“आज की राजनीतिक उथल पुथल के बीच राहुल गाँधी जो कर रहा है वो बहुत ही ईमानदार प्रयास है। यह भी कह सकता हूँ कि कोई घपला नहीं किया है उसने। वैचारिक घपला भी नहीं किया है। आज नहीं तो कल वो हो सकता है महात्मा गाँधी, नेल्सन मंडेला की परम्परा में आए।” -काशीनाथ सिंह ( साहित्य अकादमी और भारत-भारती पुरस्कार से सम्मानित हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार, नवभारत टाइम्स में छपे हालिया साक्षात्कार में।)
“ भारत जोड़ो यात्रा ने न केवल राहुल को राष्ट्रनेता के रूप में स्थापित किया बल्कि देश के राजनीतिक परिदृश्य को भी मजबूत किया। …युवा कांग्रेस नेता ने राजनीति में काफी परेशानी का सामना किया, लेकिन हाल के कुछ वर्षों में उन्होंने असाधारण प्रदर्शन किया है। मुझे इस बात की खुशी है कि राहुल चुनाव केवल अपनी गुणवत्ता और क्षमता पर नहीं लड़ते हैं, बल्कि इस पर ध्यान देते हैं कि देश क्या चाहता है!” - अमर्त्य सेन (नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री पीटीआई को दिये साक्षात्कार में।)
कांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गाँधी के बारे में ये दो बयान बताते हैं कि दुनिया उन्हें किन नज़रों से देख रही है। सत्ता-पोषित नफ़रत से बने हिंसक माहौल में राहुल गाँधी ने जिस तरह से प्रेम और सद्भावना को राजनीतिक विमर्श की धुरी बनाया है, वह उन्हें युगांतकारी नेता की धज दे रहा है। दस साल पहले नरेंद्र मोदी के बनारस से चुनाव लड़ने का स्वागत करने वाले काशीवासी साहित्यकार काशीनाथ सिंह अगर राहुल गाँधी को महात्मा गाँधी और नेल्सन मंडेला की परंपरा से जोड़ रहे हैं और अमर्त्य सेन उनके प्रदर्शन को ‘असाधारण और देश की आकांक्षा से जुड़ा’ बता रहे हैं तो ये प्रतिसाद की आशा में किसी राजनेता को ख़ुश करने के लिए दिये गये बयान नहीं हैं। इसके पीछे राहुल गाँधी की अहर्निश मेहनत और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के संकल्पों के प्रति अटूट प्रतिबद्धता को चिन्हित करना है जिसने इन विद्वान लेखकों के दिल को छुआ है।
राहुल की तेज़ी से स्वीकृति होती जा रही इसी मानवीय और संवेदनशील छवि ने आरएसएस-बीजेपी ख़ेमे को बेचैन कर दिया है। इसी का नतीजा है कि अमेरिका में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप पर हुए हमले के संदर्भ में बीजेपी के आईटी सेल के चेयरमैन अमित मालवीय ने राहुल गाँधी पर हमला बोला है। उन्होंने दावा किया कि जैसे अमेरिका में ट्रंप विरोधियों के बनाये माहौल का नतीजा जानलेवा गोलीबारी है वैसा ही परिणाम राहुल के बनाये मोदी विरोधी माहौल का भी हो सकता है।
इसमें शक़ नहीं कि डोनाल्ड ट्रंप, पीएम मोदी के ‘प्रिय मित्र’ हैं जिनके पिछले चुनाव में मोदी जी अमेरिका में ‘अब की बार ट्र्ंप सरकार’ का नारा लगा आये थे (ट्र्ंप की हार से भारतीय राजनय को हुए नुक़सान का अंदाज़ा ही लगाया जा सकता है!) लेकिन भारत और अमेरिका की परिस्थिति में बहुत फ़र्क़ है। अमित मालवीय ने आरोप लगाया है कि जिस तरह बीते लोकसभा चुनाव में पीएम मोदी की जीत होने पर संविधान ख़त्म होने की आशंका जतायी गयी वैसे ही अमेरिका में ट्रंप की जीत पर लोकतंत्र ख़त्म होने की आशंका जतायी जा रही है। ट्रंप पर भी पीएम मोदी की तरह तानाशाह होने का आरोप लगाया जा रहा है। यानी ट्र्ंप विरोधियों और मोदी विरोधियों के भाषण एक ही जगह लिखे जा रहे हैं। जो अमेरिका में ट्रंप के साथ हुआ वही भारत में मोदी के साथ हो सकता है। (वैसे ट्रंप पर गोली चलाने वाला थॉमस क्रुक्स उनकी ही रिपब्लिक पार्टी का रजिस्टर्ड मतदाता निकला है।)
