“सुभाष आज शायद दिल को कुछ भोजन देने के अलावा कोई दूसरी मानसिक खुराक नहीं दे रहे हैं। अब आवश्यकता इस बात की है कि पंजाब के नौजवानों को इन युगान्तरकारी विचारों को खूब सोच-विचार कर पक्का कर लेना चाहिए। इस समय पंजाब को मानसिक भोजन की सख्त जरूरत है और यह पण्डित जवाहरलाल नेहरू से ही मिल सकता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके अन्धे पैरोकार बन जाना चाहिए।”
ये पंक्तियाँ 1928 में पंजाबी पत्रिका ‘किरती’ में छपे भगत सिंह के लेख से ली गयी हैं। ‘नये नेताओं के अलग-अलग विचार’ शीर्षक से छपे इस लेख में भगत सिंह ने सुभाषचंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू के विचारों की तुलना की थी जो उन दिनों युवाओं के बीच बेहद लोकप्रिय हो रहे थे। भगत सिंह की नज़र में प.नेहरू के विचार युगांतरकारी थे जिनका युवाओं को साथ देना चाहिए।
एक ऐसे समय में जब देश के प्रधानमंत्री मोदी की अगुवाई में ‘आधुनिक भारत के निर्माता’ कहे जाने वाले प्रथम प्रधानमंत्री पं.नेहरू की ‘छविभंजन’ का संगठित अभियान चलाया जा रहा है, भगत सिंह के इन विचारों को जानना बेहद महत्वपूर्ण है। ख़ासतौर पर जब यह बताने की कोशिश भी लगातार जारी है कि देश को गाँधी की अहिंसा से नहीं भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के बलिदान की वजह से आज़ादी मिली। यह प्रचारित किया जाता है कि क्रांतिकारियों और कांग्रेस का आंदोलन एक दूसरे के ख़िलाफ़ था। आज़ादी के आंदोलन से दूर रहने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविर से संबद्ध नेता और कार्यकर्ता इस बहाने अंग्रेज़ों का साथ देने का अपराधबोध कम करने की कोशिश करते हैं।
भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी आंदोलन के कंधे पर बंदूक रखकर की जाने वाली इस निशानेबाज़ी की हक़ीक़त समझने के लिए क्रांतिकारियों के लिखे दस्तावेज़ों का अध्ययन किया जाना चाहिए। ऊपर जिस लेख का ज़िक़्र है उसमें भगत सिंह ने विस्तार से बताया है कि आख़िर वे क्यों नेहरू को ‘युगांतरकारी’ कह रहे हैं। इस लेख में भगत सिंह पं.नेहरू के एक भाषण का ज़िक्र करते हैं जिसमें उन्होंने कहा था- “प्रत्येक नौजवान को विद्रोह करना चाहिए। राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक क्षेत्र में भी। मुझे ऐसे व्यक्ति की कोई आवश्यकता नहीं जो आकर कहे कि फलाँ बात कुरान में लिखी हुई है। कोई बात जो अपनी समझदारी की परख में सही साबित न हो उसे चाहे वेद और कुरान में कितना ही अच्छा क्यों न कहा गया हो, नहीं माननी चाहिए।”
भगत सिंह की नज़र में यह भाषण सुभाष बाबू की अतीतमोह से उलट है जिनके पास “बस पुरातन सभ्यता के शोर के अलावा उनके पास कोई कार्यक्रम नहीं। युवाओं के दिमागों को वे कुछ नया नहीं देते। केवल दिल को भावुकता से ही भरना चाहते हैं।” भगत सिंह लिखते हैं,“सुभाष बाबू मजदूरों से सहानुभूति रखते हैं और उनकी स्थिति सुधारना चाहते हैं। पण्डित जी एक क्रांति करके सारी व्यवस्था ही बदल देना चाहते हैं। सुभाष भावुक हैं— दिल के लिए। नौजवानों को बहुत कुछ दे रहे हैं, पर मात्र दिल के लिए। दूसरा युगान्तरकारी है जो कि दिल के साथ-साथ दिमाग को भी बहुत कुछ दे रहा है।”
