बार-बार विपक्षी एकता का मर्सिया पढ़ने वाले राजनीतिक विश्लेषकों और मुख्यधारा के मीडिया को 12 अप्रैल का धक्का काफ़ी दिनों तक बेचैन करता रहेगा। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने जेडीयू और आरजेडी के कई वरिष्ठ नेताओं के साथ कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के आवास पर मुलाक़ात की। इस बैठक में राहुल गाँधी भी मौजूद थे। इस ‘सकारात्मक’ बातचीत के बाद राहुल गाँधी ने कहा कि देश पर हो रहे आक्रमण का मुक़ाबला विचारधारा के आधार पर होगा। वहीं, नीतीश कुमार ने कहा कि विपक्षी गठबंधन में ज़्यादा से ज़्यादा पार्टियों को साथ लेने की कोशिश होगी।
वैसे तो विपक्षी गठबंधन की किसी भी गंभीर कोशिश का बीजेपी की ओर से मज़ाक़ उड़ाया जाता है लेकिन उसे अच्छी तरह पता है कि 2024 में अगर कोई वास्तविक ख़तरा हो सकता है तो वह एकजुट विपक्ष ही है। यही वजह है कि बीजेपी की ओर से नीतीश कुमार पर यह कहते हुए हमला हुआ है कि सत्ता के लिए न जाने किस-किस के सामने झुकेंगे। यह बयान बीजेपी के बिहार प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चौधरी का है जबकि वहाँ उनकी पार्टी सत्ता के लिए नीतीश कुमार के सामने न जाने कितनी बार झुक चुकी है। यह बयान विपक्ष की एकता की आहट से पैदा हुई घबराहट है।
दो-तीन दिन पहले तक मीडिया में एनसीपी प्रमुख शरद पवार छाये हुए थे। अडानी के टीवी चैनल को दिया गया उनका एक इंटरव्यू टीवी, अख़बार और सोशल मीडिया में सुर्खी था जिसमें वे अडानी प्रकरण की जेपीसी जाँच की माँग को बेमानी बता रहे थे। धूम-धड़ाके के साथ घोषित किया जा रहा था कि विपक्षी एकता जैसी कोई चीज़ संभव नहीं है। शरद पवार के विराट अनुभव संसार की दुहाई देते हुए राहुल गाँधी की कॉरपोरेट के ख़िलाफ़ लड़ाई को हास्यास्पद क़रार देने की कोशिश हो रही थी। न किसी को तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन का प्रयास दिख रहा था और न नीतीश कुमार का। बीजेपी की आक्रामकता के सामने ‘कुछ न करने’ या ‘कुछ न कर पाने’ की लानत भेजने वाले विश्लेषकों के लिए यह पुनर्विचार का वक़्त है, अगर वे करना चाहें।
भारत का लोकतंत्र किस क़दर संकट में है, यह अब हवाई बात नहीं रह गयी है। एक ‘लिबरल डेमोक्रेसी’ को ‘ इलेक्टोरल डेमोक्रेसी’ में बदलते हम देख रहे हैं जहाँ बहुमत होने का तर्क देकर संवैधानिक संस्थाएँ और लोकतांत्रिक परंपराएँ तेज़ी से बेमानी बनायी जा रही हैं। प्रधानमंत्री सिर्फ़ परिधानों की चमक से नहीं, अपने हाव-भाव और एकाधिकारवादी रवैये से भी किसी मध्ययुगीन सुल्तान या प्राचीन सम्राट की तरह पेश आते दिखते हैं जो धरती पर ‘ईश्वर की छाया’ होता था जिससे सवाल नहीं किया जा सकता था। राहुल गाँधी अगर संसद सदस्यता खोने के बाद बेघर होने के कगार पर हैं तो वजह सवाल करना ही है। अडानी से पीएम मोदी के रिश्ते का सवाल पूछना ही उनका गुनाह है।
कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गाँधी का ‘द हिंदू’ में छपा लेख इसी को स्पष्ट करता है जिसमें मीडिया पर क़ब्जे के बाद लोकतंत्र के तीनों स्तम्भों को ध्वस्त करने की मोदी सरकार की कोशिशों का विस्तार से उल्लेख है। नफ़रत और हिंसा की अनदेखी, चीन की घुसपैठ पर चुप्पी और विपक्ष को बेरोज़गारी, महंगाई, सामाजिक विभाजन और अडानी स्कैम जैसे मुद्दे को न उठाने देने के लिए संसद की कार्यवाही बाधित करने की सरकार की ओर से हुई अभूतपूर्व कोशिश के लिए उन्होंने सीधे पीएम मोदी को निशाना बनाया है। इस लेख का अंत करते हुए श्रीमती गाँधी ने लिखा कि “पीएम की भरसक कोशिशों के बावजूद भारत के लोगों को चुप नहीं कराया जा सकता है। अगले कुछ महीने हमारे देश की लोकतंत्र की परीक्षा के लिहाज से अहम हैं।“