हद तो ये है कि इस संदर्भ में ‘इंडिया टुडे’ चैनल पर हुई एक बहस में अमित मालवीय ने इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी की शहादत पर भी शर्मनाक टिप्पणी करने में हिचक नहीं दिखायी। उन्होंने कहा- “पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की मौत से पहले उनके ऊपर पत्थरबाजी की गई थी। प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी की हत्या उनके द्वारा लिए गए राजनीतिक निर्णयों के कारण हुई जिसकी वे निंदा करते हैं, लेकिन गाँधी परिवार के वंशज यानी राहुल गाँधी आज वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी की मौत और उन पर हमले की कामना कर रहे हैं।”
डोनाल्ड ट्र्ंप पर चलायी गयी गोली का रुख़ राहुल गाँधी ही नहीं, गाँधी परिवार के शहीदों की ओर मोड़ने की यह कोशिश भाजपा की कुंठा और हीनभावना की उपज है। इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी ने जो फ़ैसले लिये थे उनका संबंध भारत की एकता और अखंडता से था।
इंदिरा ने तमाम आशंकाओं के बावजूद अपने सिख अंगरक्षकों को नहीं हटाया था क्योंकि यह धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के विरुद्ध होता। वहीं राजीव गाँधी ने तमिलों का अलग देश बनाने के व्यापक षड्यंत्र के विरुद्ध कठोरता दिखाई थी। उनकी जान का ख़तरा था। इसके बावजूद लोगों से खुलकर मिलना उन्होंने बंद नहीं किया और इसी का फ़ायदा उठाकर उन पर चुनावी रैली में उन पर जानलेवा हमला किया गया था। माँ-बेटे की शहादत की ऐसी कोई मिसाल विश्व इतिहास में नहीं है जिन्होंने जानबूझकर ऐसा जोख़िम लिया हो।
गाँधी परिवार की यही बलिदानी परंपरा और संवेदनशील मिज़ाज बीजेपी को सबसे ज़्यादा सालता है जिसके सामने उसका ही नहीं, पीएम मोदी का तेज भी धूमिल पड़ जाता है। पीएम मोदी की मगरमच्छ से खेलने जैसी गढ़ी गयी तमाम कथाओं में त्याग या बलिदान का कोई अध्याय नहीं बन पाया है। इसीलिए राहुल गाँधी की छवि बिगाड़ने के लिए सैकड़ों करोड़ का मीडिया प्रोजेक्ट और नेहरू, इंदिरा और राजीव गाँधी के प्रति रात-दिन निंदा अभियान चलाया जाता है। अमित मालवीय का ताज़ा बयान भी राहुल गाँधी की उजली टीशर्ट पर ख़ून के छींटे मारने की कोशिश है।
बहरहाल, इसमें शक नहीं कि देश में हिंसा का माहौल बना हुआ है। लेकिन इसके लिए राहुल गाँधी ज़िम्मेदार नहीं हैं जो मणिपुर से लेकर हाथरस तक पीड़ितों के ज़ख़्मों पर मरहम लगाते नज़र आते हैं। इसके पीछे वही राजनीति ज़िम्मेदार है जो देश के हर शहर-गाँव को धार्मिक आधार पर विभाजित करने का दशकों से विषैला प्रोजेक्ट चला रही है। अफ़सोस कि भारत के प्रधानमंत्री इस प्रोजेक्ट के सिरमौर हैं जिन्होंने बीते लोकसभा चुनाव में अपने भाषणों से ख़ासतौर पर मुस्लिम समाज के ख़िलाफ़ खुलकर नफ़रत फैलाई। तमाम बेगुनाह मुसलमानों की लिंचिंग की घटनाएँ यूँ ही नहीं हुई हैं। बीजेपी ने हत्यारों और बलात्कारियों को सम्मानित करने का अभियान चलाया है। बिल्किस बानो के बलात्कारियों को छोड़ना, कठुआ में बलात्कारियों के पक्ष में जुलूस और मॉब लिंचिंग के आरोपियों को ज़मानत मिलने पर माला-फूल से स्वागत करने का ‘पाप’ बीजेपी के हिस्से ही है। इसी माहौल का नतीजा है कि ‘भारत में रहना है तो मोदी-योगी कहना होगा’ कहते हुए आरपीएफ़ का एक जवान तीन मुसलमानों की गोली मारकर जान ले लेता है।
