिलेश यादव ने स्वयं को सुधारा और कहा मेरा कहना है कि इस जनता को देखकर यही लग रहा है कि आप ‘सांसद’ हो गए हैं। इसीलिए मैंने ‘पूर्व विधायक’ कहा।

भाजपा ने यह प्रचारित किया कि मंदिर तो मोदी जी ने बनवाया है, उनकी सरकार में ही पांच सौ वर्षों के बाद यह अवसर उनकी वजह से आ पाया है। अयोध्या, फैजाबाद और आस-पास के लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि वह लोग तो पहले भी रामलला के दर्शन और पूजा करने आये थे। रामचबूतरा पर तो रामलला की पूजा 1857 के पहले से होती आयी है। निर्माेही अखाड़ा कहता आया है कि अकबरकाल से उनके लोग रामचबूतरा पर पूजा कर रहे हैं। 1949 में जब मूर्तियां बाबरी मस्जिद के गुम्बद के नीचे पहुंच गईं तो अदालत के आदेश से वहां भी पूजा होने लगी। मुसलमानों के प्रवेश पर निषेधाज्ञा जारी कर दी गई थी तो वहां नमाज का सवाल भी खत्म हो गया था। अयोध्या के तीन प्रमुख मेलों में ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्र के श्रद्धालु ही यहां लाखों की संख्या में आते थे और तमाम अव्यवस्थाओं के बीच रहकर मंदिरों के दर्शन करके सरयू स्नान करके चले जाते थे। ज्यादातर ऐसे लोग सामान्य और गरीब परिवारों से होते थे। अयोध्या के लोगों की अजीविका का केन्द्र भी यह मेले ही थे। यहां से लोग तीर्थस्थलों की भांति ही छोटी-छोटी अपने घरों की जरूरतों का सामान और प्रसाद लेकर जाते थे।

पूरे चुनाव में एक अव्यक्त भय भी लोगों के दिलो दिमाग पर छाया था क्योंकि उन्होंने घरों, दुकानों को ढहते देखा था। खुद अपने ही हाथों से तोड़ा था। खुद को असहाय पा रहे थे। मुआवजा भी नाममात्र का और वह भी देख-देखकर दिया गया था। विरोध करने की स्थिति नहीं थी।

इसलिए भी अयोध्या विधानसभा के खासकर अयोध्या क्षेत्र में रहने वाले लोग लोहे के गर्म होने के इन्तजार में थे जिससे वह उपयुक्त अवसर पर अपना वोट रूपी हथौड़ा चला सकें। हुआ भी यही, जनता ने साइलेंट रहकर परिणाम सुना दिया।

भाजपा में ही कुछ लोग लल्लू सिंह को फिर से टिकट देकर जब भाजपा के प्रत्याशी का चयन का प्रश्न उठाते हैं तो यह भूल जाते हैं कि वाराणसी हो या लखनऊ वहां के भाजपा प्रत्याशी को लेकर तो कोई सवाल नहीं था, फिर जीत का अन्तर कम कैसे हो गया जबकि जीत का रिकॉर्ड बनाने का दावा हो रहा था।

भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी अयोध्या की फैजाबाद सीट पर ही नहीं, फैजाबाद मंडल के पांच जिलों की सभी सीटों पर भाजपा हारी। वह चाहे अयोध्या जिले की फैजबाद और अम्बेडकरनगर जिले की लोकसभा सीट रही हो या सुल्तानपुर अमेठी और रायबरेली की सीट। इसके साथ ही आस-पास की सीटों पर भी भाजपा हारी है। यही नहीं, राममंदिर निर्माण समिति के अध्यक्ष नृपेन्द्र मिश्र के पुत्र साकेत मिश्र जो उत्तर प्रदेश विधानपरिषद के सदस्य भी हैं, श्रावस्ती से लोकसभा चुनाव हार गए। इससे यही प्रतीत होता है कि कहीं न कहीं कोई अंडरकरंट भाजपा के खिलाफ थी जिसमें चुनाव बैकवर्ड बनाम फारवर्ड हो गया था। जिसकी परिणति इस रूप में हुई। जिसकी वजह से भाजपा, जो अस्सी में अस्सी सीटों का दावा कर रही थी, 33 सीटों पर सिमट गई।

इस चुनाव में संविधान एक बड़ा प्रश्न उभरा जिसने दलित समुदाय को अपनी बसपा के प्रति प्रतिबद्धता को छोड़कर आगे आने को मजबूर होना पड़ा। संविधान बदलने के लिए चार सौ जरूरी है, यह भाजपा सांसद लल्लू सिंह ने अपने लोगों के बीच कहा था। जो वीडियो वायरल हुआ उसमें वे कहते नजर आये कि सरकार तो 272 पर ही बन सकती है लेकिन चार सौ चाहिए। वहीं, समाजवादी पार्टी ने भी अपने परम्परागत आधार वोटों के बजाय ओबीसी की अन्य पिछड़ी, अति पिछड़ी जातियों को चुनाव मैदान में उतारा। जो राजनीतिक पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) के साथ सामाजिक समीकरण को अनुकूल बनाने में सहायक सिद्ध हुआ। फैजाबाद लोकसभा सीट, जो एक सामान्य सीट रही है, पहली बार अनुसूचित जाति के प्रत्याशी अवधेश प्रसाद को सफलता मिली है। 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने छोटी-छोटी पार्टियों को लेकर गठबंधन बनाया था लेकिन जब वह सत्ता में नहीं आ सके तो वह भाजपा के पास एक-एक करके चली गईं। 2024 के लिए उन्होंने पीडीए का प्रयोग किया और इस प्रयोग के तहत उत्तर प्रदेश के लोकसभा चुनाव, जो समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन से लड़ी, समाजवादी पार्टी 62 सीटों और कांग्रेस 18 पर लड़ी। समाजवादी पार्टी ने पीडीए के तहत 32 ओबीसी, 16 दलित, 10 सवर्ण और 4 मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में उतारे। ओबीसी में से यादवों को सिर्फ पांच टिकट दिए गये, जो सभी उन्हीं के परिवार से रहे। इसमें वह खुद और उनकी पत्नी भी शामिल रहीं।

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