सोनिया गाँधी के इस लेख के छपने के बाद ही माहौल बदलने लगा। शरद पवार ने खुद को जेपीसी की माँग कर रहे विपक्ष के साथ एकजुट बता दिया और उसके तुरंत बाद नीतीश कुमार की विपक्षी एकता के लिए की जा रही पहलक़दमी साफ़ नज़र आने लगी।
और जिस तरह एक व्यापक मोर्चा बनाने की तैयारी दिख रही है, वह बताता है कि विपक्ष सोनिया गाँधी की उसी रणनीति को अपनाने जा रहा है जिसके दम पर 2004 में अजेय समझे जा रहे प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को अपदस्थ होना पड़ा था। यूपीए ने बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए को मात देने में कामयाबी पायी थी।
बीस साल बाद परिस्थितियाँ ठीक वैसी नहीं हैं लेकिन बुनियादी गणित में बदलाव नहीं आया है। 2004 में एनडीए में तमाम दल थे जबकि 2024 में बीजेपी के सहयोगियों के नाम पर इक्का-दुक्का और बेहद सीमित असर वाले दल ही बचे हैं। यहाँ तक कि शिवसेना और शिरोमणि अकाली दल जैसे उसके विश्वस्त सहयोगी भी साथ नहीं हैं जो महाराष्ट्र और पंजाब में काम के साबित हो सकते थे। उधर नीतीश कुमार ने कहा है कि देश के बहुत से दल विपक्षी गठबंधन के हिस्सा बनने को तैयार हैं। यानी यूपीए और सहयोगी दलों की संख्या पहले से बढ़ने की संभावना साफ़ नज़र आ रही है। तमाम दलों को यह समझ में आ गया है कि बीजेपी का एकाधिकारवादी रवैया न सिर्फ़ संघीय ढाँचे में राज्यों को मिले अधिकारों को ख़त्म कर रहा है, राज्य स्तर पर सक्रिय दलों को भी ख़त्म करना उसका लक्ष्य है।
बीजेपी की घबराहट की वजह भी यही है। वह जानती है कि किसी व्यापक विपक्षी गठबंधन से मोर्चा लेना आसान नहीं होगा। इसीलिए वह ऐसी हर पहलक़दमी का मज़ाक़ बनाने की रणनीति पर काम करती रही है। कांग्रेस और दूसरे दलों के बीच दरार डालने और उन्हें ग़ैर-कांग्रेसवाद के दिनों की याद दिलाना ख़ुद पीएम मोदी की रणनीति रही है। वह जानते हैं कि 2019 में पुलवामा और बालाकोट की पृष्ठभूमि होने के बावजूद लोकसभा चुनाव में उसे 38 फ़ीसदी से कम वोट ही मिले थे। यानी उस उन्मादी माहौल में भी जिन लोगों ने बीजेपी को वोट नहीं दिया, उनकी तादाद क़रीब 62 फ़ीसदी है। विपक्ष अगर मतदाताओं के इस समूह को एकजुट कर लेता है तो 2024 में हैट्रिक लगाने की पीएम मोदी की कोशिशों पर पानी फिर सकता है।
रामनवमी के त्योहार पर हुई कई शहरों में हुई सांप्रदायिक हिंसा या फिर हिंदू संगठनों द्वारा ख़ुद गोहत्या करके मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत भड़काने की साज़िशों का पर्दाफ़ाश बताता है कि चुनावी लाभ के लिए कैसी-कैसी रणनीति बन रही है। विडंबना ये है कि अपनी नाकामियों पर पर्दा डालने के लिए सत्ता पक्ष की ओर से अपनायी गयी ये रणनीतियाँ जिस देश में भी सफल हुई हैं, बर्बादी हुई है।
इस समय देश अर्थव्यवस्था से लेकर सामाजिक ताने-बाने तक के मोर्चे पर बेहद नाज़ुक मोड़ पर खड़ा है। भुखमरी इंडेक्स में 108वें नंबर पर होना और बेरोज़गारी दर का 8 फ़ीसदी पर पहुँचना बताता है कि मोदी सरकार ने मीडिया में बज रहे तमाम ढोल के बावजूद भारत को एक अभूतपूर्व संकट में फँसा दिया है। अगर भारत में संवैधानिक लोकतंत्र को बचना है और दंडहीनता के आश्वासन पर नग्ननृत्य पर उतारू सांप्रदायिक हिंसा से निजात पाना है तो मोदी सरकार को अगले चुनाव में हराने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। व्यापक विपक्षी एकजुटता इस लक्ष्य को पाने का ज़रिया है जिसकी शुरुआत हो चुकी है।
(लेखक कांग्रेस से जुड़े है)