आधुनिक और लोकतांत्रिक भारत में हिंसा का ऐसा प्रोजेक्ट सामान्य नहीं है। यह विशिष्ट क़िस्म की राजनीति का बायप्रोडक्ट है। यह हिंसा आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों के प्रयासों से फैली है जो अहिंसा को कायरता समझते हैं। आरएसएस का तो पूरा प्रोजेक्ट ही हिंदू समाज के ‘सैन्यीकरण’ का है। भारत में सार्वजनिक रूप से शस्त्रपूजा और हथियारों के साथ पथसंचलन आरएसएस ही करता रहा है। पीएम मोदी दुनिया भर में ‘बुद्ध को भारत की देन’ बताते घूमते हैं लेकिन उनकी विचारधारा हमेशा बुद्ध को भारत को अहिंसक बनाने के लिए कोसती रही है। आरएसएस के प्रात:स्मरणीय विनायक दामोदर सावरकर ने 1920 के दशक की शुरुआत में प्रकाशित अपनी पुस्तक, ‘एसेंशियल्स ऑफ हिंदुत्व’ में लिखा है कि “भारत में बौद्ध धर्म का प्रसार राष्ट्रीय वीरता के लिए विनाशकारी साबित हुआ। इसने भारत को विजय के लिए अतिसंवेदनशील बना दिया, जिससे लोगों में बौद्ध धर्म के खिलाफ़ प्रतिक्रिया भड़क उठी।” सावरकर भारत में बौद्ध धर्म के पतन का जश्न मनाते हैं।
अमित मालवीय का राहुल गाँधी पर हिंसा फैलाने का आरोप लगाना वैसा ही है जैसे कि नाथूराम गोडसे, महात्मा गाँधी पर हिंसा फैलाने का आरोप लगाये। यह कोई काल्पनिक बात नहीं है।
महात्मा गाँधी की हत्या को ‘वध’ बताकर ‘न्यायोचित’ (वध राक्षसों का होता है!) ठहराने वाली गोपाल गोडसे की किताब 'गाँधी वध क्यों?’ बीजेपी और आरएसएस के शैक्षिक शिविरों का अनिवार्य पाठ रही है। बीजेपी दफ़्तरों से इस किताब को प्रचारित-प्रसारित करने का सिलसिला दशकों से जारी है। ये संयोग नहीं कि बीजेपी और आरएसएस शिविर से जुड़े तमाम नेता और कार्यकर्ता गाहे-बगाहे गोडसे की तारीफ़ करते पाये जाते हैं।
कांग्रेस ने 139 साल के इतिहास में हिंसा को कभी अपनी नीति नहीं बनाया। बल्कि महात्मा गाँधी के नेतृत्व में अहिंसक प्रतिवाद का जैसा सिद्धांत गढ़ा गया उसने भारत ही नहीं, ग्लोब के तमाम हिस्सों को अधिक रक्तरंजित होने से बचाया है। राहुल गाँधी महात्मा गाँधी की दिखाई उसी राह के राही हैं, जिसे दुनिया खुली आँखों से देख रही है चाहे बीजेपी की आँख बंद हो।
पुनश्च: राहुल गाँधी को कोसने के चक्कर में अमित मालवीय यहाँ तक कह गये कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘एंटी फ़ासिस्ट लेफ़्ट गठबंधन’ चुनी हुई सरकारों को उखाड़ फेंकना चाहता है जिससे राहुल गाँधी जुड़े हैं। उनके भाषण भी वैसे ही हैं जैसे कि अमेरिका में ट्रंप विरोधियों के। ऐसा कहते हुए अमित मालवीय मान लेते हैं कि बीजेपी फ़ासिस्टों के विरोध के ख़िलाफ़ है। यह सही है कि आरएसएस हिटलर और मुसोलिनी से प्रेरणा लेता रहा है, लेकिन क्या अमित मालवीय इस खुली स्वीकारोक्ति का मतलब समझते हैं?