इसका अर्थ नहीं कि भगत सिंह सुभाषचंद्र बोस को कमतर दिखाना चाहते हैं, लेकिन विचारधारा को सर्वाधिक महत्व देने वाले भगत सिंह की कसौटी पर नेहरू की भविष्यदृष्टि ज़्यादा खरी उतर रही थी। भगत सिंह को लगता था कि अतीत के किसी स्वर्णयुग की बात बेमानी है। ऐसा युग भविष्य में तभी संभव होगा जब हर तरह के शोषण का अंत हो जाये।
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इसमें शक़ नहीं कि हिंसा-अहिंसा के प्रश्न पर कांग्रेस और क्रांतिकारियों के बीच मतभेद था, लेकिन इस मतभेद को एक-दूसरे के दुश्मन की तरह पेश करने की कोशिश हास्यास्पद है। जिन महात्मा गाँधी पर भगत सिंह की फाँसी रोकने की कोशिश न करने की ग़लत तोहमत मढ़ी जाती है उन्होंने भगत सिंह की शहादत को सलाम करते हुए ख़ुद एक प्रस्ताव लिखा जिसे कराची कांग्रेस के अधिवेशन में पेश किया गया।
शहादत के छह दिन बाद 29 मार्च 1931 को इस प्रस्ताव को पढ़ते हुए पं.नेहरू ने कहा कहा- “भगत सिंह क्या था। वह एक नौजवान लड़का था। उसके अंदर मुल्क के लिए आग भरी थी। वह शोला था। चंद महीनों के अंदर वह आग की एक चिंगारी बन गया, जो मुल्क में एक कोने से दूसरे कोने तक आग फैल गयी। मुल्क में अंधेरा था, चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा नजर आता था, वहाँ अंधेरी रात में एक रोशनी दिखाई देने लगी। हमारा यानी कांग्रेस का प्रोग्राम साफ है। हम कहते हैं कि शांति से हम काम करेंगे। हम शांति कायम रखने की हर एक कोशिश करते हैं। हम चाहे कितनी ही कोशिश क्यों न करें, हमारे रास्ते में अड़चनें लगाई जा रही हैं। क्या भगत सिंह की फांसी से मुल्क में अशांति नहीं फैलेगी?” पं.नेहरू का यह भाषण बताता है कि भगत सिंह और उनके साथियों के प्रति उनके मन में कैसा भाव था।
यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इलाहाबाद का जो ‘आनंद भवन’ कांग्रेस का मुख्यालय था वहाँ से चंद्रशेखर आज़ाद जैसे महान क्रांतिकारियों को भी मदद मिलती थी। इस बात का प्रमाण हमें भगत सिंह और आज़ाद के तमाम साथियों के संस्मरणों में मिलते हैं।
23 मार्च 1931 को भगत सिंह को सुखदेव और राजगुरु के साथ फाँसी पर चढ़ाया गया था। हर साल यह तारीख़ क़रीब आते ही देश भर में भगत सिंह और साथियों की मूर्तियों और तस्वीरों को फूल-मालाओं से लाद दिया जाता है। यह सब कुछ इस अंदाज़ में होता है कि उनके विचार छिप जायें। लेकिन भगत सिंह को ‘शहीदे आज़म’ का ख़िताब इसलिए मिला है क्योंकि उन्होंने अपने क्रांतिकारी आंदोलन की स्पष्ट रूपरेखा पेश की। उन्होंने ज़ोर देकर क्रांतिकारियों की हिंदुस्तान रिपब्लिक आर्मी को ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ में बदला था। वे सोवियत क्रांति से प्रभावित थे और भारत में भी उसी अंदाज़ में क्रांति चाहते थे ताकि मज़दूरों और किसानों का राज स्थापित हो सके।
निश्चित ही, आज़ादी के बाद का भारत वैसा नहीं बन सका जैसा कि भगत सिंह चाहते थे लेकिन मज़दूरों और किसानों के हित में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के तहत संवैधानिक ढंग से जो कुछ हुआ, वह भी किसी क्रांति से कम नहीं है। मौजूदा मोदी सरकार इन उपलब्धियों पर ग्रहण लगा रही है। इतना ही नहीं, ‘धर्मध्वजा’ उठाकर ‘राज्य के कल्याणकारी स्वरूप’ को तहस-नहस करने में जुटी इस सत्ता को चलाने वाले ईश्वर के अस्तित्व को नकारने वाले ‘नास्तिक और समाजवादी’ भगत सिंह को अपने पाले में बताने की कोशिश भी करते हैं, जो एक त्रासदी ही है जिस पर अफ़सोस से कुछ ज़्यादा करने की ज़रूरत है।
(लेखक कांग्रेस से जुड़े है)